अवधेश कुमार का लेख : चुनाव आयोग के फैसले में हैरत नहीं

चुनाव आयोग द्वारा एकनाथ शिंदे समूह को असली शिवसेना घोषित कर चुनाव चिह्न तीर धनुष प्रदान करना निस्संदेह उद्धव ठाकरे और उनके समर्थकों के लिए असाधारण आघात है। जिस तरह मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें इसकी कल्पना तक नहीं थी कि पार्टी का बहुमत उनसे विद्रोह कर अलग हो सकता है उसी तरह चुनाव चिह्न एवं पार्टी का नाम तक छिन जाने की आशंका भी नहीं थी। उन्होंने पार्टी में विद्रोह को विश्वासघात कहकर स्वाभाविक नहीं माना। ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया उनकी चुनाव आयोग के फैसले पर भी है। इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय जाने की घोषणा में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है, किंतु लोकतंत्र खत्म हो गया और शिवसेना को चुरा लिया गया। ऐसे अतिवादी वक्तव्य का अर्थ यही है कि वह सच्चाई स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी घोषित कर दें कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो चुका है।
मामला उच्चतम न्यायालय में जाने दीजिए। देखते हैं न्यायालय क्या फैसला देता है। विचार करने वाली बात यह है कि आखिर चुनाव आयोग बिना आधार के तो ऐसा फैसला नहीं कर सकता। उद्धव ठाकरे और उनके सलाहकारों को लगता है कि आयोग ने जानबूझकर जल्दबाजी में फैसला किया तो इसमें समय कितना लगाना चाहिए? सच यह है कि चुनाव आयोग ने फैसले पर पहुंचने तक पर्याप्त समय लिया है। जून में एकनाथ शिंदे ठाकरे से अलग हुए और 30 जून को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। आयोग ने 78 पृष्ठों के आदेश में इसका आधार भी स्पष्ट किया है। ऐसे मामलों में पहला आधार यही होता है कि विधानसभा और लोकसभा के अंदर पार्टी के कितने विधायक और सांसद किस गुट में हैं। आयोग ने भी कहा है कि विधानसभा व लोकसभा के साथ ही संगठन में बहुमत के आधार पर पार्टी पर अधिकार का फैसला होता है। चुनाव आयोग पार्टी पदाधिकारियों के आधार पर फैसला नहीं करती क्योंकि इनका चयन होता है, ये चुनाव के जरिए नहीं निुर्वाचित होते। अध्यक्ष पार्टी पदाधिकारियों की घोषणा करते हैं, इसलिए इसके आधार पर यह निर्णय नहीं हो सकता कि पार्टी पदाधिकारी कितने शिंदे के और कितने उद्धव के साथ रहे। सभी पार्टी पदाधिकारियों की नियुक्ति उद्धव ठाकरे के द्वारा की गई । ऐसे में फैसला विधायकों और सांसदों की संख्या के आधार पर किया गया।
शिवसेना के कुल 55 विधायकों में से 40 विधायक और 19 सांसदों में से करीब 13 सांसद शिंदे के साथ हैं। उद्धव के साथ केवल 15 विधायक और 3 सांसद ही बचे हैं। आयोग ने दोनों पक्षों के विधायकों और सांसदों को मिले मत की भी गणना की है। कहा है कि वर्ष 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना के 55 विजयी उम्मीदवारों में से एकनाथ शिंदे का समर्थन करने वाले विधायकों के पक्ष में लगभग 76 प्रतिशत मत पड़े थे जबकि 23.5 प्रतिशत मत उद्धव ठाकरे धड़े के विधायकों को मिले थे। इस अंकगणित के रहते चुनाव आयोग इसके विपरीत फैसला किस आधार पर दे सकता था? आयोग ने इन सबसे परे एक ऐसी बात कही है जो राजनीति की दृष्टि से सर्वाधिक महत्व की है। आयोग ने कहा है कि बहुमत के अलावा फैसले में पार्टी के राजनीतिक संगठन की संरचना पर भी विचार किया जाता है। इसके अनुसार विचारधारा से परे जाकर एक गुट ने गठबंधन किया और यही पार्टी में मतभेद और टूट का आधार बना। इस पर बहस हो सकती है कि चुनाव आयोग विचारधारा पर फैसला कर सकता है या नहीं, किंतु यह सच्चाई है। शिवसेना ने 2019 का विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ा और दोनों को मिलाकर जनता ने बहुमत भी प्रदान किया। स्वाभाविक स्थिति यही होती कि भाजपा शिवसेना की सरकार बनती। उद्धव ने भाजपा का साथ छोड़कर राकांपा और कांग्रेस के साथ महाविकास आघाड़ी की सरकार बनाई, जिसका नेतृत्व उन्होंने खुद किया। विचारधारा के स्तर पर शिवसेना की किसी के साथ स्वाभाविक दोस्ती हो सकती है तो वह भाजपा है।
बालासाहेब ठाकरे ने पहले 1984 में भाजपा के साथ गठबंधन किया। हालांकि उसका लाभ नहीं मिला, किंतु 1989 के समय से जो गठबंधन आरंभ हुआ वह 2014 के लोकसभा चुनाव तक कायम रहा। बाला साहब ठाकरे के जीवित रहते 2012 तक दोनों के गठबंधन में ऐसा कोई विवाद नहीं रहा, जिससे संदेह पैदा हो सकता है। कौन पार्टी किसके साथ रहे किसके साथ जाए यह चुनाव आयोग का विषय भले नहीं हो, किंतु जब दो गुटों के बीच लड़ाई हो तो देखना पड़ता है कि कौन विचारधारा के साथ है और कौन अलग। कांग्रेस और भाजपा के साथ उद्धव ठाकरे का गठबंधन केवल सत्ता के लिए था। भाजपा के साथ कोई वैचारिक मतभेद उनका नहीं हुआ था। भाजपा उद्धव को मुख्यमंत्री बना देती वह गठबंधन नहीं तोड़ते। क्या कोई इस सच्चाई से इंकार कर सकता है? इस दृष्टि से विचार करें तो निष्कर्ष यह आएगा कि उद्धव विचारधारा को तिलांजलि देकर सत्ता के लिए स्वाभाविक गठजोड़ से अलग होकर विरोधी विचारधारा के साथ अस्वाभाविक गठजोड़ की ओर पार्टी को ले गए जिसे शिंदे ने स्वाभाविक गठजोड़ की स्थिति में ला दिया। देश में न लोकतंत्र खत्म हुआ है न होगा। किसी ने उनकी पार्टी भी चुराई नहीं है। न भाजपा से अलग होने और न राकांपा कांग्रेस के साथ जाने का फैसला उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से लिया। इतना बड़ा फैसला पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत किया जाना चाहिए था। फैसला उनका था। इस तरह लोकतंत्र को अगर धत्ता बताया तो उद्धव ठाकरे ने। आज अगर उनके हाथ से पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न निकला तो इसके लिए वह स्वयं दोषी हैं। आप केवल बाला साहब ठाकरे के पुत्र हैं इस नाते मूल शिवसेना और उसके चुनाव चिह्न पर आपका अधिकार नहीं हो सकता। इस तरह चुनाव आयोग के फैसले के परे भी नैतिक तौर पर मूल शिवसेना और चुनाव चिह्न पर उद्धव का दावा स्वीकार नहीं हो सकता। ठाकरे के लिए दूसरा झटका उच्चतम न्यायालय की ओर से भी आया है।
अरुणाचल प्रदेश के नबम रेबिया मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार के लिए सात सदस्यीय पीठ को भेजने से इंकार कर दिया। उद्धव गुट की ओर से पेश वकीलों ने नबम रेबिया मामले को बड़ी पीठ को भेजने की मांग की थी। 2016 में अरुणाचल प्रदेश के नबम रेबिया मामले में फैसला सुनाते हुए 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा था कि विधानसभा स्पीकर सदन में अपने विरुद्ध रिमूवल का पूर्व नोटिस लंबित रहते हुए विधायकों की अयोग्यता की याचिका पर फैसला नहीं कर सकता। यह फैसला एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना के लिए सुरक्षा कवच की तरह आया है। उद्धव समूह ने शिंदे के साथ गए विधायकों को अयोग्य ठहराने की मांग की थी। अभी भी समय है उद्धव और उनके सलाहकार यथार्थ को समझें। शरद पवार का सुझाव सर्वथा उचित है कि इसे भूलकर नए सिरे से पार्टी की पुनर्रचना करते हुए आगे बढ़े। अगर उन्हें लगता है कि शिवसेना उनकी है और उनके साथ होना चाहिए तो इसके लिए मेल मिलाप ही रास्ता हो सकता है जिसकी संभावना इस समय नहीं है।
(लेखक अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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