रवि शंकर का लेख : एड्स पीड़ितों के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत

रवि शंकर का लेख : एड्स पीड़ितों के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत
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एड्स दुनिया में आज भी किसी महामारी से कम नहीं है। भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामाजिक त्रासदी और अभिशाप है। इतना ही नहीं, एचआईवी या एड्स विकास और सामाजिक प्रगति के लिए एक सर्वाधिक विकट चुनौती है। हालांकि, लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करने के मकसद से एक दिसंबर को विश्व एड्स मनाया जाता है। एड्स को तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद अब भी एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है। घर-परिवार और समाज से लेकर कामकाज की जगहों तक में एचआईवी, एड्‌स से ग्रस्त लोग अपमान, प्रताड़ना और भेदभाव के शिकार हो रहे हैं।

रवि शंकर

एड्स दुनिया में आज भी किसी महामारी से कम नहीं है। भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामाजिक त्रासदी और अभिशाप है। इतना ही नहीं, एचआईवी या एड्स विकास और सामाजिक प्रगति के लिए एक सर्वाधिक विकट चुनौती है। हालांकि, लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करने के मकसद से एक दिसंबर को विश्व एड्स मनाया जाता है। एड्स को तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद अब भी एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है। घर-परिवार और समाज से लेकर कामकाज की जगहों तक में एचआईवी, एड्‌स से ग्रस्त लोग अपमान, प्रताड़ना और भेदभाव के शिकार हो रहे हैं। यही वजह है कि 74 प्रतिशत एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति अपने कामकाज की जगह पर अपनी बीमारी की बात छिपाकर रखते हैं। एचआईवी का संक्रमण होने पर उन्हें घर छोड़ने के लिए कह दिया जाता है। एक समय लोग सोचते थे कि भारत जैसे देश में यह रोग तेजी से नहीं फैलेगा, क्योंकि यहां सामाजिक नियम कड़े हैं। यह बात गलत साबित हुई। आज अगर ग्रामीण इलाकों के लोग भी इस रोग की चपेट में आ रहे हैं तो उसका मतलब यह है कि समाज के ऐसे कई पहलू हैं जिनको हमने नहीं समझा है।

भारत को "पूर्णतः एड्स मुक्त" होने में अभी काफी समय लगेगा। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2017 तक करीब 1 लाख 20 हजार बच्चे और किशोर एचआईवी संक्रमण से पीड़ित हैं। ये दक्षिण एशिया के किसी देश में एचआईवी पीड़ितों की सबसे ज्यादा संख्या है। यूनिसेफ ने चेताया है कि अगर इसे रोकने की कोशिशें तेज नहीं की गईं तो 2030 तक हर दिन दुनियाभर में एड्स की वजह से 80 किशोरों की मौत हाे सकती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण एशिया ने बच्चों, किशोरों, गर्भवती महिलाओं और माताओं में एचआईवी की रोकथाम के लिए जरूरी प्रयास किए हैं। हालांकि दुनियाभर में एचआईवी के लगभग 36.9 मिलियन मरीज है। इस संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत पूरे विश्व में एचआईवी पीड़तिों की आबादी के मामले तीसरे स्थान पर हैं। भारत एचआईवी-एड्स उन्मूलन की दिशा में लगातार कठिन प्रयास कर रहा है। लेकिन फिर भी बीमारी ने देश की एक बड़ी आबादी को जकड़ रखा है।

हालांकि, एचआईवी-एड्स को 2030 तक जनस्वास्थ्य को खतरे के तौर पर दूर करने के हमारे रास्ते में बड़ी चुनौतियां बनी हुईं हैं। यह ठीक है कि एचआईवी-एड्स को वैश्विक स्तर पर समझने, उसके उपचार एवं रोकथाम में काफी प्रगति हुई है, लेकिन अब भविष्य की चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित करने और अहम क्षेत्रों में अनुसंधान को तेज करने का समय आ गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन वर्ष 2020 तक 30 मिलियन लोगों को उपचार सुविधा उपलब्ध कराने के अपने लक्ष्य की दिशा में कदम बढ़ा रहा है, लेकिन रोगियों तक की दवाओं की पहुंच न होना बड़ी बाधा है। 1992 में भारत में पहला राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था और इसी के तहत राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) की स्थापना की गई थी। इस कार्यक्रम के तहत एड्स के रोकथाम संबंधी विभिन्न उपायों एवं नीतियों का कार्यान्वयन किया जाता है। नाको निरंतर एचआईवी के प्रसार को रोकने में लगा हुआ है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए इसके द्वारा किए जा रहे प्रयास काफी सराहनीय हैं। यह सुखद संदेश है कि लोगों में जागरूकता और नाको के प्रयास से संक्रमित मामलों में कमी आ रही है, लेकिन आज भी भारत में यौन शिक्षा के अभाव से अधिकतर लोग एचआईवी के शिकार हैं। सरकार को अधिक से अधिक एड्स से जुड़ी हुई शिक्षा लोगों तक पहुंचानी चाहिए तभी एड्स से लड़ा जा सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम की शुरुआत की गई।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें लगता है कि एचआईवी पॉजिटिव व्यक्तिक को देखने से ही उन्हें संक्रमण हो जाएगा। इस डर को भगाने के लिए हमें इसके बारे में जागरूकता फैलानी होगी। पश्चिमी देशों में एचआईवी पीड़ितों के खिलाफ किसी के मन में कोई द्वेष नहीं होता, क्योंकि वहां के लोगों को इसके बारे में भरपूर जानकारी है। खैर, यह एक ऐसी बीमारी है जो संक्रमित व्यक्ति को आर्थिक, सामजिक और शारीरिक तीनों रूप से नुकसान पहुंचाती है। सबसे अधिक चिंता की बात है कि यह युवाओं को तेजी से अपनी चपेट में ले रहा है। विश्व एड्स दिवस को मनाते हुए 33वां साल शुरू हो रहा है। 2030 तक एड्स को समाप्त करने का लक्ष्य स्वास्थ्य संगठन ने निर्धारित कर रखा है, लेकिन करीब 11 लाख लोग प्रतिवर्ष एचआईवी से संक्रमित हो रहे हैं। आज तक एचआईवी संक्रमित सभी लोगों की पहचान नहीं हो पाई है। ऐसे में एड्स को समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित समय तक पूरा होना संदिग्ध ही लगता है, लेकिन जहां चाह होती है, वहीं राह होती है। मजबूत इरादों से बड़े से बड़ा लक्ष्य पूरा हो सकता है। अच्छी बात यह है कि आज एचआईवी संक्रमित 75 प्रतिशत लोगों का परीक्षण हो चुका है, जो कि 2005 में 10 प्रतिशत ही था। आज 60 प्रतिशत उपचार की सुविधा भी ले रहे हैं। भारत में भी एचआईवी टेस्ट और उपचार की सुविधाओं का फैलाव हो रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण यह है कि किसी कारण से एचआईवी से संक्रमित हो गए लोगों के प्रति भेदभाव को समाप्त करना। जागरूकता की कमी के कारण ही बहुत बड़ी आबादी को एचआईवी पॉजिटिव होने पर भी यह बात छुपानी पड़ती है। आज भी बहुत से लोगों को यह लगता है कि एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति को देखने से ही उन्हें संक्रमण हो जाएगा, तो यह अंधेरी सोच की इंतहा ही है, इसलिए एचआईवी एड्स ने एक सामाजिक संकट का रूप ले लिया है। दूसरी कोई बीमारी होने पर बीमार को इस तरह के संकट से दो-चार नहीं होना पड़ता, लेकिन एचआईवी-एड्स के मामले में लोगों सारी करुणा और दया की भावना धराशायी क्यों हो जाती है। साफ है कि भारत ने एड्स को काबू करने में भले काफी सफलता पाई है,परंतु अभी भी भारत उस सामाजिक स्टिग्मा से निकल नहीं पाया है जहां एचआईवी के मरीजों से सलूक अच्छा नहीं होता है। एक सर्वे के अनुसार अभी भी भारत में कई एड्स मरीजों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। एड्स से पीड़ित व्यक्ति को अछूत समझा जाता है और उन्हें सामाजिक भेदभाव का शिकार होना पड़ता है, इसलिए समाज को अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। अभी भी इससे जुड़े कई मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है, जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर और फंड को मजबूत और बढ़ाने की जरूरत है और तभी मुमकिन है की पूरे भारत से एचआईवी को जल्द से जल्द खत्म किया जा सके।

( ये लेखक के अपने विचार हैं। )

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