प्रमोद जोशी का विश्लेषण : एटमी खतरे की ओर रूस-यूक्रेन जंग

प्रमोद जोशी
यूक्रेन की लड़ाई अब ऐसे मोड़ पर आ गई है, जहां खतरा है कि कहीं यह एटमी लड़ाई में न बदल जाए। एक तरफ खबरें हैं कि रूस के फौजी-संसाधन बड़ी तेजी से खत्म हो रहे हैं। वहीं रूसी हमलों में तेजी आने की खबरें भी हैं। रूस को क्रीमिया से जोड़ने वाले पुल पर हुए विस्फोट के बाद 10 अक्टूबर को यूक्रेन पर सबसे बड़ा हवाई हमला किया गया। एक के बाद एक कई रूसी मिसाइलों का रुख यूक्रेन की तरफ मुड़ गया। उधर बेलारूस ने भी रूस के पक्ष में युद्ध में कूदने की घोषणा कर दी है। 10 अक्तूबर को बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्जेंडर लुकाशेंको ने कहा, हमें पता लगा है कि बेलारूस पर यूक्रेन हमला करने वाला है, इसलिए हमने अपनी सेना को रूसी सेना के साथ तैनात करने का फैसला किया है। हम रूसी सेना को बेस कैंप बनाने और तैयारी के लिए अपनी जमीन देंगे। पश्चिमी विश्लेषकों का कहना है कि सीधे भिड़ने की बजाय पुतिन बेलारूस के जरिये यूक्रेन पर परमाणु हमला कर सकते हैं। इससे रूस को सीधे हमले का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकेगा। जी-7 देशों को भी ऐसा ही अंदेशा है, इसीलिए जी-7 की इमरजेंसी बैठक के बाद रूस को धमकी दी गई कि अगर यूक्रेन पर रासायनिक, जैविक या न्यूक्लियर हमला हुआ तो रूस को बुरा अंजाम भुगतना पड़ेगा।
नाटो का विस्तार
नाटो ने कहा है कि हम यूक्रेन को हथियारों की मदद जारी रखेंगे और जो कोई भी नाटो से भिड़ेगा उसे देख लिया जाएगा। नाटो के प्रमुख स्टोल्टेनबर्ग ने कहा है कि नाटो अगले हफ्ते न्यूक्लियर ड्रिल करेगा। बेलारूस की सीमा लातविया, लिथुआनिया और पोलैंड से लगती है। तीनों नाटो के सदस्य हैं। इस बीच यूक्रेन ने यूरोपियन यूनियन और नाटो दोनों में शामिल होने के लिए अर्जी दे दी है। बारह सदस्य देशों के साथ शुरू हुए नाटो में शामिल होने के लिए फिनलैंड और स्वीडन की अर्जी मंजूर होने के बाद उनके 31वें और 32वें देश के रूप में शामिल होने की उम्मीदें हैं। अब बोस्निया और हर्जेगोविना, जॉर्जिया और यूक्रेन के भी इसमें शामिल होने के आसार हैं। उधर रूस ने यूक्रेन के चार इलाकों में जनमत संग्रह कराकर उन्हें अपने देश में शामिल करने की घोषणा कर दी है। इन बातों से तनाव घटने की बजाय बढ़ ही रहा है। इतना स्पष्ट है कि लड़ाई उसके अनुमान से कहीं ज्यादा लंबी खिंच गई है। हाल में रूस ने जो लगातार बमबारी की है उससे यही लगता है कि रूस इस युद्ध को और बढ़ाना चाहता है, पर एक बात और बिल्कुल स्पष्ट है कि अंतहीन लड़ाई के लिए अंतहीन संसाधनों की जरूरत होगी। बेशक रूस ने मिसाइलों की बौछार करके अपनी ताकत का प्रदर्शन किया है, पर ऐसा करके उसने अपने संसाधनों को बर्बाद भी किया है। इस संबंध में सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि रूसी हथियारों की सप्लाई कम हो रही है। इस जंग के लंबा खिंचने के कारण रूस में भी असंतोष बढ़ रहा है।
अनिश्चय ही अनिश्चय
इस लड़ाई के पहले यूक्रेन को सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण देश नहीं माना जाता था, पर अब वह यूरोप का फ्रंटलाइन देश बन गया है। इस लड़ाई के कारण ही उसने यूरोप के साथ रिश्ते और बढ़ा लिए हैं। देर-सवेर नाटो अब रूस की सीमा पर आ जाएगा। लड़ाई किस मोड़ पर जाएगी, कहना मुश्किल है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि रूस ने किस लक्ष्य को लेकर लड़ाई शुरू की थी। लड़ाई शुरू होने पर कुछ ही दिनों में ख़त्म हो जाने की उम्मीद थी, लेकिन अब क़रीब आठ महीने हो गए हैं और इसका अंत नज़र नहीं आ रहा। रूस को महाशक्ति के रूप में अपना सम्मान छिनने का पश्चाताप है। पुतिन ने 2014 में क्रीमिया पर कब्जा करके रूस ने ब्लैक सी पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। यहां से वह भूमध्य सागर, पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका तक अपनी सैनिक उपस्थिति बनाए रख सकता है।
दांव पर रसूख
रूस इस बात को स्थापित करना चाहता है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? 2015 में जब रूस ने सीरिया के युद्ध में प्रवेश किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि रूस अब यहां दलदल में फंसकर रह जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि रूस ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को बचा लिया। इससे रूस का रसूख बढ़ा, पर यूक्रेन में उसका रसूख दांव पर है। पुतिन ने 24 फरवरी को यूक्रेन पर सैनिक कार्रवाई की घोषणा करते हुए अपने टीवी संबोधन में जो बातें कहीं, उन पर ध्यान दें, तो पता लगेगा कि उनके मन में कितना गुस्सा भरा है। उन्होंने कहा, हमारी योजना यूक्रेन पर कब्जा करने की नहीं है, पर सोवियत संघ के विघटन ने हमें बताया कि ताकत और इच्छा-शक्ति को लकवा मार जाने के दुष्परिणाम क्या होते हैं। हमने अपना आत्मविश्वास कुछ देर के लिए खोया, जिसके कारण दुनियाभर का शक्ति-संतुलन बिगड़ गया। पुरानी संधियां और समझौते भुला दिए गए। बावजूद इन बातों के यूक्रेन में रूसी रसूख में कमी आई है।
मध्यस्थता की कोशिश
रूस इस बात को स्वीकार रहा है कि उसकी सेना को झटके लगे हैं। बीते कुछ हफ़्तों के दौरान रूस की सेना के हाथों से वे इलाके निकल गए, जिन पर उसने पहले क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने आंशिक लामबंदी की घोषणा की थी। शुक्रवार को पुतिन और तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप इरदुगान (एर्दोगान) की मुलाकात कजाकिस्तान में हुई। एर्दोगान मध्यस्थता का प्रयास कर रहे हैं, पर अभी तक सकारात्मक परिणाम नहीं मिले हैं। इस मध्यस्थता में तुर्की और रूस के कारोबारी हित भी जुड़े हैं। मसले यूरोप को गैस की सप्लाई और शेष विश्व के साथ कारोबार से भी जुड़े हैं। यूक्रेन का कहना है कि अब हम रूस से बात नहीं करेंगे और पुतिन का कहना है कि हम अमेरिका से बात नहीं करेंगे। नवंबर में होने जा रहे जी-20 सम्मेलन के दौरान जो बाइडेन से अलग से मुलाक़ात की संभावनाओं पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में पुतिन ने कहा, हमें उनसे पूछना चाहिए कि क्या वे हमसे बात करना चाहते हैं या नहीं। मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं लगती। इंडोनेशिया में होने वाले इस सम्मेलन में वे शामिल होंगे या नहीं, यह भी नहीं पता। इससे पहले जो बाइडेन ने कहा था कि पुतिन से मिलने का उनका 'कोई इरादा नहीं' है।
भारत पर असर
विश्व बैंक की रिपोर्ट बता रही है कि इस लड़ाई के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार है, वहीं यह भी कहा जा रहा है कि यूरोप की तुलना में रूसी अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन कर रही है। भारत की दृष्टि से इस लड़ाई के दो बड़े निहितार्थ हैं। पहला कोविड-19 के बाद संभलती अर्थव्यवस्था को झटका लगा है और दूसरे इस युद्ध के कारण हमारी विदेश-नीति पर पश्चिम और रूस दोनों के दबाव बढ़े हैं। अमेरिका ने पाकिस्तान-कार्ड फिर से खेलना शुरू कर दिया है। उधर ब्रिटेन की राजनीति में आर्थिक मसलों को लेकर विवाद खड़े होने के कारण भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) को अंतिम रूप देने का दीपावली का लक्ष्य प्रभावित होने का अंदेशा है। भारत के सामने इस समय आर्थिक सवाल सबसे बड़े हैं।
यदि हम आने वाले वर्षों में आठ फीसदी या उससे ज्यादा की संवृद्धि हासिल करने में सफल हुए, तो ही 2047 तक हम एक बड़ी ताकत होंगे, पर उसके पहले का रास्ता चुनौती भरा है। भारतीय विदेश-नीति के लिए यह चुनौती भरा समय है। हमें अपनी स्वतंत्रता कायम करने के लिए दृढ़ता के साथ अपनी बातें कहनी होंगी। भारत के रूस, चीन और अमेरिका के साथ रिश्तों को एक बार फिर से पारिभाषित करने की घड़ी आ रही है। संयोग से आगामी कुछ दिनों में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस होने जा रही है, जिसमें केवल चीन के नेतृत्व का सवाल ही तय नहीं होना है, बल्कि चीनी-व्यवस्था से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मसलों पर फैसले होंगे।
विश्व-व्यवस्था
यूक्रेन की लड़ाई किस मोड़ पर आकर खत्म होगी, कहना मुश्किल है, पर पहले की लड़ाइयों की तरह इसे भी एक दिन खत्म होना होगा। सवाल है उसके बाद क्या होगा? पहली संभावना है कि शीतयुद्ध की वापसी होगी। पिछले तीन दशकों से अमेरिका का जो वर्चस्व दुनिया पर कायम हो गया था, उसे चुनौती मिलेगी। इसके लिए जरूरी होगा कि वैश्विक-व्यवस्था में बदलाव हों। पिछले हफ्ते भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ऑस्ट्रेलिया में कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार मुश्किल कार्य है, लेकिन इसे किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। अगर बिना देर किए सुधारों को अमली-जामा नहीं पहनाया गया तो यह विश्व निकाय 'अप्रासंगिक' बन जाएगा। पिछले महीने संरा महासभा में भी उन्होंने इसी आशय की बातें कही थीं। भारत को जल्द से जल्द सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिलनी चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि आने वाले वर्षों में भारत विश्व-व्यवस्था का महत्वपूर्ण भागीदार देश बनकर उभरेगा, पर उसके पहले यूक्रेन की इस लड़ाई को खत्म कराने में अपनी भूमिका भी निभानी होगी।
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