आबादी का सैलाब और सवालों के अपशगुन

आबादी का सैलाब और सवालों के अपशगुन
X
आखिर दुनिया देखती रह गई और हम सबसे आगे हो गए। जी हां! यदि जनसंख्या की बेशुमार बढ़ती को विकास का पर्याय मान लिया जाए तो हमने यह सेहरा अपने सर पर बांध लिया है। बीते दिनों यूएनएफपीए यानी संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड की रपट के अनुसार भारत की जनसंख्या 142 करोड़ 86 लाख हो गई है।

रिचा मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार

आखिर दुनिया देखती रह गई और हम सबसे आगे हो गए। जी हां! यदि जनसंख्या की बेशुमार बढ़ती को विकास का पर्याय मान लिया जाए तो हमने यह सेहरा अपने सर पर बांध लिया है। बीते दिनों यूएनएफपीए यानी संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड की रपट के अनुसार भारत की जनसंख्या 142 करोड़ 86 लाख हो गई है।आश्चर्य है कि इस कथित उपलब्धि पर न तो जिम्मेदार और जागरूक प्रतिपक्ष के किसी नेता का बयान आया है न ही वर्तमान सत्ता के नियामकों ने इस पर अपनी कोई टिप्पणी दी है। हां, कुछ हास्यास्पद जुमले जरूर कहे जा रहे हैं। बहरहाल, इस बात पर प्रसन्न तो नहीं हुआ जा सकता है क्योंकि आबादी की इस दौड़ में प्रथम होने के साथ-साथ ही समूचे देश में भयावह चुनौतियों की आमद हो सकती है।

समाजशास्त्री भी इसे मानते आए हैं कि जनसंख्या के अबाध गति से बढ़ने का कारण अशिक्षा और गरीबी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश की आबादी का एक हिस्सा जनसंख्या के घटने या बढ़ने के परिणामों से अनजान है। गौरतलब है कि सन् 1941 के अविभाजित भारत में आबादी कुल 39 करोड़ थी जिसमें मौजूदा पाकिस्तान और बांग्लादेश की आबादी भी शामिल है। आजादी के बाद 1951 में नए सिरे से गणना होने के उपरांत भारत की जनसंख्या 36 करोड़ आंकी गई थी जबकि अमेरिका की वर्तमान आबादी 35 करोड़ है । जनसंख्या में अंतर के महत्व को अमेरिका की आर्थिक समृद्धि और वैश्विक महाशक्ति की उसकी छवि के रूप में देखा जा सकता है।

जनसंख्या के प्राकृतिक बँटवारे की बात करें तो आबादी का यह वितरण कुछ मूलभूत बिंदुओं के आधार पर काफी हद तक प्रकृति ही तय कर देती है। जैसे: समशीतोष्ण जलवायु, साधनों की सहज उपलब्धता, राजनीतिक परिवेश, बेहतर जीवन स्तर। मानव को जहां कहीं भी इन सभी तत्वों की सहज उपलब्धता होती है, वह वहीं बस जाता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से अत्यधिक ठंडी और अत्यधिक गर्मी वाले स्थानों में प्राय: जनसंख्या कम होती है। यह बात जानवरों, पशु पक्षियों पर भी लागू होती है। यही वजह है कि किसी जगह पर जानवरों का अच्छा समुदाय देखने को मिलता है और कहीं पर लगभग खाली स्थान, परंतु जनसंख्या का यह असमान वितरण आज के समय में पूरी तरह प्रकृति प्रदत्त नहीं रहा, क्योंकि मनुष्य ने प्रकृति की इस असमानता को पाटने का काम न कर इसे दुगनी गति से और बढ़ाने का दुस्साहस किया है।

इस बात से इंकार नहीं किया सकता कि एक समय, दुनिया भर में भारत अपनी जलवायु, खनिजों की भरमार, पर्यावरण, प्राकृतिक साधनों से लबालब होने की वजह से निराला और सुंदर देश रहा है इसलिए यहां भिन्न-भिन्न जाति, समूहों और वर्गों ने अपनी-अपनी संस्कृतियों के पालन- पोषण और संवर्धन के बाद भी सामंजस्य का सौंदर्य दिखाया है लेकिन यही सब विशेषताएं अब जनसंख्या जैसी परेशानियों की जड़ बन गई है। लोगों की बेशुमार भीड़ और उस भीड़ द्वारा प्रकृति के दोहन ने तमाम ज्वलंत सवाल खड़े कर दिए हैं।

वाशिंगटन डीसी के थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर का अनुमान है कि 22 वीं सदी के आरंभ तक यानी 77 वर्ष बाद चीन की आबादी घटकर 76 करोड़ रह जाएगी जो नाइजीरिया जैसे देश से भी कम होगी वहीं भारत की आबादी लगातार बढ़कर 1.668 बिलियन हो सकती है। कुछ कथित बुद्धिजीवियों का कहना है कि चीन की जनसंख्या घटने के कारण भारत की जनसंख्या बढ़ी हुई दिखाई पड़ रही है। यह सोच ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह है जो रेत में अपना सर दबाकर इस भ्रम में रहता है कि खतरा टल गया है।

बताते चलें कि हमारे देश में प्रत्येक 10 वर्ष में जनगणना का प्रावधान है परंतु 2011 के पश्चात् यह कवायद अभी तक नहीं हो सकी है। 2019-20 में होने वाली जनगणना यदि महामारी covid के कारण रोकी भी गई तो अब ऐसे कौन से कारण हैं जिस वजह से सरकार को जनगणना कराने में देरी हो रही है। जनगणना न सिर्फ़ आंकड़े उपलब्ध कराती है बल्कि देश के विकास के नीति निर्माण में भी अहम भूमिका अदा करती है। भले ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी जनसंख्या के यह आंकड़े पूर्णतया अनुमान पर आधारित हों लेकिन बढ़ती हुई आबादी हम सबकी राष्ट्रीय चिंता का विषय होना ही चाहिए।

यह समझना ज़रूरी है कि जनसंख्या वृद्धि का संबंध अशिक्षा के साथ जन्म और मृत्यु दर के असंतुलन से भी है । 1950 में 1000 व्यक्तियों पर 22 लोगों की मृत्यु का आंकड़ा पाया गया वहीं 2020 में यह कम होकर 7.4 पर पहुंच गया वर्तमान समय के आंकड़े साफ इशारा करते हैं कि जन्म दर की गति वही है पर मृत्यु दर में कमी आई है। इस असंतुलन का एक कारण जन्म दर का प्रतिस्थापन दर से अधिक होना भी है। प्रतिस्थापन यानी रिप्लेसमेंट रेट अर्थात यह सुनिश्चित करना कि एक समय में जितने लोगों की मृत्यु होती है उन लोगों को प्रतिस्थापित करने के लिए कितने बच्चे जन्म लेंगे। यह संभव होता है जनसंख्या नियंत्रण की योजना से जो शायद हमारे देश में किसी भी सरकार के एजेंडे का प्राथमिक मुद्दा तो कभी नहीं रहा।

जनसंख्या में ताबड़तोड़ वृद्धि किसी भी देश के विकास के लिए शुभसंकेत तो नहीं हो सकता किंतु यदि इसके कुछ सकारात्मक पहलू हो सकते हैं तो वह है बाहरी कंपनियों का भारत में ज्यादा से ज्यादा निवेश जो जनता के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएगा किंतु अंतत: यह भी स्थाई समाधान नहीं है। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि सबसे अधिक आबादी वाला देश यूएनएससी यानी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी स्थायी सदस्यता का दावा भी कर सकता है किंतु यह तो अधिक खतरनाक स्थिति है, यदि सभी देश इस होड़ में लग गए तो उस भयावह परिणाम की संभावना को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।

आंकड़ों की मानें तो भारत में आबादी का 68% युवा वर्ग का है। इस जनसांख्यकीय लाभ से उत्पादन में बढ़ोतरी होगी और भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है। लेकिन बढ़ती आबादी के नकारात्मक पक्ष ज्यादा गंभीर और मानव जीवन पर कुप्रभाव डालने वाले हैं। खुद सरकार के लिए आमजन को मूलभूत सुविधाएं जैसे रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराना बेहद कठिन काम होगा। अगर इसी गति से हम बढ़ते रहे तो जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और अमूल्य निधि, जल की भारी कमी होना भी सुनिश्चित है।

देश का पर्यावरण अभी भी कम खतरे में नहीं है, ऐसे में जंगलों का कटना, नदियों का सूखना, हवा का प्रदूषित होना, प्रकृति का पल-पल रिसाव एक दिन बढ़ती मनुष्य जाति के लिए बड़ा खतरा बन सकता है। सीमित खनिजों का खात्मा और धरती के बंजर होने की आशंका एक अंधेरे भविष्य की ओर इशारा करती है। लेकिन देखा गया है कि जनसंख्या का विकास और उसके समुचित नियंत्रण के विषय पर कोई भी सरकार गंभीर पहल नहीं कर पाई है। जबकि किसी भी देश के विकास के आयाम की सीढ़ी का पहला कदम यहीं से आरंभ होता है। इसलिए समय रहते आने वाले खतरे की आहट को भांपकर हमें एक दृढ़ नीति बनानी चाहिए। दुष्यंत जी की माने तो जनसंख्या की इस बढ़ोतरी को इस आशंका में सुना जाना चाहिए कि : " बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं और नदियों के किनारे घर बने हैं।"

Tags

Next Story