सुशील राजेश का लेख : संसद ठप की विपक्ष नीति ठीक नहीं

सुशील राजेश का लेख : संसद ठप की विपक्ष नीति ठीक नहीं
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संसद का यह सत्र 18 बैठकों का है, जिसमें दो दिन खराब हो चुके हैं। सरकार को 32 बिल पारित कराने हैं, जिनमें 14 नये बिल भी हैं। इतने अंतराल में इतना विधायी कार्य कैसे होगा? देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने टिप्पणी की थी कि विधायिका की गुणवत्ता भी कम होती जा रही है। जस्टिस रमना का यह भी कहना था कि राजनीति में विरोधी पक्ष को ‘दुश्मन’ नहीं समझना चाहिए। विपक्ष का अपना स्थान है, जो सिकुड़ता जा रहा है। अक्सर प्रधान न्यायाधीश ऐसी टिप्पणियां नहीं करते, लिहाजा जस्टिस रमना के बयान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि अब कार्यवाही लगातार बाधित होती रही, तो सरकार को ध्वनिमत से बिल पारित कराने पड़ेंगे। लोकसभा में तो एकतरफा बहुमत है, लेकिन राज्यसभा में भी भाजपा-एनडीए के पक्ष में सामान्य बहुमत है। बिल पहले की सरकारों में भी ध्वनिमत से पारित होते रहे हैं। यदि विपक्ष इस पर भी आपत्ति करता है, तो उसे अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए

सुशील राजेश

संसद के मानसून सत्र की शुरुआत दोनों सदनों में कार्यवाही के स्थगन से हुई। विपक्ष के हंगामे ने लोकसभा, राज्यसभा की कार्यवाही को बाधित किया। उस पर कांग्रेस के मीडिया प्रमुख जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने संसद की कार्यवाही स्थगित की। क्या यह भी कोई संसदीय बड़प्पन है? क्या संसद सत्र का मकसद यही रह गया है? विपक्ष के मंसूबे साफ़ दिखाई दे रहे हैं कि माॅनसून सत्र की नियति भी पूर्ववर्ती सत्रों जैसी होगी। संचार घोटाले से लेकर 2-जी, कोयला घोटाले, पनडुब्बी घोटाले तक और मौजूदा दौर में संसद के भीतर हंगामे, नारेबाजी, बैनरबाजी, मेजों पर चढ़कर नृत्य करना, नियमों की पुस्तिका फाड़ने और अध्यक्ष के आसन तक आकर हुड़दंग मचाते सांसदों के अलग-अलग तेवरों का साक्ष्य हैं। क्या विपक्ष की भूमिका का सारांश यही रह गया है?

संसद हमारे लोकतंत्र और गणतंत्र का सबसे पवित्र और महान मंदिर है। उसकी अपनी गरिमा बरकरार रहनी चाहिए। यदि उसे ही किसी 'मंडी' या 'अखाड़े' का रूप दे दिया जाएगा, तो क्या वाकई गणतंत्र और संविधान प्रासंगिक रह सकेंगे? क्या विरोध की अभिव्यक्ति यही शेष रह गई है कि सदन की कार्यवाही बाधित की जाए और अंततः स्थगित करनी पड़े। संसद चलाने की सरकार और विपक्ष दोनों की समान होती है। गौरतलब यह है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर करीब 2.6 लाख रुपए खर्च होते हैं । एक घंटे की कार्यवाही पर करीब 1.5 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। यदि पूरे दिन, यानी औसतन 6 घंटे, की कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ जाती है, तो देश के करदाताओं का 9 करोड़ रुपये से अधिक बर्बाद हो जाता है। पिछले माॅनसून सत्र के दौरान करीब 216 करोड़ रुपये स्वाहा करने पड़े थे। यह कोई छोटी राशि नहीं है। इसकी बुनियादी जवाबदेही किसकी है? सिर्फ सरकार पर दायित्वों के दाग़ छाप देना उचित नहीं है। हमारी लोकतांत्रिक और संसदीय व्यवस्था में सत्ता के साथ विपक्ष को भी रखा गया है।

साल में तीन संसद सत्र होते हैं, लेकिन कुल मिलाकर 65 दिन भी संसदीय कार्यवाही नहीं हो पाती। यह भारत जैसे गणतंत्र के लिए विडंबना की बात है। हालांकि राजनीतिक दल और संसद विशेषज्ञ लगातार मांग करते रहे हैं कि साल में कमोबेश 65 दिन संसद की ठोस और सार्थक कार्यवाही चलनी चाहिए, लेकिन सवाल है कि यह कौन तय करेगा? पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व स्पीकर सोमनाथ चटर्जी सरीखे संसद-पुरुष पैरवी करते रहे कि कमोबेश संसद के भी तरह ररोज का प्रश्नकाल तो निर्बाध रूप से चलना चाहिए, क्योंकि वह आम जनता से जुड़े मुद्दों और समस्याओं पर आधारित होता है, लेकिन हंगामा उसे भी पलीता लगाता रहा है। शुरुआती हंगामे और विरोध-प्रदर्शनों से स्पष्ट है कि संसद का माॅनसून सत्र भी चिल्ला-चोट वाला होगा। विपक्ष ने महंगाई, बेरोज़गारी, अर्थव्यवस्था और कर्ज़, अग्निपथ, रुपए का अवमूल्यन, चीनी घुसपैठ, जीएसटी, सीबीआई-ईडी के दुरुपयोग सरीखे मुद्दे तय किए हैं। कुछ पर 'काम रोको प्रस्ताव' के नोटिस भी दिए गए हैं। आम आदमी पार्टी (आप) के लिए यह भी संसदीय मुद्दा है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को सिंगापुर जाने के लिए क्यों रोका जा रहा है? बहरहाल विरोध यहां से पैदा होगा कि स्पीकर या सभापति अपने विशेषाधिकार के मुताबिक, बहस के मुद्दे तय करेंगे और विपक्ष के अपने आग्रह होंगे। हंगामा होगा और कार्यवाही स्थगित करनी पड़ेगी।

यह संसद सत्र एक नए विवाद और टकराव के साथ भी शुरू हुआ है। हालांकि स्पीकर और सरकार की तरफ से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में सर्वदलीय बैठकें बुलाई गई थीं, जिनमें सहयोग का आश्वासन सभी दलों ने दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी सकारात्मक सोच और आलोचना के साथ संसद सत्र चलाने का विनम्र आग्रह किया, लेकिन ये कवायदें बेमानी साबित होती रही हैं। विपक्ष की ओर से तृणमूल, एनसीपी, सपा, बसपा, द्रमुक आदि दलों के प्रतिनिधि सर्वदलीय बैठक में हाजिर नहीं हुए। इस बार टकराव का नया कारण एक सर्कुलर है, जिसके जरिए राज्यसभा महासचिव ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं कि संसद भवन के परिसर में या महात्मा गांधी की प्रतिमा पर कोई धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, अनशन या धार्मिक आयोजन करना वर्जित है। सदस्य इसमें सहयोग करें। बेशक संसद परिसर में ही धरना-प्रदर्शन से कई बार हुड़दंग मचा है, अवरोध पैदा हुए हैं, कई बार तो सांसद रातभर धरने पर बैठे रहे या वहीं लेट गए अथवा सो भी गए। बहरहाल सर्कुलर सामान्य प्रक्रिया है और 1960 के दशक से जारी है। अलबत्ता उनकी भाषा और निर्देश कुछ अलग रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान भी ऐसे सर्कुलर जारी हुए थे। तो अब विपक्ष का अपमान या अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का हनन कैसे हुआ है?

यदि ऐसी वर्जनाएं 'असंसदीय' हैं, तो मंगलवार, 19 जुलाई को महात्मा गांधी की प्रतिमा पर विपक्षी दलों ने खूब विरोध-प्रदर्शन किए। किसी का मुद्दा महंगाई और बेरोज़गारी का था, तो 'आप' केजरीवाल के मुद्दे पर विरोध जता रही थी। चूंकि संसद के एक सर्कुलर का उल्लंघन किया गया है, क्या दंड का कोई प्रावधान है? आसन किस आधार पर और किन सांसदों को निलंबित करेगा? लिहाजा ऐसे निर्देश बेमानी साबित होते हैं। अब यह सवाल नहीं किया जा सकता कि किसी मुद्दे या निर्णय पर विपक्ष अपना विरोध कैसे जताएगा। विरोध और टकराव उस शब्दावली पर भी होगा, जिसे विपक्ष ने असंसदीय' करार दिया है, लेकिन स्पीकर ने जारी कर कई शब्दों को 'अमर्यादित' घोषित किया है। यानी उन शब्दों को सदन के भीतर बोला नहीं जा सकेगा। उन्हें कार्यवाही के रिकाॅर्ड में दर्ज नहीं किया जाएगा। बहरहाल संसद का यह सत्र 18 बैठकों का है, जिसमें दो दिन खराब हो चुके हैं। सरकार को 32 बिल पारित कराने हैं, जिनमें 14 नये बिल भी हैं। इतने अंतराल में इतना विधायी कार्य कैसे होगा? देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने टिप्पणी की थी कि विधायिका की गुणवत्ता भी कम होती जा रही है। जस्टिस रमना का यह भी कहना था कि राजनीति में विरोधी पक्ष को 'दुश्मन' नहीं समझना चाहिए। विपक्ष का अपना स्थान है, जो सिकुड़ता जा रहा है। अक्सर प्रधान न्यायाधीश ऐसी टिप्पणियां नहीं करते, लिहाजा जस्टिस रमना के बयान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि अब कार्यवाही लगातार बाधित होती रही, तो सरकार को मजबूरन ध्वनिमत से बिल पारित कराने पड़ेंगे। लोकसभा में तो एकतरफा बहुमत है, लेकिन राज्यसभा में भी भाजपा-एनडीए के पक्ष में सामान्य बहुमत है। बिल पहले की सरकारों में भी ध्वनिमत से पारित होते रहे हैं। यदि विपक्ष इस पर भी आपत्ति करता है, तो उसे अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए, ताकि सदन की कार्यवाही चलती रहे और संसद की सार्थकता पर कोई सवाल न कर सके।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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