निरंकार सिंह का लेख : दुनिया में बजा भारत का डंका

इसरो ने चांद के दक्षिणी ध्रुव के सबसे दुर्गम क्षेत्र में चंद्रयान-3 के विक्रम लैंडर को उतारकर नया इतिहास रच दिया है। अब भारत दुनिया का पहला देश बन गया है जिसने अपना अंतरिक्ष यान चांद की सतह के दक्षिणी ध्रुव के पास उतारा है। इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन ने चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग करवाई थी, लेकिन दक्षिणी ध्रुव पर नहीं। कुछ ही दिन पहले रूस ने लूना-25 को दक्षिणी ध्रुव पर उतरने की कोशिश की थी, लेकिन उसका अंतरिक्ष यान नष्ट हो गया। ऐसे में भारत की इस सफलता से दुनिया में उसका नाम और दबदबा दोनों बढ़े हैं। लैंडर विक्रम से निकला रोवर प्रज्ञान चांद की सतह की 14 दिन तक जांच-पड़ताल करेगा।
इसरो ने चांद के दक्षिणी ध्रुव के सबसे दुर्गम क्षेत्र में चंद्रयान-3 के विक्रम लैंडर को उतारकर नया इतिहास रच दिया है। अब भारत दुनिया का पहला देश बन गया है जिसने अपना अंतरिक्ष यान चांद की सतह के दक्षिणी ध्रुव के पास उतारा है। इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन ने चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग करवाई थी, लेकिन दक्षिणी ध्रुव पर नहीं। कुछ ही दिन पहले रूस ने लूना-25 को दक्षिणी ध्रुव पर उतरने की कोशिश की थी, लेकिन उसका अंतरिक्ष यान नष्ट हो गया। ऐसे में भारत की इस सफलता से दुनिया में उसका नाम और दबदबा दोनों बढ़े हैं। लैंडर विक्रम से निकला रोवर प्रज्ञान चांद की सतह की 14 दिन तक जांच-पड़ताल और प्रयोग करेगा। उसके आंकड़े ऑर्बिटल के माध्यम से इसरो को भेजेगा। चन्द्रयान-3 की सफलता तकनीकी क्षमता की दृष्टि से तो भारत की एक बड़ी सफलता है ही, लेकिन इसके और कई फायदे हैं। इसका रोवर प्रज्ञान चांद की चट्टानों को देखकर उनमें मैग्नीशियम, कैल्शियम और लोहे के अलावा कई दुर्लभ खनिजों को खोजने का प्रयास करेगा।
चांद की सतह पर पानी, नमी और मिट्टी की रासायनिक जांच भी करेगा। पानी की मौजूदगी चांद पर इंसान को बसाने का द्वार भी खोलेगी। चांद पर हीलियम गैस की संभावनाएं भी तलाशी जाएंगी। इससे ऐसे बड़े खजाने की खोज हो सकती हैं, जिससे अगले 500 सालों तक ऊर्जा की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है, बल्कि खरबों डाॅलर की कमाई भी हो सकती है। इसके एक टन की कीमत 5 अरब डालर बताई जाती है। चन्द्रमा पर द्रव रूप में हीलियम के विशाल भंडार होने की संभावना है। चन्द्रमा से हीलियम धरती पर लाई जा सकती है। 14 जुलाई 2023 को श्रीहरिकोटा से रवाना होने के बाद चंद्रयान-3 ने तीन हफ्तों में कई चरणों को पार किया। पांच अगस्त को पहली बार चांद की कक्षा में दाखिल हुआ था। भारत के चंद्रयान-3 मिशन के लिए पिछलेे दिनों एक बड़ी खुशखबरी आई। चंद्रयान-3 के लैंडर और प्रॉपल्शन मॉड्यूल योजना के मुताबिक, दो टुकड़ों में टूटकर अलग-अलग चांद की यात्रा कर रहे हैं। इसी के साथ चंद्रयान-3 का लैंडर अब चांद के और करीब पहुंच गया है।
इसरो ने चंद्रयान-3 मिशन के बारे ट्वीट कर बताया कि इस बीच, प्रॉपल्शन मॉड्यूल वर्तमान कक्षा में महीनों या वर्षों तक अपनी यात्रा जारी रख सकता है। प्रॉपल्शन मॉड्यूल में पृथ्वी के वायुमंडल का स्पेक्ट्रोस्कोपिक अध्ययन करने और पृथ्वी पर बादलों से ध्रुवीकरण में भिन्नता को मापने के लिए स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री ऑफ हेबिटेवल प्लानेट अर्थ पेलोड लगा हुआ है। यह हमें इस बारे में जानकारी देगा कि चंद्रमा पर रहने योग्य क्षमता है या नहीं। इस पेलोड को यूआर राव सैटेलाइट सेंटर और इसरो, बेंगलुरु द्वारा आकार दिया गया है। मिशन के अगले पड़ाव में लैंडर मॉड्यूल को चांद की निचली कक्षा में पहुंचाया गया। इसरो ने लैंडर मॉड्यूल की तरफ से एक्स पर एक पोस्ट में चंद्रयान-3 की यात्रा को लेकर ट्वीट भी किया। इसमें लैंडर की तरफ से प्रॉपल्शन के लिए कहा गया- साथ में यात्रा के लिए शुक्रिया मित्र। इसरो ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर चंद्रयान-3 के सफर को लेकर यह जानकारी दी। इसरो ने बताया कि चंद्रयान-3 के चंद्रमा तक पहुंचने की सभी प्रक्रिया पूरी कर ली गई हैं। हमारी आशा के मुताबिक चंद्रमा की 153 किलोमीटर गुणा 163 किलोमीटर की कक्षा में चंद्रयान-3 स्थापित हो गया। चंद्रमा की सीमा में प्रवेश की प्रक्रिया पूरी होगई। 17 अगस्त को प्रोपल्शन मॉड्यूल और लैंडर अलग हो गए हैं।
मालूम हो, इसरो ने 14 जुलाई को प्रक्षेपण के बाद से तीन सप्ताह में चंद्रयान-3 को चंद्रमा की पांच से अधिक कक्षाओं में चरणबद्ध तरीके से स्थापित करने में सफलता हासिल की। एक अगस्त को यान को पृथ्वी की कक्षा से चंद्रमा की ओर सफलतापूर्वक भेजा गया था। उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-3 तीन लाख किलोमीटर से ज्यादा की दूरी तय करते हुए चांद के करीब पहुंचा है और 23 अगस्त को उसका लैंडर विक्रम रोवर प्रज्ञान सहित चांद पर उतर गया। इस तरह से इसरो ने अंतरिक्ष में एक और इतिहास रचकर दुनिया में भारत का नाम रोशन किया। भारत के इस महत्वाकांक्षी मिशन में केवल 615 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं, जो देश के अंदर एक छोटा सा फ्लाईओवर निर्माण के खर्च के बराबर है। इतनी कम राशि में हमारा मिशन चांद के उस हिस्से पर पहुंचा, जहां दुनिया का कोई देश आज तक नहीं पहुंचा है। वैज्ञानिकों का दावा है कि वहां बर्फ जमी है और चंद्रयान-3 का मकसद वहां ऑक्सीजन और पानी की खोज है। यही मकसद रूस के लूना-25 का भी था, लेकिन वह चांद पर साफ्ट लैंडिग नहीं कर सका। 21 नवम्बर 1963 को केरल में तिरुअनंतपुरम के करीब थुंबा से पहले राॅकेट के लाॅन्च के साथ भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू हुआ।
यह रोचक बात है कि उस राॅकेट को लान्च पैड तक एक साइकिल से ले जाया गया था और उसे एक चर्च से लाॅन्च किया गया। पूरी कहानी कुछ इस तरह है। नारियल के पेड़ों के बीच स्टेशन का पहला लाॅन्च पैड था। एक स्थानीय कैथोलिक चर्च को वैज्ञानिकों के लिए मुख्य दफ्तर में बदला गया। बिशप हाउस को वर्कशाॅप बना दिया गया। मवेशियों के रहने की जगह को प्रयोगशाला बनाया गया जहां अब्दुल कलाम आजाद जैसे युवा वैज्ञानिकों ने काम किया। इसके बाद राॅकेट को लाॅन्च पैड तक साइकिल पर ले जाया गया। थोड़े समय बाद दूसरा राॅकेट लाॅन्च किया गया। वह पहले वाले से थोड़ा भारी था। उसे बैलगाड़ी पर ले जाया गया था। 15 अगस्त 1969 को डाॅ. विक्रम साराभाई ने इसरो की स्थापना की थी। इसका मकसद अंतरिक्ष शोध के क्षेत्र में काम करना था। एसएलवी-3 भारत का पहला स्वदेशी सैटेलाइट लाॅन्च व्हीकल था। डाॅ. अब्दुल कलाम इस परियोजना के निदेशक थे। 40 सालों में इसरो का खर्च नासा के एक साल के बजट के आधे से भी कम रहा। चन्द्रमा पर इसरो के पहले मिशन चन्द्रयान-प्रथम पर करीब 390 करोड़ रुपये खर्च हुए जो नासा द्वारा इसी तरह के मिशन पर होने वाले खर्च के मुकाबले 8-9 गुना कम है।
अंतरिक्ष अनुसंधान तथा उपग्रह तकनीक के क्षेत्र में भारत का प्रवेश 19 अप्रैल 1975 को आर्यभट्ट नामक उपग्रह के सफल प्रक्षेपण के साथ हुआ। यद्यपि इस दिशा में पहला कदम 1962 में ही उठाया गया था और अब भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग में ‘भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति’ बनाई गई। 1963 में त्रिवेन्द्रम (केरल) के निकट थुम्बा में ‘साउंडिंग’ राकेट प्रेक्षण सुविधा केन्द्र की स्थापना की गई। सन 1969 में बंगलौर में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के गठन के बाद इस दिशा में क्रान्ति आ गई। हमारा सफर आर्यभट्ट से प्रारंभ हुआ था और चन्द्रयान-3 तक पहुंच गए हैं। भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक डा. विक्रम साराभाई ने एक ऐसी टीम तैयार की कि एक के बाद एक अनेक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक भारतीय इसरो को दूरदर्शी नेतृत्व प्रदान करते आ रहे हैं। प्रो. सतीश धवन, प्रो. यूआर राव, प्रो. कस्तूरीरंगन और श्रीजी. माधवन नैयर से लेकर एस सोमनाथ तक इसरो का लम्बा इतिहास है।
निरंकार सिंह (लेखक हिन्दी विश्वकोश के पूर्व सहायक संपादक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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