अवधेश कुमार का लेख : अब धरने की जिद खतरनाक

अवधेश कुमार
निस्संदेह, जिन्होंने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीनों कृषि कानूनों की वापसी तथा देश से क्षमा मांगने की घोषणा के बाद उम्मीद की होगी कि अब दिल्ली की सीमा से धरनाधारी वापस चले जाएंगे उन्हें गहरा आघात लगा है। कृषि कानून विरोधी आंदोलन और धरने पर गहराई से दृष्टि रखने वाले जानते थे कि यह कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना वाली कुटिल और घातक राजनीति है। प्रधानमंत्री राष्ट्र के संबोधन में कह रहे हैं कि संसद के अगले सत्र में विधेयक लाकर इसे वापस कर दिया जाएगा लेकिन इनको उन पर विश्वास नहीं है। क्या इस हरकत की कल्पना की जा सकती है कि प्रधानमंत्री वचन दे रहे हैं और ये कह रहे हैं कि जब तक संसद से वापस नहीं होगा धरना खत्म नहीं करेंगे। संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक के बाद तथा उसके पहले धरने के नेताओं एवं परिस्थितियों के कारण आंदोलन के प्रकट चेहरे बनाए जा चुके राकेश टिकैत के वक्तव्यों पर ध्यान दें तो साफ दिख जाएगा कि ये किसी न किसी बहाने डटे रहने की रणनीति बना चुके हैं। संसद से कानूनों की वापसी हो, किसानों से मुकदमे वापस हों,एमएसपी गारंटी कानून बने और उसके लिए किसानों के साथ बातचीत आरंभ हो यानी जब तक बातचीत होती रहेगी धरना जारी रहेगा। ये पूर्व घोषित कार्यक्रम भी जारी रखेंगे। महापंचायत के बाद 26 नवंबर को धरना के एक साल पर जगह -जगह ट्रैक्टर व बैलगाड़ी परेड, प्रदर्शन और संसद सत्र की शुरुआत पर 29 नवंबर को संसद कूच। एक नेता बयान दे रहे हैं कि जितने किसानों की जान गई सबको शहीद का दर्जा मिले ,मुआवजा मिले तथा पीएम, मंत्री,भाजपा एवं प्रवक्ता सब माफी मांगें।
कृषि और किसानों की समस्याओं का निदान, उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार आदि से बिल्कुल जरूरी है किसानों को उपज का लाभकारी मूल्य मिले तथा खेती की लागत कम होना भी आवश्यक है। व्यवहारिक बात यही है कि कृषि हो या उद्योग या सेवा क्षेत्र, केवल सरकार से स्थिति में अनुकूल बदलाव संभव नहीं। यह मांग लंबे समय से थी कि उद्योगों की तरह कृषि क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र को निवेश करने का कानूनी एवं ढांचागत आधार दिया जाए। उसके अनुसार ये कानून लाए गए थे। यह इन्हें मंजूर नहीं। आंदोलन के संदर्भ में सरकार को भी समस्या समझ नहीं आई। इसका देशव्यापी व्यापक असर नहीं। सारी कोशिशों के बाद भी पंजाब, पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ जिले, उत्तराखंड के तराई तथा हरियाणा के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इसका असर ही नहीं। लंबे समय से धरने के तंबुओं में लोगों की कमी साफ थी। एक निहायत ही जनविहीन और निष्प्रभावी आंदोलन या धरना सरकार के गले की हड्डी बन गई तो इसमें उसकी सोच और रणनीति का ही दोष है। कृषि क्षेत्र में सुधार का साहस कोई सरकार नहीं दिखा सकी थी। इस कदम के बाद सरकारें आवश्यक नीतिगत और ढांचागत बदलाव के लिए के लिए आगे नहीं आएंगी, जिनकी वाकई कृषि को आवश्यकता है। इन धरनाधारियों की नजर में उनकी विजय है तो मुबारक हो। इसकी पूरी खुफिया रिपोर्ट थी कि आंदोलन को थोड़ा बलपूर्वक भी हटा दिया गया तो इसका कोई व्यापक जन विरोध नहीं होगा, हां, विशेष एजेंडे से पीछे खड़े समूह हर तरह की खुराक आंदोलन को दे रहे हैं और अपने एजेंडे के तहत हिंसा, अशांति जरूर पैदा करने की कोशिश करेंगे।
इन धरनों के पीछे की ताकतों का लक्ष्य नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार, भाजपा और संघ को हरसंभव क्षति पहुंचाना है। इनसे नफरत रखने वाले हर तरह के विरोधी तत्व किसान हितैषी बनकर वैचारिक, रणनीतिक, आर्थिक एवं अन्य संसाधन प्रदान करते हुए धरने को लंबे काल तक बनाए रखने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री भले देश से क्षमा मांग लें कि वह किसानों के इस छोटे समूह को कृषि कानूनों के बारे में समझा नहीं सके, इनको इस भावना से लेना-देना नहीं। आश्चर्य की बात है कि केंद्र सरकार के साथ पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि राज्यों के पास भी इसमें शामिल तत्वों तथा इनके माध्यम से उपद्रवकारी समूहों की सक्रियता की सूचनाएं हैं। जिस तरह नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरोध के नाम पर शाहीन बाग का धरना मोदी सरकार, संघ, भाजपा और उनके समर्थकों के सभी विरोधियों का केंद्र बन गया था ठीक वही इसमें भी हुआ है।
कृषि कानूनों के विरोध में ही धरना होता तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के साथ ही खत्म हो जाता। इस आंदोलन के पीछे की अनैतिक सोच और दुरभिसंधियों को देखने के बाद साफ था कि एक मांग मानी जाएगी तो आगे मांगों की फेहरिस्तें आएंगी। जिनको जानता नहीं था वो अगर भले ही एजेंडाधारियों के बीच हीरो बने हैं, तो वे क्यों आंदोलन समाप्त करेंगे? राकेश टिकैत और उनके भाई नरेश टिकैत अपने पिता स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के कार्यकाल में उनके उत्तराधिकारी नहीं बन पाए और इन के हस्तक्षेप के कारण भारतीय किसान यूनियन टूटता चला गया। महेंद्र सिंह टिकैत अपने जीवन के अंतिम दशक में लोकप्रियता खो चुके थे और उनके पुराने साथी लगभग छोड़ चुके थे। लंबे समय तक ये अपने संगठन को ताकत नहीं दे सके तथा चुनाव में इनकी जमानत जब्त हो गई। इस समय पूरा देश और भारत में रुचि रखने वाला विश्व समुदाय इनको जानने लगा है, सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स देश और दुनिया में हैं और उसको हैंडल करने वाले उनके पास उपलब्ध हैं। ऐसी हैसियत का कोई परित्याग करेगा? आश्चर्य की बात है कि विपक्षी दल मोदी सरकार और भाजपा के विरुद्ध होने के कारण ऐसे आंदोलन को समर्थन ही नहीं, और ताकत उपलब्ध करा रहे हैं। यह राजनीति खतरनाक है, शेर की सवारी है। स्थाई रूप से आप सवार रह नहीं सकते और उतरेंगे तो शेर आपको खा जाएगा। ऐसी राजनीति किसी के हित में नहीं। किसी को लगता है कि उसकी पार्टी को इसका राजनीतिक लाभ चुनाव में मिल जाएगा तो अभी भी जनता की नब्ज पर उनका हाथ नहीं है। आगामी विधानसभा चुनाव के जो भी परिणाम आएंगे कृषि कानून विरोधी आंदोलन का उससे कोई संबंध नहीं होगा।
प्रधानमंत्री की घोषणा तथा अपील के बाद धरने खत्म होने चाहिए। यह जिद सभी के लिए घातक है। धरने में शामिल और समर्थन करने वाले कई समूह और व्यक्ति इसे खत्म करना चाहते हैं। लेकिन कुटिल रणनीति वाले ऐसी स्थितियां पैदा कर रहे हैं ताकि वो इसका साहस नहीं कर सके। उनके अंदर यह भय होगा कि अगर हमने अपना हाथ खींचा तो अकेले या कमजोर पड़ जाएंगे। इसके पहले जिन संगठनों ने आंदोलन से अपने को अलग किया वो वाकई इस समय कमजोर हैं। सरकार या कृषि कानून के समर्थकों ने व्यवहारिक और धरातल स्तर पर उनकी किसी प्रकार की सहायता या मदद नहीं की है। यह सरकार, भाजपा व कृषि कानूनों के सभी राजनीतिक - गैर राजनीतिक समर्थकों का दायित्व था कि इन आंदोलनकारियों के विरुद्ध वे भी सड़कों पर उतरते तथा जिन्होंने अपने को आंदोलन से अलग किया उनको सम्मान देते। इससे विशेष एजेंडे वाले का पक्ष कमजोर होता। अब इनका हौसला बढ़ गया है। अब सरकार एवं पूरे देश को तय करना है कि इस तरह की जिद करने वाले अनैतिक और कुटिल सोच तथा उनके चेहरा बने लोगों के साथ किस तरह पेश आया जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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