माथुर जी.... जंग के लिए हौसला ही नहीं, 'बोनस' का हथियार भी चाहिए

प्रधान संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी
बिल्ली के कदमों की आहट सुन कबूतर का आंख मींच यह यकीन करना कि खतरा टल जाएगा, कभी बुद्धिमता का लक्षण नहीं माना गया। राष्ट्रीय स्वयं संघ के खांटी प्रचारक और भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज राजनेता ओम माथुर को कबूतर की तरह तो हरगिज नहीं माना जा सकता लेकिन बतौर राज्य प्रभारी छत्तीसगढ़ में पदार्पण के साथ उनके द्वारा दिए गए बयान 'मैं छत्तीसगढ़ को कोई चुनौती नहीं मानता' को इस उदाहरण से ही समझा जा सकता है।
यह बात ठीक है कि ओम माथुर के साथ उनकी सहजता, सजगता, सक्रियता और सफलता का लंबा इतिहास है। राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष से लेकर गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बतौर प्रभारी पार्टी को ऐतिहासिक सफलता दिलाने की उपलब्धि भी उनके नाम के साथ दर्ज है, लिहाजा उनके कथन या दावे को हल्के में लेने की भूल हरगिज नहीं की जा सकती। लेकिन, छत्तीसगढ़ के साथ भी तो गत चार साल का सियासी इतिहास है।
वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में 'अबकी बार-पैंसठ पार' जैसे स्वप्निल और जोशीले नारे के साथ मैदान में उतरी भारतीय जनता पार्टी पंद्रह साल सत्ता में रहने के बाद जनता के द्वारा महज पंद्रह सीटों पर समेट दी गई थी। इस हार के बाद अपवाद स्वरूप लोकसभा चुनाव में जीत के बाद में भाजपा की पराजय का न थमने वाला सिलसिला ही चला आ रहा है। दंतेवाड़ा, चित्रकोट, मरवाही और खैरागढ़ विधानसभा उपचुनाव समेत तमाम नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने जीत के और भाजपा ने हार के प्रतिमान ही तो गढ़े हैं। इसके बाद भी भाजपा के नए प्रभारी छत्तीसगढ़ को कोई चुनौती मानने से इनकार करते हुए अपनी पार्टी के परमानेंट अर्थात स्थाई रूप से सत्ता में आने का दावा कर रहे हैंं। आखिर किस आधार पर?
अगर ओम माथुर ने यह तेवर प्रदेश में तथाकथित तौर पर मनोबल खो चुके भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं के आत्मविश्वास को बढ़ाने की गरज से दिया है तो उन्हें यह जानने की सख्त जरूरत है कि सूखते पेड़ को बचाने की गरज से पानी पत्तों और टहनियों में नहीं जड़ों में दिए जाने की आवश्यकता होती है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस पार्टी की सरकार से दो-दो हाथ करने के लिए भाजपा कार्यकर्ताओं को महज हौंसला नहीं हथियार चाहिए। चार साल पहले हुए चुनाव में किसानों की कर्ज माफी और ढाई हजार रुपए प्रति क्विंटल की दर पर धान खरीदी के वायदे ने चौथी बार लगातार सत्ता में आने का सपना देख रही भाजपा को चारों खाने चित्त कर दिया था। भाजपा का प्रदेश नेतृत्व आज तक इन मुद्दों की काट के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर टकटकी लगाकर देख ही रहा है। दिक्कत यह है कि उसे राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से हमेशा इस सवाल के उत्तर की जगह उपदेश ही दिए जाते रहे हैं। मेरा बूथ-सबसे मजबूत जैसे नारे अब उमंग पैदा नहीं करते, इस सत्य को स्वीकार करने से भाजपाई दिग्गजों को गुरेज है।
ओम माथुर जो भी मानें लेकिन हकीकत यह है कि पूरे देश में अगर कांग्रेस की ओर से सबसे बड़ी चुनौती अगर कहीं है तो वह छत्तीसगढ़ राज्य ही है। राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर भूपेश बघेल ने अपने राजनैतिक चातुर्य से बीते चार सालों उन्हीं मुद्दों को अपने हथियार के तौर पर थाम लिया है जो भाजपा को धारदार बना सकते थे। भाजपा का 'हिंदुत्व एजेंडा' छत्तीसगढ़ में कोई कमाल कर पाने में इसलिए बहुत उम्मीद नहीं जगा पाता क्योंकि रामवन गमन पथ से लेकर कृष्ण कुंज के हर नगर में निर्माण का ऐलान उसे निस्तेज कर देता है। 'राष्ट्रीयता' के मुकाबले में उनका 'क्षेत्रीयता' का मुद्दा भी बखूबी टिका हुआ है, इस सत्य से उनके विरोधी भी इंकार नहीं कर सकते। इसके बाद धान खरीदी में बोनस का मसला तो सिरदर्द बना ही हुआ है।
चुनावी रणनीति के तहत बुनियादी बात यह ध्यान में रखने की है कि प्रत्याशी दो हफ्ते के तूफानी प्रचार के बाद भी भरोसा मतदान से दो दिन पहले बांटे जाने वाले पायल, बिछिया, साड़ी, लिफाफे और चपटी 'बोतल' के लिए सफल वितरण पर ही करता है। ऐसे में धान विक्रय के लिए प्रदेश के पंजीकृत बीस लाख परिवार जब तक इस आशंका के साथ हैं कि भाजपा का आना उन्हें आर्थिक रूप से नुकसान करा देगा, तब तक सत्ता में वापसी का रास्ता बनना कैसे संभव होगा?
भाजपा ने बीते चार साल में किया क्या है? सिवाय अपने स्थापित नेताओं को उनकी हैसियत दिखाने के। पंद्रह साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे डा. रमन सिंह आखिरकार मुख्यमंत्री पद के संबंध में मैं दावेदार नहीं कहने की स्थिति में आ ही गए। चिंतन शिविर के नाम पर हुए आयोजनों में प्रेमप्रकाश पांडे, अमर अग्रवाल, गौरीशंकर अग्रवाल समेत तमाम दिग्गजों को ना बुलाकर उनकी साख की ही चिता जला दी गई। पार्टी के खिलाफ चल रही आंधी में भी अपनी सीट जीतने में कामयाब रहे बृजमोहन अग्रवाल, धरमलाल कौशिक, अजय चंद्राकर जैसे दिग्गजों को उनकी वर्तमान हालत ने इतना हतोत्साहित कर दिया है कि उन्होंने स्वयं को आईने में देखना ही बंद कर दिया है। पवन साय जैसे शालीन संगठक भी मूलभूत प्रश्न का उत्तर देने में अपने आप को असहाय ही महसूस किए हैं। पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व आज भी यह स्वीकारने को शायद तैयार नहीं है कि वर्ष 2018 की करारी पराजय के मूल में उसका धान के बोनस को लेकर अपनाया गया रवैया ही बुनियादी कारण था। आपने केंद्र में सत्ता में आने के बाद जब प्रदेश की रमन सरकार को तीन सौ रुपए के बोनस के लिए तरसा दिया तब विपक्षी कांग्रेसियों ने तकरीबन सात सौ रुपए प्रति क्विंटल के बोनस का सपना जनता को दिखा दिया।
सत्य यही है कि वह सपना साकार भी हो गया। लिहाजा देश के स्तर पर भले ही नरेंद्र मोदी कितने ही जरूरी क्यों न हों पर प्रदेश के स्तर पर तो जनता को धान पे बोनस जरूरी लगता है।तो माथुर साहब, छत्तीसगढ़ को आप भले ही चुनौती ना मानें लेकिन राष्ट्रीय नेतृत्व को बोनस के लिए मनाना आपके लिए चुनौती जरूर है।
(हरिभूमि में आज प्रकाशित त्वरित टिप्पणी)
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