अवधेश कुमार का लेख : विवादों से प्रभावित राजनीति

अवधेश कुमार ( वरिष्ठ पत्रकार )
देश का राजनीतिक वातावरण किस तरह बदला है इसका ज्वलंत उदाहरण वाराणसी में ज्ञानवापी से लेकर मथुरा कृष्ण जन्म भूमि, आगरा ताजमहल सहित महाराष्ट्र में जारी अजान बनाम हनुमान चालीसा मामले हैं। कुछ वर्ष पहले ये मामले इस तरह सामने आते तो गैर भाजपा राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया काफी तीखी होती। वे इसे सेक्यूलरवाद बनाम सांप्रदायिकता का मामला बनाकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करते। आप देख सकते हैं कहीं से भी उस तरह की प्रतिक्रिया सामने नहीं आ रही है। सच कहा जाए तो महाराष्ट्र को छोड़कर कहीं भी राजनीतिक दलों की इन मामलों पर प्रखर औपचारिक प्रतिक्रिया सुनने को नहीं मिल रही है। एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की प्रतिक्रियाओं को आप सामान्य राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं मान सकते। वे संपूर्ण भारत के मुस्लिम समुदाय का एकमात्र नेता बनने की महत्वाकांक्षा से सक्रिय हैं और ऐसे मामलों पर उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया एक ही होती है, हिंदू पक्षों को नकारो, मुसलमानों को पीड़ित बता उनके अंदर भय पैदा करो, भाजपा और संघ की आलोचना करो, मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करो तथा शेष दलों पर हिंदूवादी हो जाने का आरोप लगाओ। आपने ध्यान दिया है या नहीं कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया अभी तक इन मामलों पर सुनने को नहीं मिली है। उनकी राजनीतिक ख़ामोशी आश्चर्य में डालती है।
व्यापक समर्थन नहीं
हालांकि देश के बदलते माहौल को ध्यान रखने वालों के लिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। वाराणसी हो, अयोध्या या मथुरा भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व के हिंदुओं के लिए धर्म संस्कृति के ये उच्चतम केंद्र हैं। कुछ इतिहासकार और बुद्धिजीवी चाहे मामले को जितना जटिल बनाने की कोशिश करें आम धारणा यही है कि मुस्लिम शासन काल में उनके धर्म स्थलों को ध्वस्त कर वहां मस्जिद बनाई गई। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मामला आरंभ में उठा तो उसे व्यापक समर्थन नहीं मिला क्योंकि तब तक जन-जागरण नहीं था। अयोध्या को लेकर हुए जन जागरण तथा केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद भारत के बहुसंख्यक लोगों का मनोभाव बदल चुका है। समाज अब अपनी आस्था, धर्म और राष्ट्रीयता के मामलों पर ज्यादा मुखर और सक्रिय हो रहा है। माहौल ऐसा हो गया है कि जो कोई इस सामूहिक मनोविज्ञान के विपरीत बोलेगा व्यापक पैमाने पर उसका वोट खिसक जाएगा। वैसे भी भाजपा ने इन मामलों पर अभी तक अपना अधिकृत मत प्रकट नहीं किया है। आम लोगों को पता है कि उसका अधिकृत मत क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कई बार कह चुके हैं कि अयोध्या और काशी के बाद अब मथुरा की बारी है। यद्यपि यह बयान उन्होंने चुनाव पूर्व दिया था किंतु इसकी प्रतिध्वनि चुनाव के उपरांत तो गुंजनी ही है।
विपक्षी दलों को पता है कि जैसे ही हमने ज्ञानवापी मस्जिद में हो रहे सर्वे का विरोध किया या मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि को लेकर ईदगाह मस्जिद पर किए जा रहे दावों के विरुद्ध आवाज उठाई तो भाजपा को मुंह मांगा मुद्दा मिल जाएगा और इसे न केवल आगामी विधानसभा चुनावों बल्कि लोकसभा चुनाव तक बनाए रखा जाएगा। हिंदू समाज का बहुमत भी उसके विरुद्ध हो जाएगा। जरा सोचिए, मनसे के मुखिया राज ठाकरे ने लंबे समय तक अजान के विरुद्ध तीखे बयान दिए, शिवसेना तथा महा विकास अाघाड़ी सरकार को मुस्लिम समर्थक व हिंदुत्व विरोधी साबित करते रहे, उनके तेवर और बयान इस तरह के थे उससे लगता था जैसे महाराष्ट्र में नए सिरे से तनाव पैदा होगा। बावजूद उद्धव ठाकरे सरकार ने उनके विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं की। ज्ञानवापी में मां श्रृंगार गौरी के नियमित पूजा आराधना की मांग 5 महिलाओं के द्वारा की गई है। हर राजनीतिक नेता यही सोचता है कि कौन इस पर बयान कर संकट मोल लेने जाए। यह बदलाव सामान्य नहीं है और असाधारण बदलाव के राजनीतिक परिणाम अवश्य होते हैं। अयोध्या आंदोलन के दौरान जब श्रीराम जन्मभूमि के दावे को खंडित करने वाले तथाकथित ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत किए जाते थे तो उनको व्यापक सुर्खियां मिलती थी। इस श्रेणी के लोगों का अस्तित्व आज भी हैं। वे अपने तरीके से ज्ञानवापी मथुरा, ईदगाह मस्जिद, ताजमहल आदि के संदर्भ में किए जा रहे दावों का खंडन भी कर रहे हैं पर उन्हें न सुर्खियां मिल रही है न व्यापक समर्थन। कुछ लोग 1991 के पूजा स्थल कानून का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि उन 15 अगस्त, 1947 तक जिस स्थिति में जो धर्म स्थल थे उनमें बदलाव नहीं होगा लेकिन उन्हें भी सुनने वाले ज्यादा लोग आज नहीं है। जब न्यायालय इस कानून के होते हुए भी ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करा रही है तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय मथुरा के न्यायालय को यह निर्देश दे रहा है कि 4 महीने में मामले को उसकी सुनवाई पूरी करिए तो उसका अर्थ भी साफ है। यानी 1991 का कानून इन मामलों में बाधा नहीं है।
भेदभावपूर्ण कानून
आप देख लीजिए, सोशल मीडिया ही नहीं मुख्यधारा की मीडिया में भी यह तर्क दिया जा रहा है कि यह कानून गैर मुस्लिमों के प्रति भेदभाव पूर्ण है क्योंकि जिन धर्मस्थलों को तोड़ा गया, उनकी जगह दूसरे निर्माण हुए उन सबको उसी अवस्था में रहने देने की बात करता है। इनके अनुसार जिन के साथ अन्याय हुआ वह अन्याय उसी रूप में बनी रहे ऐसा कानून कानून के शासन और संविधान में समानता के व्यवहार की मूल अवधारणा के विपरीत है। नरेंद्र मोदी सरकार पर इस कानून को खत्म करने का दबाव बढ़ रहा है। किसी राजनीतिक दल ने इसके विरोध में एक वक्तव्य नहीं दिया है।
रणनीति बिल्कुल साफ
वास्तव में भाजपा की रणनीति बिल्कुल साफ है। मामले पर शांत रहो, न्यायालय की कार्यवाही पर नजर रखो तथा 1991 के कानून के भावी जीवन को लेकर तत्काल कोई बयान नहीं दो। वैसे भाजपा इस कानून को बनाए रखने की बात तो नहीं कर सकती भले वह जल्दीबाजी में इसे हटाने का कदम न उठाए। उसकी राजनीति के लिए इतना ही पर्याप्त है। सच मानिए, अगर मोदी सरकार ने आगामी विधानसभा चुनाव या भविष्य के लोकसभा चुनाव के पूर्व 1991 के कानून को संसद द्वारा निरस्त करने का कदम उठाया तो उसे व्यापक जन समर्थन मिलेगा और विपक्षी दलों के सामने विकट स्थिति पैदा हो जाएगी।
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