अरविंद जयतिलक का लेख : भारत से मैत्री की राह पर नेपाल

अरविंद जयतिलक
भारतीय नववर्ष और नवरात्र के पवित्र अवसर पर नेपाल के प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा की भारत यात्रा दोनों देशों के सदियों पुराने संबंधों को मिठास से भर देने वाला है। नेपाल के प्रधानमंत्री की यात्रा ऐसे समय में हुई है जब पड़ोसी देश श्रीलंका आपातकाल, हिंसक प्रदर्शन और आर्थिक संकट के चपेट में है। उसे आर्थिक मदद की दरकार है और भारत उसके साथ मजबूती से खड़ा है। भारत ने श्रीलंका की मदद कर रेखांकित कर दिया है कि पड़ोसियों से उसके रिश्ते गंगा और हिमालय की तरह अटूट हैं। इसे चीन और पाकिस्तान सरीखे षड्यंत्रकारी चटका नहीं सकते। चूंकि नेपाली प्रधानमंत्री देउबा पांचवी बार भारत आए हैं और वे भारत के स्वाभाविक मित्र भी हैं ऐसे में दोनों देशों के बीच आर्थिक-रणनीतिक समझौतों पर मुहर लगना लाजिमी है।
यह सुखद रहा कि दोनों प्रधानमंत्री ने हैदराबाद हाउस से हरी झंडी दिखाकर बिहार के जयनगर और नेपाल के कुर्था के बीच चलने वाली ट्रेेन को रवाना कर आठ साल से बंद रेल सेवा को पुनः पटरी पर दौड़ा दिया है। उल्लेखनीय है कि यह परिचालन 2014 से बंद था। दोनों देशों के प्रधानमंत्री ने बिजली ट्रांसमिशन लाइन का उद्घाटन और नेपाल में भारत के रुपे भुगतान कार्ड की शुरुआत कर एक नए अध्याय की नींव रखी है। इसके अलावा दोनों देशों के बीच चार अहम समझौते हुए हैं जिसके तहत अब नेपाल भारत की अगुवाई में बने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन में शामिल होगा। भारत नेपाल को रेलवे विकास में तकनीकी मदद के अलावा तेल निगम को सहयोग देगा। भारत नेपाल को पेट्रोलियम उत्पाद की आपूर्ति जारी रखेगा वहीं नेपाल अपनी अतिरिक्त बिजली भारत को मुहैया कराएगा। निःसंदेह इन समझौतों पर मुहर लगने से दोनों देश एक दूसरे के करीब आएंगे और गलतफहमियां दूर होंगी। वैसे भी भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कह चुके हैं कि रक्षा व सुरक्षा में भारत नेपाल के साथ है और उसे इत्मीनान हो जाना चाहिए कि नेपाल की शांति व सुरक्षा के लिए कोई भी खतरा भारतीय शांति व सुरक्षा के लिए खतरे जैसा है।
यह सच्चाई भी है कि हिमालय की उपत्यका में बसा नेपाल का भारत से ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंध है, लेकिन गौर करें तो विगत दशकों में दोनों देशों के बीच दूरियां बढ़ी जिसकी वजह से चीन को नेपाल के निकट जाने का मौका मिला। यहां ध्यान देना होगा कि चीन द्वारा तिब्बत को हस्तगत किए जाने के बाद से भारत-चीन संबंधों में नेपाल की सामरिक स्थिति का महत्व बढ़ा है। यही कारण है कि चीन भारत के खिलाफ नेपाल को अपने पाले में खड़ा करने की हरसंभव कोशिश करता है, लेकिन उसकी यह मंशा पूरी होने वाली नहीं है। उसका कारण यह है कि नेपाल को लेकर भारत की भूमिका सदैव बड़े भाई की रही है। आजादी के बाद से ही भारत ने नेपाल की कई परियोजनाओं में बढ़ चढ़कर सहयोग दिया है। इनमें देवी घाट, त्रिशुल करनाली और पंचेश्वर जल विद्युत परियोजनाएं अति महत्वपूर्ण हैं। भारत त्रिभुवन गणपथ, काठमांडु त्रिशुली मार्ग तथा त्रिभुवन हवाई अड्डा के निर्माण में भी सहयोग किया है। इसके अलावा भारत नेपाल के भू वैज्ञानिक अनुसंधान तथान खनिज खोजबीन के काम में भी मदद कर रहा है। भारत ने काठमांडू घाटी के एक उप नगर पाटन में एक औद्योगिक बस्ती की स्थापना कर रिश्ते को ऊर्जा से भर दिया है, लेकिन यह विडंबना है कि नेपाल के मन में कुछ आशंकाएं हैं। मसलन वह अब भी भारत के संदर्भ में जूनियर भागीदार के मनोविज्ञान से ग्रस्त है तथा दक्षिण के पड़ोसी के आधिपत्य की आशंका का भूत उसे सताता रहता है। नेपाल भारत और चीन के साथ समदूरी सिद्धांत के आधार पर संबंधों का निर्वहन करना चाहता है। देखें तो यह उसकी परंपरागत नीति भी है। 1769 में आधुनिक नेपाल की स्थापना के साथ ही उसके निर्माता पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की विदेश नीति निर्धारित कर दी थी। उन्होंने कहा था कि हमें चीनी सम्राट के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखने चाहिए तथा हमारे संबंध दक्षिणी सागरों के सम्राट से भी संबंध मधुर होना चाहिए। नेपाल आज भी उसी पुरानी नीति पर कायम है।
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी लगातार दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिश कर रहे हैं। याद होगा नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही नेपाल की यात्रा की और वहां के लोगों का दिल जीतने और उनके मन में भारत के प्रति आशंकाओं को दूर करने के लिए प्रयास किया। मोदी ने नेपाल की संसद को संबोधित करते हुए विश्वास दिलाया था कि वह भारत के सवा करोड़ लोगों की ओर से दोस्ती और सद्भावना का संदेश लेकर आए हैं। यहां ध्यान देना होगा कि भारत-नेपाल के बीच रिश्ते में खटास तब उत्पन हुआ जब 1987 में राजीव गांधी की सरकार ने नेपाल को अनाज, तेल और गैस की आपूर्ति बंद कर दी। सिर्फ इसलिए कि काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर में राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया गांधी को प्रवेश और पूजा-अर्चना की अनुमति नहीं मिली। भारत के प्रतिबंध के बाद नेपाल की जनता सड़क पर उतर आई और भारत विरोधी नारे लगाए। चीन इसका फायदा उठाने में सफल रहा। उसी समय से चीन नेपाल में अपनी भूमिका का विस्तार करने लगा। यह सच्चाई है कि नेपाली शासक और चीन के प्रबल पक्षधर राजा ज्ञानेंद्र को नेपाली जनता द्वारा खारिज किए जाने के बाद भी आज वहां चीन की पक्षधरता वाले लोगों की कमी नहीं है। बदलते परिदृश्य पर गौर करें तो नेपाल में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो अपने यहां चीन की दखलंदाजी को अनुचित नहीं मानता। चीन इस तथ्य से अवगत है और वह नेपाल के विकास के नाम पर अरबों लुटाने को तैयार है। अपने सामरिक हित के लिए वह नेपाल में रेलवे लाइन बिछाने से लेकर बेहतरीन सड़कों के निर्माण का कार्य कर रहा है। त्रासदी यह है कि नेपाल में चीन की बढ़ती दखलंदाजी को वहां के माओवादियों का खुला समर्थन हासिल है। यह भारत की संप्रभुता के लिए खतरनाक है। दूसरी ओर नेपाली माओवादी भी भारत-नेपाल रिश्ते में अवरुद्ध पैदा करना चाहते हैं। वे 1950 की भारत-नेपाल मैत्री संधि का शुरुआत से विरोध कर रहे हैं।
बता दें कि नेपाल के साथ 1950 में की गई यह संधि इस समय भारत-नेपाल संबंधों में असहमति का एकमात्र मुद्दा है। संधि के मुताबिक नेपाल यदि हथियारों का कोई आयात करेगा तो भारत को सूचित करेगा। यह प्रावधान इसलिए है कि नेपाल को हथियारों के आयात की आवश्यकताओं की भारत से ही पूर्ति की जा सके, लेकिन नेपाल द्वारा जिस तरह इस संधि को पारिभाषित किया जा रहा है उससे प्रतीत होता है कि वह इस संधि को अपनी संप्रभुता के खिलाफ मानता है। उचित होगा कि नेपाल भारत को लेकर किसी तरह का भ्रम न पाले। उसे विश्वास करना होगा कि भारत उसका सच्चा मित्र है और हर परिस्थिति में उसके साथ खड़ा रहा है। उम्मीद करें कि नेपाली प्रधानमंत्री की भारत यात्रा से दोनों देशों के रिश्ते पहले से भी अधिक प्रगाढ़ और ऊर्जा से लबरेज होंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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