अलका आर्य का लेख : केसीआर की साख बचाने की सियासत

अलका आर्य का लेख : केसीआर की साख बचाने की सियासत
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तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव केंद्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने के लिए खुद को मुख्य प्लेयर की भूमिका के रूप में साबित करने में व्यस्त हैं, तो दूसरी ओर सर्वोच्च अदालत द्वारा 2019 हैदराबाद मुठभेड़ की जांच के लिए जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे फर्जी करार दिया है। फरवरी में ही सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले पांच सालों में देश में कुल 655 पुलिस मुठभेड़ हत्याएं हुई हैं। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 191 हत्याएं हुई हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश में 117, असम में 50, झारखंड में 49, ओडिसा में 36 व बिहार में 22 ऐसी घटनाएं हुई हैं।

अलका आर्य

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) की इन दिनों उत्तर भारत के कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात सियासी चर्चा में है। हालांकि इससे पहले से ही ममता बनर्जी व शरद पवार भी ऐसी ही कोशिशें कर रहे हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि लखनऊ, चंडीगढ़ और दिल्ली में होने वाली इन मुलाकातों का विशुद्व मकसद जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले तीसरे मोर्च के गठन और राज्यसभा चुनाव की रणनीति तैयार करना है। इधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव केंद्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने के लिए खुद को मुख्य प्लेयर की भूमिका के रूप में साबित करने में व्यस्त हैं, तो दूसरी ओर सर्वोच्च अदालत द्वारा 2019 हैदराबाद मुठभेड़ की जांच के लिए जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसे फर्जी करार दिया है। मामले को सर्वोच्च अदालत ने आगे की कार्रवाई के लिए तेलंगाना उच्च अदालत को भेज दिया है। जांच आयोग ने हैदराबाद 2019 कथित मुठभेड़ संबधित मामले में शमिल 10 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या का केस चलाए जाने की भी सिफारिश की है।

मामला यह है कि 27 नवंबर 2019 में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद के उपनगर शादनगर में 27 वर्षीय एक महिला पशु चिकित्सक का अपहरण करने के बाद उसके साथ बलात्कार किया गया और फिर उसकी हत्या कर शव को दंरिदों ने एक पुल के नीचे फेंक दिया। इस घटना के खिलाफ जन आक्रोश फूटा और वहां की पुलिस ने इस मामले में शमिल चारों अभियुक्तों को 6 दिसंबर 2019 को मार दिया। तेलंगाना पुलिस ने इसे मुठभेड़ कहा था, पर कई संगठनों ने उस समय इसको फर्जी करार दिया था। अब सर्वोच्च अदालत की ओर से गठित जांच आयोग ने इस मुठभेड़ को फर्जी करार दिया है। 20 मई को आयोग ने सर्वोच्च अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपी है और हैदराबाद की इस मुठभेड़ को फर्जी करार देने के साथ ही साथ इस मुठभेड़ में शमिल 10 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या का मामला चलाए जाने की भी सिफारिश की है। इस मुठभेड़ में हत्याओं की जांच के लिए सर्वोच्च अदालत के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस वीएस सिरपुरकर की अध्यक्षता वाले आयोग ने पाया है कि चारों संदिग्धों की मौत पुलिस की गोलियों से हुई। पुलिस ने आत्मरक्षा या उन चारों को फिर से पकड़ने की मंशा से गोलियां नहीं चलाई थी, बल्कि पुलिस को मालूम था कि गोली चलाने से आरोपियों की मौत हो जाएगी। आरोपियों के शरीर पर जख्म के सभी निशान कमर के ऊपर मिले। इससे यह साबित होता है कि सामने की ओर से गोलियां मारी गईं। यही नहीं इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इन चार में से दो आरोपी नाबालिग थे, स्कूली दस्तावेजों ने यह पुष्टि की है। गौरतलब है कि एक युवती के साथ हुई इस वीभत्स घटना के बाद तेलंगाना सूबे की सरकार जिसके मुखिया चंद्रशेखर राव हैं। पर बहुत दबाव था और संभवतः इसी दबाव में आकर वहां की पुलिस ने उन चारों आरोपियों को आत्मरक्षा की आड़ में मार दिया। उस समय इस कथित मुठभेड़ का स्वागत जनता के एक तबके ने पुलिस आधिकारियों पर फूल बरसा कर किया।

दरअसल देश में पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से ही सवाल उठते रहे हैं, इसके औचित्य को लेकर पक्ष व विरोध में दलीलों की कोई कमी नहीं है। एक लाॅबी का मानना है कि पुलिस के हाथ बांधने की जरूरत नहीं है, जबकि दूसरी लाॅबी का कहना है कि पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर लोगों से उनके कानूनी अधिकार नहीं छीन सकती। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना है कि किसी भी आदमी की जान जाती है या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता है, तो उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने 2014 में पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों व गंभीर रूप से घायल होने की घटनाओं की जांच के लिए 16 दिशा-निर्देश जारी किए थे।

गत फरवरी में ही सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले पांच सालों में देश में कुल 655 पुलिस मुठभेड़ हत्याएं हुई हैं। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 191 हतयाएं हुई हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश में 117, असम में 50, झारखंड में 49, ओडिसा में 36 व बिहार में 22 ऐसी घटनाएं हुई हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी मार्च 1997 में इस संदर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे। जैसे कि जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस मुठभेड़ की जानकारी मिले तो वह फौरन इसे रजिस्ट्रर में दर्ज करे। जैसे ही ऐसी कोई जानकारी मिले व जांच में किसी तरह का संदेह पैदा हो तो उसकी जांच करना जरूरी है। अगर जांच में पुलिस अधिकारी दोषी पाए जाते हैं, तो मारे गए लोगों के परिजनों को उचित मुआवजा मिलना चाहिए। यही नहीं 2010 में भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने बनाए गए नियमों की सूची में कुछ और नियम भी जोड़ दिए थे। 12 मई 2010 को आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायाधीश जीपी माथुर ने कहा था कि पुलिस को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है। अमेरिका के भूतपूर्व चीफ जस्टिस अर्ल वोरेन ने एक फैसले में कहा था कि कानून का पालन कराने में पुलिस को पहले स्वंय कानून का पालन करना चाहिए। क्या भारत की पुलिस कानून का पालन करती है, इसकी जबावदेही किसके पास है। जन आक्रोश को शांत करने या रसूखदार लोगों के राज छिपाने के लिए भी कई मर्तबा पुलिस मुठभेड़ का रास्ता अपनाती है। जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जिस तरह माॅब लिचिंग अस्वीकार्य है, उसी तरह त्वरित न्याय का कोई विचार भी अस्वीकार्य है।

अब जब इस जांच आयोग की हैदराबाद के इस कथित मुठभेड़ में शमिल दस पुलिस आधिकारियों पर हत्या का मुकदमा चलाए जाने की सिफारिश तेलंगाना उच्च न्यायालय ने मान ली, तो क्या सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई आंरभ करेगी। ऐसा करना क्या जन मत के खिलाफ जाना नहीं होगा।

यह नहीं भूलना चाहिए कि तेलंगाना सरकार ने इस मुठभेड़ की आलोचना नहीं की थी। केसीआर की मुलाकातों को इस मुठभेड़ के परिप्रेक्ष्य में साख बचाने की सियासत के रूप में देखा जा सकता है। उनकी सरकार की किरकिरी हो सकती है।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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