पांच राज्यों के चुनाव में मिथक टूटे

पांच राज्यों के चुनाव में मिथक टूटे
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इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा ने खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चुनावी इतिहास रचने के साथ कई मिथक भी तोड़े हैं, वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने पंजाब की जीत के साथ राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प के रूप में नए विपक्ष का बीज बो दिया है।

प्रमोद भार्गव

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा ने खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में चुनावी इतिहास रचने के साथ कई मिथक भी तोड़े हैं। वहीं, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भारी बहुमत से पंजाब में सरकार बनाने जा रही है। आप की इस अप्रत्याशित जीत ने उसके अखिल भारतीय दल बनने का रास्ता खोल दिया है। आम आदमी पार्टी एक तरह से अब कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी का ठोस विकल्प बनकर तो उभर ही रही है, वहीं उसकी इस जीत ने आप के राष्ट्रीय विकल्प बनने की उम्मीद भी बढ़ा दी है। इस चुनाव को ऐतिहासिक इसलिए भी कहा जाएगा, क्योंकि इस बार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को छोड़कर जो भी पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव लड़ रहे थे, वे हार गए हैं। इनमें पंजाब और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री शामिल हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्रियों में कैप्टन अमरिंदर सिंह, प्रकाश सिंह बादल, सुखबीर सिंह बादल और दो विधानसभा सीटों से लड़ रहे वर्तमान मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी चुनाव हार गए हैं। हर चीज में हास्य को भौंडे उपहास में बदलने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को भी मतदाताओं ने धूल चटा दी है। आप को 92 सीटें देकर, उसे स्वच्छ व जनहितकारी राजनीति करने का पूर्ण बहुमत देकर संपूर्ण विश्वास जता दिया है। अब आप के दिल्ली माॅडल को पंजाब ने और अच्छे से लागू किया जा सकता है, क्योंकि अब दिल्ली की तरह न तो सरकार के पास आधे-अधूरे अधिकार रहेंगे और न ही राज्यपाल का किसी किस्म का हस्तक्षेप?

अब कांगेस के भविष्य की संभावनाओं पर पूरी तरह पानी फिर गया है। उसके तीनों मोहरे सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका को जनता ने पूरी तरह नकार दिया है। यही हश्र बसपा और मायावती का हुआ है। एक समय काशीराम ने पंजाब में ही बसपा का गठन कर उसे लोकप्रिय पार्टी बनाया था। तब लगा था कि यह पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनकर अखिल भारतीय विस्तार कर लेगी, लेकिन काशीराम की लाइलाज बीमारी और मायावती के हाथ बसपा की बागडोर लग जाने से एक तो पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया, दूसरे एकतंत्री हुकूमत का स्वरूप दे दिए जाने के कारण यह पार्टी मायावती की मुट्ठी में बंद हो गई। मायावती ने इसमें जातीय समीकरणों का बेमेल तड़का लगाकर उत्तर प्रदेश की सत्ता तो हथिया ली, लेकिन न तो वे दलितों के लिए कोई क्रांतिकारी नीतिगत लाभ दे पाईं और न ही समग्र समाज के लोकहित साध पाईं। धन लेकर टिकट बेचने के भी उन पर खूब आरोप लगे। आखिर में इस बेनामी संपत्ति का ही परिणाम रहा कि उन्होंने 2022 के इस चुनाव में भाजपा के आगे लगभग हथियार डाल दिए। नतीजतन बसपा महज एक सीट पर सिमट गई, जबकि 2017 में उसकी 19 सीटें थीं। यानी अब बसपा की संभावनाएं धूमिल हो गई हैं।

117 सीटों वाले पंजाब में आप ने दिल्ली की तरह नया इतिहास रचा है। कांग्रेस, भाजपा, शिरोमणि अकाली दल और बसपा बगलें झांक रहे हैं। अमरिंदर सिंह पटियाला के महाराजा रहे हैं, लेकिन उनकी हार ने उन्हें आम आदमी में बदल दिया है। दरअसल अमरिंदर सिंह को ठीक चुनाव के पहले मुख्यमंत्री पद से हटाना कांग्रेस को महंगा पड़ा है। नवजोत सिंह सिद्धूू ने जिस तरह से अमरिंदर सिंह को हटाने का राहुल-प्रियंका के साथ खेल खेला, उसने कांग्रेस का तो सूपड़ा साफ किया ही, खुद को भी गड्ढे में डाल दिया।

साफ है, कांग्रेस को उसकी अंतर्कलह भारी पड़ी। चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर जो दलित कार्ड चला था, वह भी काम नहीं आया। खुद कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू ने अपने भाषणों में चन्नी को झूठा ठहराया और निकम्मा तक कहा। भ्रष्टाचार के धन से चन्नी को करोड़पति होना बताया। इसके बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने की हिम्मत नहीं दिखाई। इससे तय हुआ कि राहुल और प्रियंका दोनों ही न तो कोई दूरदृष्िट रखते हैं और न ही उनमें निर्णय लेने की क्षमता है। अत:एव झाडू ने सबको साफ कर दिया। यही वजह रही कि सभी दिग्गज धूल चाटते दिखाई दिए।

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने पंजाब की जीत के साथ राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प के रूप में नए विपक्ष का बीज बो दिया है। दिल्ली के बाहर किसी अन्य राज्य में सरकार बनाने का अर्थ दल की विस्तारवादी नीति को अमल में लाना है, इसीलिए केजरीवाल ने शहीद भगत सिंह को प्रतीक मानते हुए कहा भी कि पंजाब में जो हुआ, वह किसी इंकलाब से कम नहीं है। भगत सिंह एक जाट सिख थे, लेकिन वे जाति में विश्वास नहीं करते थे। वे नास्तिक थे और साम्यवादी क्रांति के पक्षधर थे। बड़ी चतुराई से केजरीवाल ने भारत माता की जय के साथ इंकलाब जिंदाबाद के नारे भी लगवाए। भगत सिंह एक ऐसे गरम दल के नेता रहे हैं, जिनका प्रभाव पंजाब में ही नहीं पूरे देश में है। साफ है, प्रतीक चुनने में केजरीवाल ने समझदारी बरती है। भविष्य में तय है, आप भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती पेश करने जा रही है। दरअसल आप एक ऐसे दल के रूप में पेश आ रही है, जिससे पेशेवर कार्यकर्ता जुड़ रहे हैं और इनमें एनआरआई भी शामिल हैं, जो धन के प्रबंधन से लेकर सोशल साइट्स पर दल के पक्ष में मुहिम भी चलाते हैं।

अरविंद केजरीवाल के जनता पर जादुई असर ने आम आदमी पार्टी के लिए वैकल्पिक राजनीतिक दल के रूप में खड़ा होने का रास्ता खोल दिया है। गैर कांग्रेस और गैर भाजपावाद का यह दल कालांतर में सही विकल्प साबित हो सकता है, क्योंकि अब तक भाजपा और राममनोहर लोहिया के समाजवादी आंदोलन से निकले लोग ही गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद करके तीसरे मोर्चे का विकल्प साधकर सत्तारूढ़ हुए हैं, लेकिन आजादी के बाद देश में यह पहली बार सामने आया है कि बिना किसी वैचारिक आग्रह के एक राजनीतिक दल, राजनीति में भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था और शुचिता की संस्कृति के पंखों पर सवार होकर देशव्यापी असर दिखाने को उतावला है। कामयाबी की सीढ़ियों पर निरंतर आगे बढ़ती आप ने कांगेस व भाजपा समेत सभी राजनीतिक दलों को सकते में डाल दिया है। सबसे बड़ा झटका पंजाब की हार से कांग्रेस को लगा है, क्योंकि अब राज्यसभा में पंजाब की पांच सीटों के चुनाव होने हैं और आप ने 92 सीटों पर जो बड़ी जीत हासिल की है, उससे तय है कि पांचों सीट उसी की झोली में जाएंगी। छोटे पर्दे के हास्य कलाकार भगवंत सिंह मान को पंजाब जैसे अहम्ा राज्य का मुख्यमंत्री बनाकर आप ने तय कर दिया है कि वह वास्तव में आम आदमी की पार्टी है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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