विनोद पाठक का लेख : गहलोत की ‘सियासी’ पराजय

राजस्थान में रिवाज नहीं बदला। पांच साल बाद कांग्रेस सरकार की विदाई हो गई। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में यह चुनाव कांग्रेस ने सबसे मजबूती से लड़ा, जहां पार्टी की बुरी तरह हार नहीं हुई है, वरना वर्ष 2013 में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई थी। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ओर से मुख्यमंत्री का कोई चेहरा घोषित नहीं किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर पार्टी वोट मांग रही थी। मुफ्त की योजनाओं से भरे चुनाव में जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गारंटी का नाम लिया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव से ठीक पहले मोदी की गारंटी कहकर चुनाव को ही पलट दिया। वैसे, भाजपा को उम्मीद थी कि पार्टी 140 सीटों से ऊपर जा सकती है, लेकिन वो 115 सीटों पर सिमट गई। चुनाव वाले पांच राज्यों में राजस्थान ही एकमात्र ऐसा राज्य था, जिसे लेकर भाजपा पूरी तरह आश्वस्त थी कि उसकी सत्ता में वापसी हो रही है, लेकिन आंकड़ों के हिसाब से राजस्थान सबसे कमजोर साबित हुआ है। निश्चित रूप से भाजपा संगठन के स्तर पर इसकी समीक्षा करेगी। चुनावी वादों को पूरा करने को लेकर नए मुख्यमंत्री के लिए चुनौतियां बड़ी रहने वाली हैं।
पहले बात कांग्रेस की करते हैं। वर्ष 2018 में राज्य में सरकार बनने के बाद से कांग्रेस में अंतरकलह चल रही थी। वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कुर्सी पर बने रहे। कांग्रेस के सूत्र यही बताते थे कि कुर्सी सचिन पायलट को सौंप दी जानी थी, लेकिन अशोक गहलोत अपनी जादूगरी से कुर्सी पर जमे रहे। यही कारण था कि वर्ष 2020 में कोरोना महामारी के बीच में सचिन पायलट ने कुछ विधायकों को लेकर बगावत कर दी। यही से कांग्रेस की हार की पटकथा लिखनी शुरू हो गई थी। जिन गुर्जरों ने कांग्रेस की वर्ष 2018 में सत्ता में वापसी की राह दिखाई थी, वही वर्ष 2023 में कांग्रेस से दूर हो गए। वो पूर्वी राजस्थान में कांग्रेस की हार का बड़ा कारण बने।
कांग्रेस के लिए गहलोत बनाम सचिन का फैक्टर आत्मघाती साबित हुआ। सचिन पायलट को तवज्जो न मिलने से पार्टी का एक बड़ा धड़ा नाराज ही रहा। वो चुनाव में उस तरह से नहीं जुटा, जिसकी पार्टी उम्मीद कर रही थी। खुद सचिन पायलट ने प्रचार के दौरान मात्र 30 सभाएं कीं। पायलट यही दिखाते रहे कि वो पार्टी के साथ हैं और एकजुटता से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि सच यही है कि सचिन ने अशोक गहलोत को कुर्सी से उतरवाकर अपना प्रतिशोध पूरा किया है। गहलोत सरकार के खिलाफ जनता में इस कदर नाराजगी थी कि मुफ्त बिजली, मुफ्त मोबाइल, मुफ्त लैपटॉप, 500 रुपये में सिलेंडर, 50 लाख का स्वास्थ्य बीमा, हर साल घर की महिला को 10,000 रुपये की गारंटी के बाद भी पार्टी 200 सीटों वाली विधानसभा में 69 सीटों पर सिमट गई। वर्ष 2018 में कांग्रेस को 39.3% वोट मिला था, जो इस बार थोड़ा सा बढ़कर 39.5% हो गया, लेकिन उसे 30 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। मुख्यमंत्री समेत 26 मंत्री चुनावी मैदान में थे, जिसमें से 17 मंत्रियों को जनता नेे नकार दिया। मुख्यमंत्री गहलोत के नंबर दो कहे जाने वाले शांति कुमार धारीवाल बमुश्किल जीत सके। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने किसी तरह अपनी सीट बचाई।
जहां तक भाजपा की बात है तो वर्ष 2018 में हार के बाद से पार्टी सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर सकी, जबकि अशोक गहलोत सरकार ने थाली में रखकर कई बड़े मुद्दे दिए। कानून व्यवस्था को लेकर जनता में गुस्सा था, लेकिन भाजपा नेता इस मुद्दे को केवल बयानों में उठाते रहे। कभी सड़कों पर जोर-शोर से नहीं उतरे। महिलाओं के प्रति अपराधों को लेकर आधी आबादी में बेहद आक्रोश था, जो नतीजे में देखने को मिला। किसान कर्जमाफी का बड़ा वादा कांग्रेस ने वर्ष 2018 में किया था, जिसे पूरा नहीं किया जा सका। इस मुद्दे को लेकर भाजपा नेताओं ने पांच साल राहुल गांधी पर निशाना साधा। इसी तरह पेपरलीक का मुद्दा भी एक हथियार के रूप में भाजपा ने इस्तेमाल किया। युवाओं के आक्रोश को भुनाने के लिए पार्टी ने बेरोजगार संघ के अध्यक्ष उपेन यादव को पार्टी का टिकट भी दे दिया। कन्हैयालाल टेलर की गला काटकर हत्या हो या करौली में दंगा, भाजपा ने तुष्टिकरण पर कांग्रेस की घेराबंदी की। सनातन और तुष्टिकरण का फायदा भाजपा को मिला।
वर्ष 2018 में राजस्थान में चले ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ के नारे से पार्टी इस कदर भयभीत हो गई थी कि पांच साल उसने किसी भी नेता को आगे नहीं किया। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पूरे 5 साल साइडलाइन रहीं। चुनाव से कुछ महीने पहले पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष को बदल दिया। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया को राज्यपाल बनाकर असम भेज दिया। तेजतर्रार राजेंद्र राठौड़ को नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष रहे सतीश पूनिया को उपनेता प्रतिपक्ष बनाया। पर दोनों नेताओं ने किस तरह विपक्ष की भूमिका निभाई, यह इससे साफ होता है कि दोनों अपने क्षेत्र में चुनाव हार गए, यानी जनता का गुस्सा इस बात को लेकर भी सामने आया है कि सरकार के खिलाफ विपक्ष भी नाकाम रहा। राजस्थान में एक समय लग रहा था कि भाजपा आक्रामक रूप से वापसी करेगी और वर्ष 2013 जैसी एक आंधी चलेगी, जिसमें कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई थी, लेकिन समय रहते अशोक गहलोत ने इस बात को भलीभांति समझा और चुनाव से कुछ महीने पहले मुफ्त योजनाओं का अंबार लगा दिया। ओल्ड पेंशन स्कीम, वृद्धों की पेंशन में बढ़ोतरी समेत कई लोकलुभाव योजनाएं घोषित कीं। जनता की नब्ज को अच्छे से पहचानने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव का प्रबंध अपने हाथों में लिया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने राजस्थान में पिछले कुछ महीनों में ताबड़तोड़ सभाएं, माइक्रो मैनेजमेंट कर पार्टी की सत्ता में वापसी कर दी है, लेकिन मुख्यमंत्री कौन होगा? इसे लेकर तस्वीर साफ नहीं हुई है। दावेदार कई हैं।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव बेहद करीब हैं। एक तरह से लोकसभा की तैयारी शुरू हो गई है। राजस्थान में वर्ष 2019 में भाजपा ने 25 की 25 सीटों पर भगवा ध्वज फहराया था। पार्टी निश्चित रूप से किसी ऐसे चेहरे को नेतृत्व देगी, जो अगले साल पुनः वर्ष 2019 वाली स्थिति को लेकर आए। फिलहाल तो राजस्थान में मोदी की गारंटी से जो लहर बनी है, उससे पार्टी की सत्ता में वापसी हो गई है। कांग्रेस में आने वाले दिनों में कलह और बढ़ने वाली है। इसके संकेत देखने को मिलने शुरू भी हो गए हैं। निशाने पर अशोक गहलोत हैं। इन सबके बीच गांधी परिवार की राजस्थान को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। राजस्थान में आगामी कुछ महीने बेहद उतार-चढ़ाव वाले रहने वाले हैं। गहलोत की गारंटियां फेल रहने के बाद नई सरकार मोदी की गारंटियों को कैसे पूरा करती है, इस पर भी जनता की नजर रहने वाली है।
(लेखक- विनोद पाठक वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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