अरुण कुमार कैहरबा का लेख : मध्यकाल के समाज सुधारक और विचारक थे संत रविदास

अरुण कुमार कैहरबा का लेख : मध्यकाल के समाज सुधारक और विचारक थे संत रविदास
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गुरु रैदास राजनीतिक चेतना से भी सम्पन्न थे। वे जानते थे कि दलित-वंचित लोगों के सशक्तिकरण के लिए शिक्षा के जरिये सत्ता के दरवाजे खुल सकते हैं। उन्होंने लोगों को शिक्षित होने की अपील की और साथ ही ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की परिकल्पना पेश की, जिसमें सबको बराबर मौके मिलेंगे। वे मध्यकाल के ऐसे संत समाजसुधारक व विचारक हैं, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी काव्य में सामाजिक बुराइयों का जोरदार विरोध किया और समतामूलक सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था की परिकल्पना प्रस्तुत की। उनके काव्य में उनके राजनीतिक-सामाजिक दर्शन की झलक पेश करता है। संभवत: बराबरी पर आधारित राज की मांग उठाने वाले वे पहले कार्यकर्ता हैं।

अरुण कुमार कैहरबा

संत रैदास के नाम से जाने जाने वाले गुरु रविदास मध्यकाल के ऐसे संत समाजसुधारक व विचारक हैं, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी काव्य में सामाजिक बुराइयों का जोरदार विरोध किया और समतामूलक सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था की परिकल्पना प्रस्तुत की। 'ऐसा चाहूं राज मैं, मिलै सबन को अन्न। छोट-बड़े सब सम बसैं रैदास रहै प्रसन्न।।'

संत कवि गुरु रविदास का यह दोहा उनके राजनीतिक-सामाजिक दर्शन की झलक पेश करता है। संभवत: बराबरी पर आधारित राज की इस तरह से मांग उठाने वाले वे पहले कार्यकर्ता हैं। उनके भीतर जाति को लेकर कोई कुंठा देखने को नहीं मिलती। राजसी परिवार की मीरा रविदास को अपना गुरु स्वीकार करके उनके ऊर्जावान, विचारवान व गतिवान व्यक्तित्व को स्वीकार करती है। गुरु रविदास के जीवन की बहुत सी प्रामाणिक जानकारियां नहीं मिल पाती हैं, लेकिन बहुत सी जानकारियों के बारे में विद्वानों में ज्यादा मतभेद नहीं है। काशी नगरी में जीटी रोड की पूर्वी दिशा में कुछ दूरी पर गोवर्धनपुर और सीरपुर गांव के आसपास कहीं चमड़े से जूतियां तैयार करने वाले प्रसिद्ध कारीगर रघु और कर्मा के घर में चौदहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में रविदास का जन्म हुआ। रघु अपने गांव व आस-पास में अपनी जाति के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। कर्मा सिलाई, कढ़ाई व कशीदाकारी के काम में दक्ष थी। परिवार में कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो 11 साल से परिवार ने संतान का सुख नहीं देखा था। एक दिन जूतियां बेचकर जाते हुए रघु सारनाथ जा पहुंचे। मा. चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु के अनुसार संत भिक्खु रैवत प्रज्ञ के साथ उनकी भेंट हुई। उन्होंने रघु व कर्मा के सेवाभाव से प्रभावित होकर उन्हें दवाई की पुड़िया दी। उनके आशीर्वाद से उन्हीं के नाम पर बच्चे का नाम रैवतदास रखा गया।

बाद में यह नाम रविदास और रैदास हो गया। कुछ विद्वानों का यह मत भी है कि उनका जन्म रविवार को हुआ था, इसलिए रविदास नाम रखा गया। कहा जाता है कि काशीपुरी में नाथ पंथ के साधुओं की एक पाठशाला थी, जहां रविदास को पढ़ने का मौका मिला। रघु जी ने बालक को जूतियां बनाने का काम सिखाया। थोड़े ही समय में वे अच्छे कारीगर बन गए और सुंदर जूतियां बनाने लगे। रविदास को साधु-संतों व पीरों-फकीरों की सोहबत और ज्ञान-चर्चा द्वारा सीखने का शौक लग गया था। जिस कारण अपने काम पर वे कम बैठते थे और यदि बैठते भी थे तो ज्ञान चर्चा में लगे रहते। बेबाक ढंग से सच का साथ, सामाजिक विषमताओं व जाति व्यवस्था के भेदभाव पर चोट करने के कारण उनसे परेशान लोग पिता को शिकायत करते। पिता ने शिकायतों से तंग आकर 14 वर्ष की आयु में रविदास का लोना नाम की कन्या के साथ विवाह कर दिया। 16 वर्ष की अवस्था में उसका गवना करा दिया।

इसके छह महीने बाद ही दोनों को खुद कमाने-खाने का संदेश देते हुए घर से निकाल दिया। जब वे 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' कहते हैं तो वे तीर्थ स्नान आदि के स्थान पर अपने औजारों और काम की वस्तुओं को ही श्रेष्ठ बताते हैं। खाली हाथ निकले रविदास और लोना ने घर से बहुत दूर गंगा किनारे झोंपड़ी बनाई और जूतियों के हुनर से मेहनत करके कमाने-खाने लगे। पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा भीख मांगे। रविदास ने आजीवन भीख नहीं मांगी। परिश्रम की कमाई खाना और परमार्थ साधन करना उनके जीवन का महत्वपूर्ण काम था। उन्होंने अपनी मेहनत से लोगों पर अमिट छाप छोड़ी। उनकी जूतियों के पूरे क्षेत्र में चर्चे होने लगे। जो उनसे एक बार जूतियां खरीदता वह सदा के लिए उनका ग्राहक बन जाता। साथ ही सत्संग सुनने के लिए भी बड़े-बड़े लोग उनके पास आने लगे। रविदास व लोना की श्रमशीलता, सत्यनिष्ठा और सदाचार के कारण घास-फूस की झोंपड़ी थोड़े समय में ही मिट्टी के कच्चे मकान में बदल गई। हर प्रकार के लोभ लालच से वे दूर थे। मेहनत की कमाई तथा गरीबी के बावजूद दूसरों की मदद करके प्रसन्न रहते थे।

अपने काव्य में भी रविदास ने श्रम की प्रतिष्ठा को स्थापित किया। रविदास संत कबीर व गुरु नानक के समकालीन थे। कबीर और रैदास तो काशी के आसपास रहते थे, जिससे दोनों में विचार-विमर्श होता था। दोनों के विचारों में भी काफी हद तक समानता देखने को मिलती है। गुरु नानक ने पंजाब के अतिरिक्त प्राचीन भारत की चारों दिशाओं में भ्रमण किया। बताते हैं कि काशी में अपनी यात्रा के दौरान वे रविदास से मिले और दोनों ने दलितों की दयनीय दशा पर चर्चा की। कवि व संत रविदास के सपनों के समाज पर चर्चा करना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। वे अपनी कविता में ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जो छोटे-बड़े के भेदभाव से मुक्त हो। अंधविश्वास, रूढि़वादिता, पाखंड समाप्त हो। न्याय व समानता का राज हो। जात-पात के आधार पर होने वाले भेदभाव को नंगा करते हुए उन्होंने कहा- 'जात पात के फेर में उलझ गए सब लोग। मानवता को खात है रैदास जात का रोग।।' जाति की जटिल संरचनाओं को उद्घाटित करते हुए उन्होंने कहा- 'जात-जात मैं जात है ज्यों केलन में पात। रैदास ना मानुष जुड़ सकै ज्यौं लग जात ना जात।।' रैदास के काव्य में मानवता को टुकड़ों में बांटने वाले लोगों के प्रति आक्रोश है और वे इसे तार्किक ढंग से लोगों को समझाते हैं-'एक माटी के सब भांडै एकही सबका सिरजनहारा। रैदास व्यापै भीतर एक घट एक ही कुम्हारा।। रविदास उपजे एक बूंद तै का बामन का सूद। मूरख जन ना जानई सबमैं राम मौजूद।। उन्होंने जाति की बजाय अच्छे गुणों से मनुष्य की पहचान करने का संदेश देते हुए कहा- 'रविदास बामण मत पूजिये, जो होवे गुन हीन। पूजिऐ चरन चंडाल के, जऊ होवे गुन परवीन।' रविदास ने भगवान का नाम लेकर भी लोगों को बांटने और एकता को समाप्त करने की साजिशों का पर्दाफाश किया और अलग-अलग नाम से एक ही भगवान होने का संदेश देते हुए हिन्दू-मुसलमान को एक होने की बात कही।

रैदास की प्रसिद्धि से परेशान कुछ लोगों ने दिल्ली के राजा सिकंदर लोदी से उनकी शिकायत की। लोदी ने रैदास को गिरफ्तार करवा दिल्ली दरबार में बुला लिया। बताते हैं कि वहां लोदी के साथ रैदास जी की बातचीत हुई। रैदास ने बेबाकी से अपने राजनीतिक, सामाजिक विचार उनके सामने रखे। उनके विचारों से लोदी प्रभावित हुआ और उन्हें रिहा कर दिया। गुरु रैदास राजनीतिक चेतना से भी सम्पन्न थे। वे जानते थे कि दलित-वंचित लोगों के सशक्तिकरण के लिए शिक्षा के जरिये सत्ता के दरवाजे खुल सकते हैं। उन्होंने लोगों को शिक्षित होने की अपील की और साथ ही ऐसी राजनैतिक व्यवस्था की परिकल्पना पेश की, जिसमें सबको बराबर मौके मिलेंगे। आज उनकी जयंती पर हम जाति मुक्त, भेदभाव मुक्त समता व समानता पर आधारित समाज की स्थापना का संकल्प लें और इस दिशा में काम करें तो संत रविदास के सपनों का भारत बन सकेगा।

( ये लेखक के अपने विचार हैं। )

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