डॉ. मोनिका शर्मा का लेख : महिलाओं के लिए प्रेरणा बनेंगी मुर्मू

डॉ. मोनिका शर्मा
अमेरिका जैसे विकसित और प्रगतिशील माने जाने वाले देश में जहां आज भी राष्ट्रपति का पद किसी महिला के आसीन होने का इंतजार कर रहा है, वहीं भारत में दूसरी बार इस पद पर स्त्री शक्ति विराजमान हो गई है| एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू बड़े अंतर से देश की 15वीं राष्ट्रपति चुन ली गई हैं। भारत की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति बनी मुर्मू, इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने वाली देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं। गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड की मीटिंग के बाद उनके नाम पर बनी सहमति के बाद पूर्वी भारत से आने वाली द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार घोषित किया गया था। द्रौपदी मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रहीं हैं| शिक्षक के रूप में भी अपनी सेवाएं दे चुकी हैं|उनकी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत भी जमीनी स्तर से हुई है। दायित्व निर्वहन के मामले में पीछे न रहने वाली द्रौपदी विधायक के रूप में वर्ष 2007 में सर्वश्रेष्ठ विधायक होने का सम्मान अपने नाम कर चुकी हैं|आम परिवार से निकलकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने की उनकी यात्रा देश को इस छोर से उस छोर तक, जोड़ने वाली सी लगती है। इतना ही नहीं उनकी यह संघर्ष यात्रा अपने आप में एक मिसाल है। प्रधानमंत्री मोदी उन्हें बधाई देते हुए कहा-भारत ने इतिहास लिखा है। जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, पूर्वी भारत के सुदूर हिस्से में पैदा हुई एक आदिवासी समुदाय की बेटी को राष्ट्रपति चुना गया है।
विविधता भरा प्रशासनिक अनुभव और सामाजिक जुड़ाव उनके व्यक्तित्व की विशेषता है| ऐसे में उनका राष्ट्रपति पद पर चुना जाना समाज की बेहतरी के लिए मानवीय जज्बा रखने वाले स्त्री चेहरे का आगे आने जैसा है। साथ ही पहली बार देश में आदिवासी समुदाय की महिला का राष्ट्रपति भवन तक पहुंचना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और समतामूलक समाज का भाव भी सामने रखता है। यह महिलाओं का भी हौसला बढ़ाने वाली बात है। गौरतलब है कि प्रतिभा पाटिल के बाद दूसरी बार महिला इस पद पर आसीन हुई हैं।
दरअसल, जनजातीय नेता से राज्यपाल तक का सफर तय करने वाली मुर्मू के चेहरे का देश के सर्वोच्च नागरिक के पद पर पहुंचना कई पहलुओं पर अहम है| कहना गलत नहीं होगा कि उनका निर्वाचन देश में दोयम दर्जे से जूझती आधी आबादी से जुड़े पूर्वाग्रह तोड़ने वाला है| हालांकि ऐसे फैसलों को राजनीतिक समीकरण साधने से जोड़कर भी देखा जाता है, बावजूद इसके महिला प्रतिनिधित्व का देश सर्वोच्च्च संवैधानिक पद पर आसीन होना कई मायने में अहम्ा तो है ही| राजनीतिक पटल पर ही नहीं समाज और परिवार में भी आधी आबादी की बढ़ती हिस्सेदारी को रेखांकित करता है| पितृसत्तात्मक समाज, घरेलू जिम्मेदारियां, दोयम दर्जे की सामाजिक सोच, लैंगिक भेदभाव और राजनीति में पुरुषों के वर्चस्व जैसे कई कारणों के चलते भारत में आज भी महिलाओं की सियासी भागीदारी कम ही है| दो साल पहले सेंटर फॉर डेवलपिंग स्टडीज और कोनराड एडेनॉयर स्टिफटंग द्वारा किए एक सर्वेक्षण में भारतीय महिलाओं और उनकी राजनीतिक सक्रियता से संबंधित कई पहलुओं पर विचारणीय स्थितियां सामने आईं थीं| सर्वेक्षण के अनुसार आधी आबादी की चुनावी भागीदारी में उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति का विशेष प्रभाव होता है। उच्च सामाजिक और आर्थिक वर्गों की महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी अधिक रही है|
ऐसे में न तो आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू के संघर्ष के सफर को समझना मुश्किल है और न ही इस यात्रा के सुफल के मायने आंकना। अभावों और पुरातन सोच के परिवेश में भी खुद को मजबूती से थामकर स्पष्ट सधा दृष्टिकोण रखना सरल नहीं होता। झारखंड की पहली आदिवासी नेता और पहली राज्यपाल रहीं मुर्मू के विषय में यह रेखांकित करने योग्य बात रही है कि वे अपने पूरे कार्यकाल में वह कभी विवादों में नहीं रहीं। अपनी जनसाधारण छवि और सामुदायिक जुड़ाव के चलते उन्होंने हर भूमिका में अपनी छाप छोड़ी है। एक सजग राजनेत्री की तरह वे झारखंड के जनजातीय मामलों, कानून व्यवस्था, शैक्षणिक नीतियों, स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़े कई विषयों पर मुखर राय रखती रही हैं| निस्संदेह, मुर्मू का देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए चुना जाने का प्रभाव समग्र समाज पर परिलक्षित होगा। उनका निर्वाचन पारिवारिक सबलता और पहुंच के बल पर ही किसी क्षेत्र में अपना मुकाम बनाने के पूर्वाग्रह को तोड़ने वाला है। देश के हर नागरिक की सोच और व्यवहार को महिलाओं के व्यक्तित्व का आकलन क्षमता, योग्यता और प्रभावी हस्तक्षेप रखने के मोर्चे पर करने का संदेश देता है|
यकीनन यह भारतीय समाज के समतामूलक मूल्यों और प्रगतिशील सोच की बानगी ही है कि तकनीक से लेकर सैन्य ताकत और सामाजिक चेतना के मामले में भी आधुनिक समझे जाने वाले अमेरिका में भी राष्ट्रपति चुने जाने के मामले में महिलाओं को कमतर आंकने की मानसिकता मौजूद है। यहां तक कि इस मामले में वहां नस्ली भेदभाव तक देखने में आता है। टाइम पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी जता चुकी एलिजाबेथ वॉरेन ने भी स्वीकार किया था कि महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। 2016 में चुनाव हारने के बाद हिलेरी क्लिंटन भी एक साक्षात्कार में कह चुकी हैं कि यहां हर औरत के पीछे दोहरी सोच का मानक चलता है। यही मापदंड महिलाओं को पीछे रखने के लिए जिम्मेदार है। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं क्यों सुपर पावर कहे जाने वाले अमेरिका में आज तक एक भी महिला राष्ट्रपति बन इस शीर्ष पद पर नहीं बैठ सकी है? सुखद है कि हमारे यहां प्रतिभा देवीसिंह पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति और क्रमानुसार देश की बारहवीं राष्ट्रपति रह चुकी हैं| वे 2007 से 2012 तक इस पद पर आसीन रहीं हैं। इतना ही नहीं हमारे यहां महिलाएं प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष व अन्य कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर भी आसीन हैं और रही हैं। साथ ही सियासी दुनिया में हर बीतते वर्ष के साथ उनकी भागीदारी में भी सुधार हो रहा है। आज महिलाएं ग्राम पंचायतों से लेकर संसद तक अपनी दखल रखती हैं। व्यापक रूप से देखा जाए तो भारत ही नहीं दुनिया के हर हिस्से में महिलाएं संघर्षरत हैं| बावजूद इसके हालात से जूझने वाली स्त्रियां न केवल खुद की पहचान बना रही हैं बल्कि सामुदायिक स्तर पर हालात बेहतर बनाने में भूमिका निभा रही हैं। व्यक्तिगत जीवन की पीड़ाओं और सामुदायिक स्तर पर संघर्षों का डटकर मुक़ाबला करते हुए अन्य महिलाओं के लिए मिसाल भी बन रही हैं। नव-निर्वाचित राष्ट्रपति का जीवन सफर भी कई मोर्चों पर संघर्षपूर्ण रहा है। उनका निर्वाचन सामुदायिक सोच, आधी आबादी की सियासी भागीदारी और स्त्री शक्ति की बढ़ती भूमिका को रेखांकित करते अनगिनत कदमों में से एक अहम कदम है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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