सुशील राजेश कालेख : आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं

सुशील राजेश कालेख : आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं
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बाबा साहेब डा. भीमराव आंंबेडकर तो आरक्षण की अवधारणा के ही पक्षधर नहीं थे। बाद में आंबेडकर ने आरक्षण का समर्थन जातिवाद और सामाजिक विषमताओं के खिलाफ एक उपकरण के तौर पर किया था, उन्होंने पिछड़े, वंचित, अछूत अनुसूचित वर्गों के आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक उत्थान के लिए आरक्षण की पैरोकारी की थी, लेकिन आज आरक्षण के मायने बदल चुके हैं। यह एक राजनीतिक हथियार बन चुका है। समय के साथ इसका दायरा बढ़ता गया है। पहले अनुसूचित वर्ग के लिए था, अब इसमें ओबीसी व सवर्ण भी जुड़ चुके हैं। सरकारी नौकरियां घट रही हैं, राजनीतिक के चलते आरक्षण का दायरा बढ़ रहा है। माराठा, जाट, गुर्जर, पटेल, कापू जैसे समृद्ध समुदाय भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं। लेकिन अब आरक्षण की व्यापक समीक्षा की जानी चाहिए।

संविधान सभा की बैठकों में आरक्षण के आयामों पर खूब बहस की गई थी। आरक्षण की समय-सीमा, अनुसूचित जातियों, अल्पसंख्यकों के कोटे पर बहुत मतभेद थे। जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और डाॅ. आंबेडकर आदि धार्मिक अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के खिलाफ थे। बाबा साहेब डा. भीमराव आंंबेडकर तो आरक्षण की अवधारणा के ही पक्षधर नहीं थे। उनके अलावा, के.एम. मुंशी, महावीर त्यागी, पंडित भार्गव, नजीरुद्दीन अहमद, कृष्णामाचारी, मुनिस्वामी पिल्लै और मनमोहन दास आदि सदस्यों ने संविधान सभा में जो विचार रखे थे, वे आज इतिहास हैं। संभवतः उतने प्रासंगिक भी नहीं हैं, क्योंकि आरक्षण हमारे समय का यथार्थ है, लेकिन उसे मौलिक अधिकार की मान्यता कभी नहीं दी गई। आंबेडकर ने आरक्षण का समर्थन जातिवाद और सामाजिक विषमताओं के खिलाफ एक उपकरण के तौर पर किया, उन्होंने पिछड़े, वंचित, अछूत अनुसूचित वर्गों के आर्थिक-सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण की पैरोकारी की थी, लेकिन आज आरक्षण के मायने बदल चुके हैं। एक राजनीतिक हथियार है, जिन्हें आरक्षण हासिल है, वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनाए रखना चाहते हैं।

1892 में ही आरक्षण की कल्पना

बेशक आरक्षण की विशेष व्यवस्था आज़ादी के बाद की गई, लेकिन जाति आधारित आरक्षण के विचार की कल्पना 1892 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने की थी। उसके बाद कोल्हापुर रियासत के महाराजा छत्रपति शाहू महराज ने गैर-ब्राह्मण और पिछड़े वर्गों के पक्ष में आरक्षण की शुरुआत की, जो 1902 में लागू किया गया। दरअसल आज जो आरक्षण प्रणाली हमारे सामने है, उसकी बुनियादी शुरुआत 1933 में की गई थी। तब ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड थे, जिन्होंने ‘सांप्रदायिक पुरस्कार’ प्रस्तुत किया था। उसके तहत मुसलमानों, सिखों, भारतीय इसाइयों, एंग्लो इंडियन, यूरोपीय, दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया था। लंबे विमर्श के बाद महात्मा गांधी और डाॅ. आंबेडकर ने ‘पूना पैक्ट’ पर हस्ताक्षर किए थे, जहां यह निर्णय लिया गया कि इसमें कुछ आरक्षणों के साथ एक ही हिन्दू मतदाता होगा। यह आर्थिक-सामाजिक, जातीय के बजाय राजनीतिक और चुनावी आरक्षण ज्यादा था। ब्रिटिश की सोच उपनिवेशवादी थी, जबकि विचार उभरने लगा था कि जो वर्ग आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक तौर पर विपन्न हैं, उन्हें आगे लाने के लिए आरक्षण जैसी कोई व्यवस्था की जानी चाहिए।

10 वर्ष के लिए ही आरक्षण

जब 1947 में भारत एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बना, तो आरक्षण का मुद्दा भी सामने आया। सबसे पहले अनुसूचित जाति और जनजाति को ही आरक्षण दिया गया। बाद में मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया गया, तो 1991 में ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ (ओबीसी) को भी आरक्षण के दायरे में रखा गया। आरक्षण की अवधि मात्र 10 सालों के लिए तय की गई थी, लेकिन यह भी प्रावधान किया गया कि संसद के जरिए अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है। नतीजा सामने है कि आज़ादी के 76 साल बाद भी आरक्षण विद्रूप यथार्थ है।

बढ़ता ही गया दायरा

अनुसूचित जाति को 15 फीसदी, जनजाति को 7.5 फीसदी और ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। जनवरी, 2019 में संविधान में 103वां संशोधन कर आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग को भी 10 फीसदी आरक्षण दे दिया गया। इस परिधि में सवर्ण जातियां भी शामिल की गईं। सर्वोच्च अदालत की न्यायिक पीठ ने भी ऐसे आरक्षण को ‘संवैधानिक’ करार दिया। संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16(4) में राज्य और केंद्र सरकारों को अधिकार दिए गए हैं कि वे अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित कर सकती हैं। 1995 में एक संविधान संशोधन संसद में पारित कर पदोन्नति में भी आरक्षण की व्यवस्था करने के मद्देनजर अनुच्छेद 16 में नया खंड 4ए जोड़ा गया। अनुच्छेद 330 और 342 के जरिए क्रमशः संसद और राज्यों की विधानसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण तय किया गया। देश की पंचायतों और नगरपालिकाओं में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू है। मकसद साफ़ है कि पिछड़ी जातियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय को सुधारा जाए। उन्हें समान अवसर मिलें और उनका लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व भी पर्याप्त हो, लेकिन जिस तरह आरक्षण मांगा जा रहा है, वह आपराधिक और गुंडागर्दी है।

अतीत में हरियाणा, राजस्थान, गुजरात सरीखे अपेक्षाकृत विकसित राज्यों में आरक्षण के तांडव देखे जा चुके हैं। हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन में व्यापक तोड़फोड़ व हिंसा हुई। अंततः 2016 से हरियाणा में ओबीसी के तहत 10 फीसदी कोटा दिया जा रहा है। राजस्थान में गुर्जरों ने आरक्षण के नाम पर खूब उत्पात मचाया। गुजरात में पटेलों को भी आरक्षण चाहिए था, जबकि इसे एक व्यापारिक और समृद्ध समुदाय माना जाता है। वहां भी हड़तालें और विरोध-प्रदर्शन किए गए। क्या आरक्षण ऐसे मांगा जाता है? क्या यह किसी का भी संवैधानिक अधिकार है? यही सवाल अब महाराष्ट्र सरकार के सामने है। वहां तो महातांडव जारी है। मंत्रियों के वाहन जलाए गए हैं। बसों को तोड़-फोड़ कर खंडहर बना दिया गया है। संभवतः उनकी मांग जायज हो! सर्वोच्च अदालत कई फैसलों में स्पष्ट कर चुकी है कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी होगी। सवर्णों का 10 फीसदी आरक्षण एक विशेष व्यवस्था है। अदालत आरक्षण मंजूर नहीं करेगी और आंदोलनकारी आरक्षण के नाम पर सरकारों को विवश करेंगे।

आरक्षण सिस्टम में बदलाव की जरूरत

मेरा मानना है कि अब आरक्षण की व्यापक समीक्षा की जानी चाहिए। आरक्षण से हमने क्या पाया, जिनको मिल रहा है, उनका सामाजिक शैक्षिक व आर्थिक उत्थान कितना हुआ, उन समुदाय में अब दरअसल में किनको जरूरत है? किन्हें अब इसकी जरूरत नहीं है? जब तक जातिगत आरक्षण रहेगा, जातिवाद से मुक्ति नहीं मिलेगी। ऐसे कई परिवार हैं, जिनमें आईएएस अधिकारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी हैं, लेकिन आरक्षण अब भी लिया जा रहा है। मुझे लगता है कि ऐसे आरक्षण खत्म किए जाने चाहिए। जातीय जनगणना की राजनीति के इस दौर में इसका बहुत और आक्रामक विरोध हो सकता है। जाति समूहों के बीच ही आरक्षण आर्थिक व शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर तय किया जाना चाहिए। दरअसल ज़मीनी स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में भी क्रांतिकारी बदलाव समय की दरकार हैं। हमें अगर 2047 में विकसित देश बनना है तो आरक्षण जैसी व्यवस्था को तार्किक बनाना होगा। देश के विकास-पथ में भी विकृतियां हैं, लेकिन आरक्षण ही समाधान नहीं है। हमें आरक्षण की सियासत से बाहर आना चाहिए।

(लेखक- सुशील राजेश वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके अपने निजी विचार हैं)

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