सीताराम व्यास का लेख : समरसता के युग नायक थे संत गाडगे

सीताराम व्यास
महाराष्ट्र में सिद्ध-संतों, युगनायकों की समृद्ध परंपरा रही है। इन संतों ने समाज को दिशा दी है। विदर्भ में जन्मे संत गाडगे भी युगनायकों में से एक थे, जिन्होंने स्वच्छता और समरसता के क्षेत्र मे समाज प्रबोधन का कार्य किया। गाडगे बाबा ने झाड़ू लेकर तीर्थस्थानों और मेलों में स्वच्छता अभियान चलाया। वे गांव गांव भ्रमण करते रहते थे। हरि कीर्तनों से पशुबलि, जात-पात, दहेज जैसी कुरीतियों के जालों को नष्ट करते रहते थे। उन्होंने सामाजिक जीवन की मैली गंगा को हरिकीर्तन के जरियेे शुद्ध करने का आन्दोलन चलाया। संत गाडगे बाबा आधुनिक भारत के भविष्य दृष्टा थे। गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी 1876 को अमरावती जिले के रोडगांव के धोबी परिवार में हुआ था। विदर्भ में धोबी को वट्टी कहते हैं। इनके पिता का नाम झिंगराजी और माता का नाम सखूबाई था। पिता झिंगराजी शराब के नशे में चूर रहते थे। उनका जल्द ही निधन हो गया।
संत गाडगे बाबा को बचपन में डेबूजी के नाम से पुकारते थे। डेबू का बचपन मामा के खेतों में मेहनत करके, पशुओं को चराने, भगवान का भजन करते हुए बीता। पन्द्रह साल की उम्र में डेबूजी का विवाह हुआ। एक बार डेबूजी के मामा चन्द्रभान के खेत पर कब्जा करने तिडके नामक साहूकार आया। मामा चन्द्रभान ने खेती के लिए कर्ज लिया था, पर कर्ज चुका न सका। साहूकार तिडके दलबल सहित खेत पर कब्जा करने आया। मारपीट भी हुई पर डेबूजी के रूद्रावतार रूप को देखकर गुंडे भाग गए। डेबूजी का अंधश्रद्धा, पशुबलि आदि पर विश्वास नहीं था। अपनी पुत्री के नामकरण संस्कार के अवसर पर पशुबलि न देकर लड्डू वितरित किए। डेबूजी का गृहस्थ जीवन में मन नहीं लगा। उनका मन गंदगी के ढेर देखकर, अन्धविश्वास जात-पात का भेद, अज्ञान आदि काे देखकर बेचैन हो उठा था। ऐसे समय में डेबूजी की भेंट एक योगी पुरुष से हुई। कुछ समय उन्होंने योगी के साथ व्यतीत किया। फरवरी 1905 को गाडगे बाबा ने शरीर पर एक वस्त्र पहने, हाथ में लाठी व मिट्टी का घड़ा लेकर सिद्धार्थ की तरह गृह त्याग किया।
सारे महाराष्ट्र की पैदल यात्रा करते हुए समाज दर्शन किया। डेबूजी ने दीन-हीन मरणासन्न बन्धुओं का जीवन पशुओं से बदतर व्यतीत करते देखा। अस्पृश्यता से ग्रस्त वंचित समाज भेदभाव की दाहकता को सहन कर रहा था। लोग डेबूजी के वेश को देखकर पागल समझते थे। उनको कहां जाना, क्या करना कोई निश्चित नहीं था। फटे कपड़े, एक पैर में चप्पल तो दूसरे में जूता पहनकर घूमते रहते थे। अपनी मौज में भटकते हुए लकड़ी वाले से लकड़ी मांगते। वह पूछता क्या करेगा लकड़ी लेकर? डेबूजी कहते 'खाना पकाऊंगा'। किस पर पकाओगे? डेबूजी का उत्तर होता 'धोती पर'। डेबूजी ने समाज दर्शन यात्रा में जातिभेद क्या होता है यह जाना। एक घूंट पानी के लिए वंचितों को लोग किस कदर पीटते थे। रूढ़िवादी लोग मनुष्य से अधिक पत्थर की मूर्ति को महत्व देते थे। डेबूजी ने दु:ख क्या है? वेदना क्या है? यह सब दृश्य देखा। डेबूजी ने पैदल यात्रा कर दृश्यानूभूति से सामाजिक कुरीतियों का कारण तलाशने का प्रयास किया। अब डेबूजी करुणा मूर्ति संत गाडगे बाबा के नाम से जाने जाने लगे। संत गाडगे बाबा निर्लेप भाव से सेवा कार्य में जुट गए। सर्वप्रथम बाबा हाथ में झाड़ू लेकर ऋणमोचन मेले में आकर स्वच्छता का काम किया। इस मेले में उनकी माता सखूबाई भी आई थी। अपने बेटे का हाथ पकड़कर कहा कि घर चलो। गाडगे बाबा ने मां से कहा मैं दु:खी मानव की सेवा में जीवन लगा रहा हूं। मेरा शरीर भक्ति और दीन दुखियों के लिए समर्पित है। यह कह कर गाडगे बाबा चल दिए।
गाडगे बाबा ने 1908 में पूर्णा नदी पर घाट बांधकर सेवा कार्य शुरू किया। बाबा की ख्याति चारों तरफ फैलने लगी। 1917 तक गाडगे बाबा ने बारह वर्ष समाज सुधार और स्वच्छता अभियान में लगाए। उन्होंने समाज प्रबोधन का सरल उपाय ढूंढ निकाला। वे हरिकीर्तन के जरिये समाज जागरण करने लगे। बाबा कीर्तन के साथ-समाज के दोषों का सरल ढंग से उदाहरण देकर कहते जाते। बाबा धीरे-धीरे श्रोताओं को कीर्तन की भाव धारा में सम्मिलित कर लेते थे। फिर संवाद द्वारा समाज दोषों का बोध कराते। छूआछूत पर संवाद इस प्रकार होता- बोलो छूआछूत कहां से पैदा हुआ? फिर कहते 'छुओगे' घटिया शब्द है। समाज की कुरीतियों का चित्रण संवाद से होता था। उसका उदाहरण-तुम कौन हो? अर्थात जाति पूछना जिसमें अहंकार है वह जाति पूछता है कि तुम कौन हो? जो पूछने वाला सामने वाले जैसा ही है या नहीं? हां है। 'इसके चार हाथ उसके डेढ़ हैं क्या? फिर तुम जाति क्यों पूछते हो? अगर तुम्हें कोई पूछे कि कौन जाति है। तो बताओ मनुष्य हूं। तुम्हारा हमारा आकाश एक है या दो। इस प्रकार समाज में आये दोषों का परिमार्जन कीर्तन के माध्यम से करते रहते थे।
पढ़रपुर में आषाढ़ और कार्तिक एकादशी को दर्शनार्थियों की भीड़ होती थी। वहां बाबा अस्वच्छता और अव्यवस्था देखकर झाडू लेकर सफाई करनेे लगे। उन्होंने पढ़रपुर में चोखामेला धर्मशाला सन 1948 में बनवाकर डा. अंबेडकर द्वारा लोकार्पण करवाया। डा. अंबेडकर गाडगे बाबा के प्रति अत्यन्त श्रद्धा रखते थे। डा. अंबेडकर मुंबई में गाडगे बाबा से मिलने आए। बाबा साहब हाथ जोड़कर गाडगे से बोले 'बाबा आप मेरे गुरु हैं। आपसे महत्वपूर्ण विषय पर सलाह चाहिए। गाडगे बाबा बोले मैं ठहरा अनाड़ी, मेरी समझ के अनुसार कहंूगा। मैंने हिन्दू धर्म छोड़कर दूसरा धर्म स्वीकार करने का निश्चय किया है। गाडगे बोले- देखिये सारा दलित समाज आपके साथ है। आप जो रास्ता दिखाएंगे उसी रास्ते से ये सभी लोग जाएंगे। उन्हें गलत रास्ते पर मत ले जाइए। 'क्या करूं' उसका निर्णय आप करें। मैं इतना ही कहता हूं कि दो बातों से दूर रहिये। 'कौन सी' क्रिश्चियन धर्म में मत जाना उससे हमारे देश को धोखा होगा और इस्लाम धर्म में मत जाना। उसमें सत्यानाश होगा। बस मैं जाता हूं। डा.अंबेडकर विनम्र होकर बोले 'बाबा आपकी आज्ञा पालन करूंगा।
मैं बौद्ध धर्म में प्रवेश करूंगा। नागपुर में दीक्षा विधि होगी। आशीर्वाद दीजिए। गाडगे बाबा उठ खड़े हुए-बिना एक शब्द कहे निकल गये। गाडगे बाबा ने डा.अंबेडकर को सरल भाषा में राष्ट्र हित का मार्ग दिखाया। गाडगे बाबा का निधन 20 दिसम्बर 1956 को हुआ। बाबा ने स्वच्छता और समरसता का सन्देश जन-जन तक पहुंचाया। आज बाबा का कार्य संघ सामाजिक समरसता गतिविधि के द्वारा पूर्ण कर रहा है। संतों ने भी 'हिन्दव सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत्ा। मम दीक्षा हिन्दूरक्षा, मम मंत्र समानता।। का सन्देश देते हुए भेदभाव का उन्मूलन का जागरण किया है। हिन्दू समाज के नवोत्थान में स्वामीनारायण सम्प्रदाय, गायत्री परिवार एवं श्री श्री रविशंकर के अनुयायी कार्य कर रहे हैं। वह समय दूर नहीं जब हमारा देश जातिगत भेदभाव के दंश से मुक्त होकर स्वच्छ समरस, संगठित राष्ट्र के रूप में खड़ा दिखाई देगा। स्व.संत गाडगे बाबा का अधूरा स्वप्न पूरा होगा। हम गाडगे बाबा की जयंती से प्रेरणा लेकर उनके कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लें।
( लेखक चिंतक व विचारक हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )
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