एडवोकेट रघुबीर सिंह दहिया का लेख : खुदीराम बोस की शहादत से प्रेरणा पाते रहे क्रांतिकारी

एडवोकेट रघुबीर सिंह दहिया का लेख : खुदीराम बोस की शहादत से प्रेरणा पाते रहे क्रांतिकारी
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वे कितने महान थे ये स्वतः प्रमाणित हो जाता है कि बाद के सब क्रांतिकारियों ने अपना आदर्श मानकर उन्हें सम्मानित किया।

एडवोकेट रघुबीर सिंह दहिया

30 अप्रैल 1908 बिहार के मुजफ्फरपुर में रात 8 बजे एक बड़ा बम विस्फोट हुआ और उसकी गूंज 7500 किलो मीटर दूर लंदन में सुनाई दी। मई दिवस के अवसर पर एक मई 1908 को उस धमाके की खबर पूरी दुनिया के समाचार-पत्रों में प्रमुखता से छपी थी। बम धमाका अत्याचारी जज किंग्सफोर्ड को मौत के घाट उतारने के उद्देश्य से किया गया था। 18 साल के एक अद्वितीय क्रांतिकारी ने अचूक निशाना साधकर पूरी ताकत से बम फेंका था और घोड़ा गाड़ी के परखचे उड़ गए, जिसमें सवार दो निर्दोष महिलाएं (मां-बेटी) मारी गई लेकिन वांछित शिकार डगलस किंग्सफोर्ड बच गया, जो सत्ता के अहंकार से ग्रसित मानव रूपी राक्षस था। जिसने प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता विपिन चन्द्र पाल को बगैर किसी कसूर 6 महीने की सजा का आदेश सुना दिया था। 15 वर्ष के किशोर सुशील कुमार को 15 कोड़े मारने का आदेश दिया था। ऐसे जालिम पर बम फेंकने वाले महान क्रांतिकारी का नाम खुदीराम बोस था और इस काम में साथ देने वाले दूसरे क्रांतिकारी प्रफुल्ल कुमार चाकी थे।

वे कितने महान थे ये स्वतः प्रमाणित हो जाता है कि बाद के सब क्रांतिकारियों ने अपना आदर्श मानकर उन्हें सम्मानित किया। काकोरी केस के महान शहीद अशफाक उल्ला खां ने कहा था कि दिल में ख्वाहिश पैदा होती थी कि क्या हम भी खुदीराम बोस की तरह फांसी की कोठरी में बंद होंगे और उनके आदर्श को सर्वोच्च स्तर तक ले जाने में कामयाब होंगे। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने स्कूल के विद्यार्थियों को प्रेरित कर विद्यालय के प्रांगण में ही खुदीराम बोस का शहादत दिवस मनाया। प्रसिद्ध साहित्यकार शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय उन्हे अपना प्रेरणास्रोत मानते थे। मुंशी प्रेमचन्द ने अपने घर की दीवार पर शहीद खुदीराम बोस की तस्वीर लगाई और पत्नी से भी कहा यदि कभी मैं भयभीत हो जाऊं तो इस तस्वीर की ओर इशारा कर देना।

खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर, 1889 को बंगाल के मिदनापुर शहर के हवीबपुर मोहल्ले में हुआ। उनके पिताजी का नाम त्रैलोक्यनाथ बोस व मां का नाम लक्ष्मी प्रिया देवी था। पुत्र की लम्बी आयु की कामना करने वाली मां लक्ष्मी प्रिया ने नवजात पुत्र को तीन मुट्ठी खुदी (चावल के टुकडे) में बेच दिया और खरीदार बनी शिशु की बहन अपरूपा देवी। बहन अपरूपा ने भाई का नाम भी खुदीराम रख दिया क्योंकि उसने खुदी में उसे खरीदा था।

खुदीराम बोस 6 वर्ष के भी नहीं थे कि 18 अक्टूबर, 1895 को अचानक मां चल बसी और पिता ने शीघ्र ही दूसरी शादी कर ली लेकिन 14 फरवरी, 1896 को पिता जी की भी मृत्यु हो गई। ऐसी परिस्थिति में बहन अपरूपा ने भाई खुदीराम का पालन-पोषण किया। खुदीराम की तीन बहनें अपरूपा, सरोजनी और ननीबाला थी। दो भाई एक-एक करके बचपन में चल बसे। अपरूपा छोटी बहन ननी बाला और भाई खुदीराम को अपने साथ ससुराल ले आई और तमलुक के हैमिल्टन हायर इंग्लिश स्कूल में दाखिला करवा दिया। वे सातवीं कक्षा तक वहां पढ़े, वे शुरू से ही बहुत शरारती एवं चंचल स्वभाव के विद्यार्थी थे और पढ़ने-लिखने में गहरी रुचि नहीं थी।

1904 में उनका दाखिला मेदिनीपुर जिले के कॉलेजिएट स्कूल की आठवीं कक्षा में करवाया। उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया। अरबिंदो घोष और बहन निवेदिता से भी वे अनेक बार मिले व गुप्त बैठकों में आना- जाना शुरू कर दिया।

तमलुक शहर में हैजा पीड़ितों की बहुत सेवा की जबकि आम आदमी रोगी के पास आने से डरता था। बाढ़ पीड़ित असहाय लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने जैसे, सराहनीय काम किए। एक दिन मुझे एक पिस्तौल चाहिए बोलकर खुदीराम हेमचंद्र कानूनगो का रास्ता रोक कर खड़े हो गए थे। हेमचन्द्र ने पूछा क्या करोगे पिस्तौल का तो उस पर खुदीराम बोला - अंग्रेजों को देश से भगाऊंगा। अभी तुम्हारी उम्र बहुत कम है तो खुदीराम ने जवाब दिया साहस और हिम्मत महान काम के सोपान हैं, उम्र नहीं। मैं आपको जानता हूं आप हेमचंद्र बाबू है।

1904 में लार्ड कर्जन ने शिक्षा बजट में कटौती करके शिक्षा की गर्दन पर तलवार रखी तो खुदीराम बोस ने विरोध प्रदर्शन में पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लिया। 1905 में लार्ड कर्जन ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी में भाषण देते हुए कहा कि " इस देश के लोग स्वभावतः झूठ बोलने के आदी हैं। इस टिप्पणी से देश में भूचाल आ गया लेकिन कर्जन ने स्थिति को समझ 19 जुलाई 1905 को बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। बंगाल की आम जनता ने डटकर विरोध किया। खुदीराम बोस ने भी बढ़चढ़ कर विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया और विदेशी माल की होली जलाई। विदित रहे किताब किसी ने नहीं जलाई। खुदीराम बोस ने गंभीरता से अध्ययन करते बंकिम चन्द्र च‌ट्टोपाध्याय, विवेकानंद और रविन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य पढ़ा और आनंदमठ ने संघर्ष के लिए प्रेरित किया व अंग्रेजों को देश से भगाना ही प्रमुख ध्येय मान लिया।

खुदीराम बोस के मन में क्रांतिकारी विचारों के प्रति रुचि दिन प्रति-दिन बढ़ रही थी और देशभक्ति की भावना राजनीतिक राह के लिए प्रेरित कर रही थी। भाई खुदीराम की गतिविधि से बहन अपरूपा की चिंता बढ़ रही थी, उन्होंने उसे समझाया कि पढ़ाई पर पूरी लगन से ध्यान दो ताकि पैरों पर खड़े हो सन और घर आबाद हो। खुदीराम की सरकार विरोधी गतिविधि से उनके जीजा की परेशानियां भी दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी क्योंकि वे सरकारी कर्मचारी थे। स्थानीय अधिकारी लगातार उन पर दबाव बढ़ा रहे थे। खुदीराम ने भी समझ लिया कि मेरे कारण बहन और जीजा को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बहुत सोच-विचार कर बहन को बिना बताए ही देश की आजादी को सामने रख बहन का घर छोड़ दिया और अरविंदो घोष, बारीन्द्र कुमार घोष, हेमचन्द कानूनगो, सत्येन्द्रनाथ बोस व अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ अंग्रेजों को देश से भगाने के काम में जुट गए। खुदीराम ने कक्षा 9 के बाद स्कूल छोड़ दिया था और इससे बहन की चिंता बढ़ रही थी।

भाई की तलाश में बहन मारी-मारी इधर उधर रिश्तेदारों के पास जा रही थी, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। एक दिन भाई का पत्र मिला जिसमें लिखा था प्यारी बहन मुझे माफ कर देना। मेरे अचानक घर से चले जाने के कारण आपको असहनीय दुख हुआ, यदि आपको बता देता तो आप हरगिज भी मुझे जाने नहीं देती। खुदीराम बोस दिल में आजादी की चाह लिए भूखा-प्यासा इधर-उधर घूम रहा था तो कलकत्ता के जाने-. माने वकील सैयद अब्दुल वाहीद की बहन ने घर बुलाकर खाना खिलाया और खुले दिल से मदद की। छोटे भाई के लिए मुस्लिम बहन के घर के दरवाजे हर वक्त खुले मिलेंगे, जब भी जरूरत समझो बेहिचक आ जाना ये कहकर उस बहन ने विदा किया था। वास्तव में इन्सानियत के रिश्ते बहुत पवित्र और ऊंचे होते हैं।

बंगाल के बांकुड़ा के बहुत गरीब किसान के घर खुदीराम लगभग एक महीना रहे, किसान बूढ़ा और असहाय था। उसके खेत की जुताई- बुवाई करके वापस मेदनापुर आ गया और किसान की फसल लहलहा रही थी। वहां रहते हुए खुदीराम ने किसानों की गरीबी को प्रत्यक्ष देखा। पिता को उपहार में मिली कीमती शाल को सर्दी में ठिठुरते एक भिखारी को दे दिया। खुदीराम ने इटली के क्रांतिकारी मैजिनी और गैरीबाल्डी के जीवन संघर्ष को गंभीरता से पढा और आजादी की महानता समझ आई। फरवरी 1906 में मिदनापुर जेल प्रांगण में कृषि प्रदर्शनी आयोजित की गई। खुदीराम प्रदर्शनी में आने-जाने वाले लोगों को सरकार विरोधी क्रांतिकारी संगठन के पर्चे वितरित करने के जुर्म में पुलिस ने पकड़ लिया तो सत्येन्द्रनाथ ने सिपाही को फटकार लगाई कि तुमने मजिस्ट्रेट के पुत्र को क्यों पकड़ लिया। सिपाही घबरा गया और खुदीराम राहत मिलते ही वहां से चम्पत हो गया। उस घटना से सतेन्द्रनाथ की सरकारी नौकरी चली गई और नौकरी जाने से गुप्त क्रांतिकारी संगठन को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा।

पुलिस ने खुदीराम को तलाश करने की मुहिम तेज कर दी तो वे फरार हो गए लेकिन कुछ समय बाद आत्मसमर्पण कर दिया। पुलिस उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं जुटा पाई तो जज ने कम उम्र समझकर बरी करने का आदेश दे दिया था फिर जज ने उनसे पूछा कि तुम्हें पर्चे देने वाला क्या यहां कोर्ट में उपस्थित है ? सत्येन्द्रनाथ खुदीराम के सामने खड़े थे परस्पर आंखे मिली लेकिन खुदीराम ने जज से कहा, नहीं, वे यहां नहीं हैं।

सत्येन्द्रनाथ की नौकरी छूटने से आर्थिक चोट पड़ रही थी। खुदीराम ने गंभीरता से चिंतन मनन किया और संगठन को सूचना दिए बिना बहन अपरूपा के पास हाटगादिया चले गए और डाकिए से राजकोष का पैसा जबरन छीनकर तुरन्त एक साथी की मार्फत संतेन्द्रनाथ के पास भेज दिया ताकि आजादी आन्दोलन की गति मंद न पड़े। बहन-भाई की वह अन्तिम मुलाकात थी। बहन से मिलकर वापस आकर आजादी का संघर्ष शुरू कर दिया।

6 दिसम्बर 1907 को खुदीराम बोस ने नारायण गढ़ नामक रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की स्पेशल ट्रेन पर बम फेंका लेकिन गवर्नर बच गया। उस समय क्रांतिकारियों के लिए सबसे घृणित व्यक्ति किंग्सफोर्ड था जो क्रांतिकारियों और युगान्तर, संध्या, शक्ति, वन्देमातरम् के सम्पादकों पत्रकारों लेखकों व सामान्य प्रेस कर्मचारियों को बिना वजह फटकार लगाना उसकी आदत का हिस्सा था। वह मानवरुपी राक्षस था। सरकार ने वंदेमातरम् के संपादक अरविंदो घोष पर कोर्ट में मुकदमा चलाया और प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता विपिन चन्द्रपाल गवाह के रूप में बुलाए गए थे। विपिन चंद्रा ने अदालत स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की कार्यवाहियों में भाग लेने में मुझे नैतिक आपत्ति है। उस उत्तर को सुनकर खिन्न हुए किग्सफोर्ड ने विपिनचंद्र पाल को छह महीने की सजा का आदेश दे दिया। अरविंदो घोष को चन्द्रनगर के फ्रांसीसी उपनिवेश तथा बाद में पांडुचेरी में शरण लेनी पडी। उसी जज ने 15 वर्ष के किशोर सुशील कुमार को 15 कोडे मारने का आदेश दिया। उसके व्यवहार में सत्ता के अंहकार की बदबू आती थी। क्रांतिकारियों ने उस पापी जज किंग्सफोर्ड को मारने की कारगर योजना बनाई। हेमचंद्र कानूनगो ने एक मोटी किताब को अन्दर से काटा और उसमें एक प्राणघातक बम रख दिया। उधर पुस्तक को किंग्सफोर्ड के पास भेज दिया लेकिन उन्होंने पुस्तक खोले बिना ही बुकशेल्फ में रख दी और वह शिकार बनने से बच गया। सरकार ने खतरे की आशंका से किंग्सफोर्ड का तबादला कलकत्ता से मुजफ्फरपुर कर दिया।

क्रांतिकारी संगठन युगान्तर ने एक गुप्त मीटिंग में किंग्सफोर्ड की हत्या की एक और योजना बनाई और खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को जिम्मेदारी सौंपी गई। सत्येन्द्रनाथ ने मुखबेडिया से खुदीराम को तुरन्त कलकत्ता आने का संन्देश भेजा खुदीराम बिना देरी किये सत्येन्द्रनाथ के पास आ गये और जैसी संगठन का फैसला सुना वो खुशी से झूम उठे। हेमचन्द्र कानूनगो ने सारी योजना बनायी और दोनों क्रांतिकारियों का योजना से अवगत करा दिया। दूसरे क्रांतिकारी प्रफुल्ल कुमार चाकी थे।

18 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी की ऐतिहासिक यात्रा कलकत्ता से मुजफ्फरपुर के लिए शुरू हुई। खुदीराम के पास दो पिस्तौलें और एक शक्तिशाली बम व कुछ कारतूस थे वहीं प्रफुल्ल चाकी के पास एक पिस्तौल थी। वे दोनों भी एक दूसरे को पहले से नहीं जानते थे। खुदीराम दुर्गादास बने और प्रफुल्ल चाकी दिनेश चंद्र राय । वे दोनों मुजफ्फरपुर की एक धर्मशाला में कुछ दिन रहे और किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर पूरी नजर रख रहे थे।

उन्होंने जान लिया कि हमारा शिकार कोर्ट से जाने के बाद हर शाम को घोड़ागाड़ी में बैठकर क्लब जाता है, इसी रास्ते पर बम फेंककर हत्या करना उचित रहेगा। पहले के कोर्ट में ही उसका शिकार करना चाहते थे लेकिन आम जन की सुरक्षा की दृष्टि से सही नहीं जानकर प्लान बदला गया।

30 अप्रैल 1908 को लगभग 10 दिन की निगरानी के बाद वे दोनों क्रांतिकारी एक पेड़ के नीचे घोडा गाड़ी के क्लब से निकलने का इन्तजार करने लगे। सोच रहे थे कि अगर बम नहीं फटा तो गोलियों से भून देंगे। शाम 8 बजे घोड़ा गाड़ी क्लब से निकलकर जैसे पेड़ के पास पहुंची खुदीराम ने पूरी ताकत से बम फेंका और जोर का धमाका हुआ। घोड़ा गाड़ी के परखचे उड़ गए और गाड़ी में सवार दो निर्दोष महिलाएं (मां-बेटी), मारी गई। क्रांतिकारियों को इसका आभास नहीं था। वे तो जैसे कार्य सफल रहा ऐसा मान कर वहां से तुरन्त भागे ताकि कहीं अज्ञात जगह छिप सकें। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी दोनों अलग अलग राहों से विपरित दिशाओ में चले गए। सरकार ने तुरन्त इनामों की घोषणा की कि जो घटना के दोषियों की जानकारी देगा उसे पांच हजार का इनाम दिया जाएगा। उस समय के पांच हजार आज के 50 लाख के बराबर हैं। रेलवे स्टेशनों, स्टीमर, घाटों, चौराहों पर जगह- जगह मुखबिर, जासूस और गुप्तचरों का जाल बिछाया गया था।

मोकामा स्टेशन पर नन्दलाल बनर्जी के विश्वासघात ने प्रफुल्ल चाकी को पुलिस की गिरफ्त में फंसा दिया। उसने गिरफ्तारी से बचने के लिए मई 1908 में स्वयं को गोली मार ली और शहीद हो गए। पुलिस ने चाकी का सिर काटकर पहचान के लिए कलकत्ता भेज दिया जहां पता चला यह दिनेश चंद्र राय नही बल्कि रंगपुर का बेजोड क्रांतिकारी प्रफुल्ल कुमार चाकी है।

खुदीराम रातभर चलते रहे और सुबह मुजफ्फरपुर से 24 किलोमीटर दूर वैणी रेलवे स्टेशन पर पानी पी रहे को पुलिस के चार सिपाहियों ने दबोचने का प्रयास किया तो पिस्तौल निकालने की कोशिश में एक पुलिस कमी को पटक दिया लेकिन पिस्तौल निकाल न सका, पुलिस ने एक गई 1908 को उसे गिरफ्तार कर लिया । उसके पास से पुलिस ने दो पिस्तौल, 38 गोलियों, रेलवे टाइम टेबल और रेलवे का नक्शा बरामद किया।

वैणी रेलवे स्टेशन से खुदीराम बोस को रेल द्वारा मुजफ्फरपुर लाया गया। दो मई को वुडमैन की कोर्ट में पेश किए गये और उन्होंने कोर्ट में स्वीकार किया कि वे अत्याचारी किंग्सफोर्ड की हत्या करने के उद्देश्य से ही मुजफ्फरपुर गए थे लेकिन घटना से उन्हें गहरा आघात लगा कि दो बेगुनाह महिलाओं की जान चली गई। खुदीराम बोस को अभी तक दिनेश चंद्रराय की शहादत का पता नहीं था इसलिए सारी जिम्मेदारी खुद ले ली। 21 मई 1908 को कोर्ट में केस फाइल हुआ। 25 मई 1908 को खुदीराम बोस सेशन कोर्ट में लाए गए। 8 जून को केस की सुनवाई शुरू हुई और 13 जून को फाँसी की सजा का आदेश दे दिया। फांसी की सजा के खिलाफ 6 जुलाई 1949 को हाई कोर्ट में अपील की गई और 13 जुलाई हाई कोर्ट ने मौत की सजा को बरकरार रखा और फांसी की तिथि 11 अगस्त, 1908 मुकर्रर की गई थी। खुदीराम ने अपनी बहन से मिलने की अन्तिम इच्छा व्यक्त की। खुदीराम बोस की मुस्लिम बहन जिसने खुदीराम को अपने घर मैं शरण दी थी वह बहन पर्दे से निकलकर मुजफ्फरपुर पहुंच गई लेकिन उसे खुदीराम बोस से मिलवाया नहीं गया। छोटे भाई को निहारती बहन की आंखों से आँसू टपकते रहे! 11 अगस्त 1908 प्रातः 6 बजे 18 वर्षीय महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर जेल में फांसी के तख्ते पर चढ़ कर वंदेमातरम बोलता हुआ शहादत को प्राप्त हो गया। दुनिया के करोड़ों लोगों को उस महान शहादत से प्रेरणा मिली स्वतंत्रता संग्राम में खुदीराम बोस ने समझौताहीन संघर्ष की नींव का पत्थर गहराई तक उतार दिया था।

गंडक नदी के किनारे पर महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस का दाह संस्कार किया गया, जहां हजारों लोगों ने नम आंखों से उन्हें श्रद्धांजलि दी। नदी का वह किनारा इतिहास का अमिट पन्ना बन गया और वह महान शहीद आजादी आन्दोलन का प्रेरणा स्रोत बन गया।

उनकी शहादत ने उसको इतना लोकप्रिय बना दिया कि जुलाहे एक खास किस्म की धोती बनाने लगे जिसकी किनारी पर शहीद खुदीराम बोस लिखा होता था। नौजवानों में तेजी से ऐसी धोती का प्रचलन आदर्श का प्रतीक बना। महान साहित्यकार शरत चन्द्र चट्‌टोपाध्याय, मुज़फ्फरपुर आते तो गंडक नदी के किनारे शहीद स्थल पर बैठते और खुदीराम बोस को नमन करके नई ऊर्जा और जोश के साथ वापस लौटते थे।

मुंशी प्रेमचन्द की रचना सोजे वतन का प्रकाशन 1908 में हुआ जिसे सरकार ने जब्त कर लिया। प्रेमचन्द ने शहीद खुदीराम की तस्वीर अपने घर में लगाई और पत्नी से कहा- कभी डर जाऊं तो इस महान तस्वीर की ओर इशारा कर देना। आजादी आन्दोलन के महान शहीद अशफाक उल्ला खां ने कहा था कि हम खुदीराम बोस, बाघा जतिन, कन्हैया लाल आदि की जीवनियां पढ़ते थे और ये सारी पुस्तकें जब्त थी। जब बंगाली बमों के बारे मे सुनते थे तो दिल में ख्वाहिश पैदा होती थी कि हम भी खुदीराम बोस, जैसे होते और हम लोग उनको आदर के साथ याद करते थे।

नेता जी सुभाष चन्द्रबोस ने "रावेन्शा कोलेजिएट स्कूल में 11 अगस्त 1909 को खुदीराम बोस का पहला शहादत दिवस पूरे आदर और सम्मान के साथ मनाया। उनके अल्प जीवन से सीख लेकर समझौताहीन संघर्ष की ताकत से देश को आजादी के करीब पहुंचा देने का इतिहास रच दिया। क्रांतिकारियों की शहादतों एवं जन-आन्दोलन के भय से 15 अगस्त 1947 को देश तो आजाद हो गया लेकिन मरणासन्न पूंजीवाद आम जनता को तबाह करने पर उतारू हैं। ऐसे में शरीद खुदीराम बोस के जीवन संघर्ष से सीख लेकर वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना का सपना साकार किया जा सकता है। शहीद खुदीराम बोस अमर रहें।

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