कर्नाटक: उल्टी हो गई सब तदबीरें

रिचा मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली की महानगरपालिका और हिमाचल हारने के बाद अब कर्नाटक की पराजय केंद्र में सत्तारूढ़ और विश्व की कथित सबसे बड़ी पार्टी की तीसरी हार है। कहने को तो गुजरात और इससे भी अधिक आत्मसंतोष पाने का मामला हो तो उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय के चुनाव आधार हो सकते हैं जिन्हें ध्यान कर संतोष की सांस ली जा सकती है। पर सिर्फ संतोष इससे अधिक नहीं। जबकि भाजपा 1914 में जिस विजय यात्रा को लेकर निकली थी और शिखर नेतृत्वकर्ता "ये दिल मांगे मोर" के लहजे में बढ़े थे उससे हर किसी को लगता था कि जल्द ही वह दिन आएगा जब वास्तव में देश कांग्रेस विहीन हो जाएगा और लोग इस उत्तेजक गीत पर थिरकते नज़र आएंगे - "ये भगवा रंग, रंग, रंग जिसे देख जमाना हो गया दंग"। किंतु यह न हो सका और न दुनिया उस चमत्कार को देखकर दंग हो सकी।
यह दुर्भाग्य ही समझा जाना चाहिए कि एक पढ़े-लिखे विश्व समाज में और दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र में कोई दल किसी रंग, किसी जाति, पंथ या प्रतीक पर अपना कॉपीराइट-अपना स्वामित्व जताने की कोशिश करे। ठीक वैसे ही जैसे बजरंगबली भी न तो किसी बजरंग दल के पर्याय हैं और ना ही उन पर किसी का स्वामित्व है। दुनिया भर के सनातनी आस्तिकों के लिए के पूज्य आराध्य और श्रद्धेय हैं। कैसी विडंबना है कि हिंदू मिथ के एक ऐसे श्रेष्ठ पौराणिक चरित्र को जो मानव मात्र के लिए सत्य, न्याय, सेवा, समर्पण, मित्रता और दास आदि गुणों का पूंजीभूत आदर्श हो उसे राजनीतिक रोटी सेंकने का माध्यम बनाने का असफल और भौंड़ा प्रयास किया गया। निःसंदेह जनगण की उस समझ को धन्यवाद कहा जाना चाहिए जिसने बजरंगबली और बजरंग दल के आकाश-पाताल जैसे फ़र्क को समझा और धार्मिक प्रतीकों और पात्रों के राजनीतिक इस्तेमाल को अब और आगे न जारी रखने के लिए साफ़-साफ़ वॉर्निंग दे दी। अब यह आप पर है कि आप इस चेतावनी पर कान देते हैं या नहीं।
लोगों को हैरानी तो तब भी हुई थी जब कर्नाटक में एक दशक पहले जो येदुरप्पा करोड़ों के भ्रष्टाचार के साक्षात प्रतीक बनकर उभरे थे, उन्हें चाल, चरित्र-चिंतन और पार्टी 'विथ ए डिफ़रेंस' का दावा करने वाली भाजपा ने गले लगा लिया था, यही नहीं आगे चलकर उन्हें उस सूबे का मुख्यमंत्री और अपना सिपहसालार बना लिया। माना कि युद्ध और प्यार में सब जायज़ है, के अनैतिक सिद्धांत के आधार पर इसे उस समय की भारी भरकम कांग्रेस के किले को ढहाने का एक आपद् धर्म माना गया, किंतु आश्चर्य तो यह है कि उस आपद् धर्म को भाजपा ने अपनी मूल पहचान और प्रमुख रणनीति बना लिया। बीते सालों से सत्ता में बैठे अपने लोगों को जनता की गाढ़ी कमाई का चालीस प्रतिशत गप्प कर जाने की खुली छूट दे दी। यदि नहीं तो चुनाव में छा गए इस मुद्दे का समय रहते दिखाने के लिए ही सही-कोई उपचार क्यों नहीं किया गया। उल्टे चुनाव के चंद रोज़ पहले सत्ता और संगठन के सर्वेसर्वा और अब भाजपा के प्रतीक पुरुष श्री मोदी कर्नाटक के एक दूसरे परम भ्रष्टाचारी नेता से स्वयं फोन पर मुखातिब होकर चुनाव में सहयोग के लिए चिरौरी करते वायरल हो रहे हैं।
कभी समूचे देश में एक क्षत्र राज्य करने वाली कांग्रेस यदि आज दो-तीन राज्यों में सिमटकर रह गई है और उसे अपने ज़िंदा होने का सबूत देने के लिए उन राज्यों के नाम गिनाने पड़ रहे हैं तो इसके कारण उसकी कारगुजारियों में ही मौजूद हैं। जिसमें एक बहुत बड़ा कारण उसकी कार्यप्रणाली में व्यापक भ्रष्टाचार की व्याप्ति थी। जिसकी स्वीकारोक्ति उस समय के गैर राजनीतिक स्वभाव के आकस्मिक तौर पर बने प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने यह कहकर की थी कि दिल्ली से चला एक रुपया हितग्राही के पास बीस पैसा बनकर ही पहुंच पाता है। जनता ने भारतीय जनता पार्टी का जिस एक प्रमुख आशा और विश्वास से राजतिलक किया था वह था- भ्रष्टाचार मुक्त भारत और आज वही पार्टी यदि कर्नाटक जैसे अपेक्षाकृत पढ़े-लिखे राज्य में सत्ता के निर्लज्ज भ्रष्टाचारी वहाब का जिक्र भी नहीं करना चाहती तो इसका अर्थ है आप जनता की व्यवहारिक समस्याओं को अनदेखा करते हुए, उनके दुख-सुख की चिंता किए बगैर, उनके आर्थिक स्तर को समुन्नत करने के बजाय, बढ़ती बेतहाशा महंगाई, बेरोजगारी, महंगी होती शिक्षा और आम आदमी के लिए लगभग दुर्लभ होती स्वास्थ्य सेवाओं यानी मानव विकास के रास्ते को अवरुद्ध कर कुछ आज़माए हुए और संयोग से सफल हुए नुस्खों को बार-बार आज़मा कर सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं।
चुनाव की वही आक्रामक शैली जिसमें हर चुनाव को सत्ताधारी दल अपनी प्रतिष्ठा और जीने-मरने का सवाल बना लेती है। वही युद्ध भूमि की शैली जिसमें कार्यकर्ताओं को वोट के लिए 'करो या मरो' का संदेश दिया जाता है, वही युद्ध के बाद सत्ता में वाजिब- ग़ैर वाजिब हक के बंटवारे का आश्वासन- 'तुम हमें सत्ता दिलाओ, हम तुम्हें सत्ता की चाशनी छकाएंगे'। और रणभेरी बज उठती है।
देश की राजधानी छोड़कर सत्ता और संगठन संबंधित लोग चुनाव भूमि में डट जाते हैं। बीस-बीस किलोमीटर के रोड शो आयोजित किए जाते हैं। पूरा अंचल अघोषित सैन्य छावनी में बदल जाता है, जनजीवन का सामान्य संचालन ठप्प पड़ जाता है, लोग एक अनहोनी आशंका से घिरकर शांति पूर्वक वोट पड़ जाने तक का एक-एक पल काटते है। गला फाड़ फाड़ कर ध्वनि विस्तारक यंत्रों से सत्ता के नशे में अजीब अजीब तकरीरे की जाती हैं। फिर चाहे उन दिनों देश का सीमांत और संवेदनशील प्रांत मणिपुर जल रहा हो या राजधानी में वाजिब प्रश्नों को लेकर देश का गौरव बढ़ाने वाली बेटियां न्याय की आशा में टुकुर-टुकुर अपने अभिभावक प्रधानमंत्री की ओर निहार रहीं हों तो क्या फर्क पड़ता है। फर्क पड़ता है- यह संचार क्रांति का दौर है। सूचना संसाधनों और सोचने समझने का दौर है। लोगों के मनों में उठने वाले सवाल स्वभावतः सत्ता के शिखर में बैठे आत्ममुग्ध बादशाहों और उनके वज़ीरों को चाहे न सुनाई पड़ें अथवा सुनते हुए भी वे सवाल अनसुने किए जाएं किंतु ये सवाल मरते नहीं हैं वे अपना जवाब मांगते हैं और ये जवाब हमेशा राष्ट्र धर्म, जाति, वर्ग और वर्ण-भेद को सामने कर इनकी आड़ में नहीं दिए जा सकते। प्रश्न पूछने वाले प्रत्येक व्यक्ति या संगठन या दल को आप राष्ट्रद्रोही निरूपित नहीं कर सकते। यह और इस तरह के तमाम नुस्खे पश्चिम बंगाल और हिमाचल तथा पंजाब आदि में आजमाएं और असफल साबित हो चुके हैं । कर्नाटक में भी वही घिसे पिटे करतब किए गए जिसका ऐसा बुरा हश्र सत्ताधारी भाजपा को होगा इसकी आशंका सत्ता के नशे के चलते उन्हें चाहे ना रही हो पर जनता इस अंजाम को भलीभांति जानती थी कि असल मुद्दों से कन्नी काटकर जो सत्ता हथियाना या सफल होना चाहते हैं उन्हें मल्लिका ए तरन्नुम बेगम अख्तर के सदाबहार मशवरे पर गौर करना चाहिए जिसमें कर्नाटक चुनाव का हश्र भी सुना जा सकता है “उल्टी हो गई सब तद्बीरें, कुछ ना दवा ने काम किया”।
जवाब हमेशा राष्ट्र धर्म, जाति, वर्ग और वर्ण-भेद को सामने कर इनकी आड़ में नहीं दिए जा सकते। प्रश्न पूछने वाले प्रत्येक व्यक्ति या संगठन या दल को आप राष्ट्रद्रोही निरूपित नहीं कर सकते। ये और इस तरह के तमाम नुस्खे पश्चिम बंगाल और हिमाचल तथा पंजाब आदि में आजमाएं और असफल साबित हो चुके हैं। कर्नाटक में भी वही घिसे पिटे करतब किए गए जिसका ऐसा बुरा हश्र सत्ताधारी भाजपा को होगा इसकी आशंका सत्ता के नशे के चलते उन्हें चाहे ना रहा हो पर जनता इस अंजाम को भलीभांति जानती थी कि असल मुद्दों से कन्नी काटकर जो सत्ता हथियाना या सफल होना चाहते हैं उन्हें मल्लिका ए तरन्नुम बेगम अख्तर के सदाबहार मशवरे पर गौर करना चाहिए जिसमें कर्नाटक चुनाव का हश्र भी सुना जा सकता हैः उल्टी हो गईं सब तदबीरें, कुछ ना दवा ने काम किया।
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