फिलहाल : निरपेक्ष नहीं हो सकता धर्म

धर्म को लेकर अधर्मियों ने सदैव संकट ही खड़े किए हैं। राजनीति की कुटिल संकरी गलियां बहुत बार धर्म का स्वांग भरकर राजमहल तक की यात्रा तय करती हैं। धर्म वह है जो धारण करने योग्य है और जो भी धारण योग्य करने है वह समग्र अर्थों में परम पवित्र होना चाहिए। जहां भी पवित्रता है वहां अधमता का कोई स्थान नहीं हो सकता। धर्म सर्वोच्च सापेक्षता है। कोई भी धर्म कभी भी निरपेक्ष हो ही नहीं सकता। हां पंथ और मत निरपेक्ष हो सकते हैं, लेकिन फिर उन्हें धर्म कहने की भूल मत कीजिए। यह भी ध्यान रखना कि सर्व धर्म समभाव जैसी कोई चीज़ कहीं होती नहीं है यह सिर्फ एक काम चलाऊ नाम है। अरे भाई अगर सभी धर्मों में समान भाव ही होता, तो फिर इतने धर्म ही क्यों होते? फिर तो किसी भी एक से काम चल जाता न! ये राजनीतिज्ञों द्वारा जनता के भावनात्मक शोषण का एक ऐसा औज़ार है, जो दोमुंहा है जहां जैसी शक्ल अख्तियार करनी हो उधर की तरफ वैसा ही रुख कर लो। आज के परिदृश्य में धर्म निरपेक्षता एक मजाक सिद्ध हो रही है।
सबसे पहले धर्म को समझना जरूरी है। धर्म की परिभाषाओं से विचारों का जगत अतिशय आपूरित है, लेकिन पश्चिम के विचारकों ने भी धर्म के संबंध में वैदिक ऋषियों की व्याख्या को ही सर्वाधिक तर्कसंगत और उपयुक्त ठहराया है। हिंदुत्व की मूल अवधारणा उसी व्याख्या से ओत-प्रोत है। यह शिक्षा स्पष्ट करती है कि धर्म जीवन को जीने की ऐसी विशिष्ट शैली है जिससे आत्मिक, सामाजिक और मानवीय मूल्यों का समग्र विकास होता हो। यथा - 'यतोभ्युदयनिः श्रेय सिद्धिः स धर्मः।' वही धर्म अपनाने योग्य है जो मनुष्य को पशु से ऊपर उठाता है। सभी प्राणियों के कल्याण की भावना के साथ परमात्मा की दिव्यता का आत्मसात सच्चे धार्मिक व्यक्ति के लक्षण हैं। माफ़ कीजिये इस कसौटी पर सिर्फ हिन्दुत्व ही खरा उतरता है अन्य कोई भी नहीं ?
'मनुस्मृति' में महर्षि मनु ने स्पष्ट किया है कि 'धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रय निग्रहः। धीर्विद्या सत्यं क्रोधो,दशकं धर्म लक्षणं।' अपने जीवन में धैर्यपूर्वक आचरण, दूसरों की भूलों को भी क्षमा करने की प्रवृत्ति, अपनी वासनाओं पर लगाम, चोरी से बचना, आंतरिक और बाहरी स्वच्छता, अपनी इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि का सही दिशा में प्रयोग, अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्ति को तत्पर रहना, सत्य के साथ रहना और किसी भी तरह की स्थिति में क्रोध से बचना ही धर्म के दस लक्षण हैं। मनु मनुष्यों के पहले ऋषि हैं जिन्हें आत्मिक विकास का सबसे बड़ा सेतु माना जाता है। अब आप इन परिभाषाओं पर अपने रहनुमाओं को आंकें और खुद तय करें कि कितने धार्मिक है धर्म के अलमबरदार? वस्तुतः धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। धर्म शब्द का जितना वैज्ञानिक बोध हिंदुत्व में है उतना अन्यत्र नहीं। धर्म का अर्थ अत्यंत व्यापक है। ध +र +म =धर्म। 'ध' देवनागरी वर्णमाला का 19 वां अक्षर और 'त' वर्णमाला का चौथा व्यंजन है।
भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत (धातु) धा +डविशेषण- धारण करने वाला , स्वीकृत करने वाला होता है। पुनः वही सिद्धांत प्रतिपादित होता है; जो धारण करने योग्य है वही धर्म है। पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। जब हम अपने जीवन के सकारात्मक उत्थान के लिए किसी संस्कार, क्रिया, विचार और पद्धति को आत्मसात करते हैं तब स्वधर्म का पालन करते हैं। धर्म का तात्पर्य यह भी है कि वह सभी को धारण किए हुए है। अर्थात- 'धारयति इति धर्मः' जो सभी मनुष्यों के मन, विचार, व्यवहार और सोच को एक निश्चित लेकिन शुभ दिशा की ओर उन्मुख करता हो वह भी धर्म ही है। अब धारण करने की स्थिति समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती जाती है। इसी के चलते एक सर्वमान्य धर्म होने के बावजूद अनेक पंथों और मतों का जन्म होता है। कईं बार यह भी सवालों के घेरे में आता है कि कौन क्या धारण किए हुए है? धारणीय तत्व सही भी हो सकते हैं और गलत भी। वैदिक पद्धति और हिंदुत्व की गहरी चेतना में धारण करने योग्य और त्याज्य का स्पष्ट उल्लेख है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, तप, शौच, ब्रह्मचर्य, संतोष, दया, करुणा, स्वाध्याय, साधना, योग, ध्यान, समाधि, क्षमा धर्म के मूलाधार हैं। इन तत्वों की सहज प्राप्ति केलिए भक्ति, पूजा, प्रार्थना और तपस्या आदि के मार्ग सुझाए गए हैं।
पूजा पाठ- कर्मकांड धर्म की उपलब्धि हेतु आवश्यक हो सकते हैं अनिवार्य नहीं। औपचारिक पूजा पाठ धर्म का सेतु है धर्म नहीं। जो पंथ सिर्फ पूजा पाठ और धार्मिक गतिविधियों तक ही सिमटकर रह गए वे सच्चे अर्थों में धर्म कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। तथ्य और सत्य के आधार को जब-जब परखने की कसौटी कसी गई तब-तब सिर्फ हिंदुत्व की अवधारणा ही इन मानकों पर खरी साबित हुई। शेष पंथ दो कदम दूर ठिठके खड़े रहे। हिंदुत्व का वचन है- सभी सुख से रहें, सभी निरोगी हों, सभी मंगल उत्सवों के साक्षी बनें और किसी प्राणी को दुःख का भागी न बनना पड़े। इसकी तुलना का वचन न बाइबल में है न कुरान में न अवेस्ता में है न धम्मपद में न ही जिनसूत्र में। असल में होता क्या है जब भी कोई सद्गुरु सम्बोधि को उपलब्ध होता है तो मनुष्य की चेतना को उड़ान भरने के लिए एक नए क्षितिज की सुविधा उपलब्ध होती है, लेकिन साथ ही समस्या आती है कि लकीर के फ़कीर मानव का मन परस्पर उसकी तुलना पुरातन परंपरा और मूल्यों से करता रहता है। न चाहते हुए भी फिर गुरु को एक नया धर्म बनाना पड़ता है। गुरु के विदा होते ही बहुत से लोग अपने निहित स्वार्थों के लिए नए नए मुखौटे लगाकर फिर धर्म को बदनाम करते हैं। उसके सुधार के लिए फिर किसी सद्गुरु को एक नया मार्ग तलाशना पड़ता है। बहुत सी देशनाएं गुण और स्वभाव को भी धर्म का अनिवार्य तत्त्व स्वीकार करती हैं। जैसे अग्नि का स्वभाव है जलाना और जल का स्वभाव है शांति। पृथ्वी का स्वभाव है जन्म देना तो वायु का स्वभाव ह ैजीवन। ये इन तत्वों के स्वभाव हैं लेकिन ये ही इनका धर्म भी है। गहरे अर्थों में देखा जाए तो धर्म मूल स्वभाव की दिशा में उठा हुआ कदम है। धर्म है अनंत और अज्ञात के एक लिए ज्ञात छलांग। धर्म है जन्म, जीवन, मृत्यु और जगत का उद्घाटन। वेद वचन कहता है- स्वयं, सृष्टि और जगत के विकास और उत्थान हेतु किए जाने वाले सभी शुभ कर्म-धर्म ही की श्रेणी में आते हैं।
अब अंग्रेजी में जब धर्म का अनुवाद किया गया तो इसे 'रिलिजन' कहा गया और इस्लाम में मज़हब, लेकिन इन दोनों की परिभाषाएं संस्कृत से जन्मे धर्म शब्द से सर्वथा पृथक हैं। 18वीं सदी में इंग्लैंड में एक ऐसे वर्ग का अभ्युदय हुआ जो किसी भी तरह की धार्मिक पाबंदी से स्वयं को मुक्त रखने का पक्षधर था। सन 1846 में बर्मिंघम के निवासी जॉर्ज जैकब होलियाक ने ऐसे समुदाय के लिए एक शब्द का प्रयोग किया- 'सेक्युलरिज्म' इस शब्द का मतलब था ऐसे लोग जो किसी भी पंथ से वास्ता नहीं रखते।
(वरिष्ठ लेखक प्रो. पीके आर्य की कलम से)
© Copyright 2025 : Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS
-
Home
-
Menu
© Copyright 2025: Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS