प्रमोद भार्गव का लेख : राजस्व मामलों के हल तेजी से हों

प्रमोद भार्गव
ऐसा पहली बार देखने में आया है कि सर्वोव्व न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने न्यायालयों में बढ़ते मामलों के मूल कारण में जजों की कमी के साथ राजस्व न्यायालयों को भी दोषी ठहराया है। रमणा ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों और क्षेत्राधिकार के विभाजन की संवैधानिक व्यवस्था का हवाला देते हुए कहा कि कर्तव्यों का पालन करते समय हम सभी को लक्ष्मण रेखा की मर्यादा ध्यान में रखनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते में आड़े नहीं आएगी। आज जो न्यायपालिका में मुकदमों का ढेर लगा है, उसके लिए जिम्मेदार प्रमुख प्राधिकरणों द्वारा अपना काम ठीक से नहीं करना है, इसलिए सबसे बड़ी मुकादमेबाज सरकार हैं। न्यायालयों में 66 प्रतिशत मामले राजस्व विभाग से संबंधित हैं। राजस्व न्यायालय एक तो भूमि संबंधी प्रकारणों का निराकरण नहीं करती हैं, दूसरे न्यायालय निराकरण कर भी देती है तो उस पर वर्षांे अमल नहीं होता है। नतीजतन अवमानना के मुकदमे बढ़ने की भी एक नई श्रेणी तैयार हो रही है। अदालत का आदेश होने के बावजूद उसका क्रियान्वयन नहीं करना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। रमणा ने मामलों का बोझ बढ़ने का कारण गिनाते हुए का कि तहसीलदार यदि भूमि के नामांतरण और बंटवारे समय पर कर दें तो किसान अदालत क्यों जाएगा? यदि नगर निगम, नगरपालिकाएं और ग्राम पंचायत ठीक से अपना काम करें तो नागरिक न्यायालय का रुख क्यों करेगा? यदि राजस्व विभाग परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण विधि सम्मत करे तो लोग अदालत के दरवाजे पर दस्तक क्यों देंगे? ऐसे मामलों की संख्या 66 प्रतिशत है। उन्होंने कहा कि जब हम सब संवैधानिक पदाधिकारी हैं और इस व्यवस्था का पालन करने के लिए जिम्मेदार है और हमारे क्षेत्राधिकार भी स्पष्ट हैं, तब समन्वय के साथ दायित्व पालन करते हुए राष्ट्र की लोकतांत्रिक नींव मजबूत करने की जरूरत है। रमणा ने यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आहूत मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में कही है।
अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारें निश्चित रूप से जिम्मेदार हैं। वेतन विंसगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्शी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करती हैं। नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृत्ति के बाद भी बकाया के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं, जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं, जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है, लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद बनाए रखना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा सुनिश्चित हैं।
हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अक्सर रोया जाता है। ऐसा केवल अदालत में हो, ऐसा नहीं है। पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। कोरोना काल में स्वास्थ्य विभाग चिकित्सकों एवं उनके सहायक कर्मचारियों की कमी बड़ी संख्या में देखने में आई थी। इसकी पूर्ति आउटसोर्स के माध्यम से चिकित्सक एवं कर्मचारी तैनात करके तत्काल तो कर ली गई थी, किंतु कोरोना संकट के खत्म होते ही उन्हें हटा दिया गया। नतीजतन कमी यथावत है। जजों की कमी कोई भी नई बात नहीं है, 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। फिलहाल यह संख्या 17 कर दी गई है। जबकि विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा आस्ट्रेलिया में 58, कनाडा में 75, फ्रांस में 80 और ब्रिटेन में 100 है। हमारे यहां जिला एवं सत्र न्यायालय में 21 हजार की तुलना में 40 हजार न्यायाधीशों की जरूरत है। मार्च 2016 तक देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1056 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 434 पद खाली हैं। हालांकि हमारे यहां अभी भी 14,000 अदालतों में 17,945 न्यायाधीश काम कर रहे हैं। अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ाया गया है। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं हैं। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते अब बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए पृथक से वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है। अलबत्ता आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीश ग्रीष्म ऋतु में छुट्टियों पर चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों में जब से महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान हुआ है, तब से हरेक विभाग में महिलाकर्मियों की संख्या बढ़ी है। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवाकर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं, जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं।
न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए, दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक तय समय-सीमा में हो जाए, लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पाता। मुकदमों के लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था 'न्यायाधीश भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवश्य दें। ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।'
यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने इस तरह के स्थगन से बचने की सलाह दी थी। लेकिन जिनका स्वार्थ मुकदमों को लंबा चलाने में अंतर्निहित है, वहां ऐसी नसीहतें व्यर्थ हैं? लिहाजा कड़ाई बरतते हुए कठोर नियम बनाने की जरूरत है। अगली तारीख का अंतराल 15 दिन से ज्यादा का न हो, दूसरे अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है तो ऐसे मामलों को विशेष प्रकरण की श्रेणी में लाकर निराकरण त्वरित सुनवाई के अंतर्गत हो। बहरहाल प्रधान न्यायाधीश ने जो खरी-खरी बातें कही हैं, उन पर राजस्व अदालतों को अमल करने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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