बेटियों के सवाल और सत्ता की शुतुरमुर्गी चाल

रिचा मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार
पूरा आधा महीना हो गया राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर बेटियों को बैठे हुए। ये सामान्य बेटियां नहीं हैं। ओलंपियाड में अव्वल रहने वाली, स्वर्ण पदक पाने वाली, तिरंगे का सम्मान और देश का स्वाभिमान व भारतीय जन गण का मान बढ़ाने वाली बेटियां हैं। वे सामान्य भी होतीं तो क्या उन्हें नारियोचित आन-बान से जीने का हक नहीं है? क्या लड़की होना ही उनका सबसे बड़ा गुनाह है, जिस गुनाह के लिए वे स्वयं जिम्मेदार नहीं है। क्या जिस देश-समाज में 'बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ' जैसे नए-नए जुमलों के साथ सरकारें सत्ता में आती हैं और जब भी इन नारों की कसौटी का प्रश्न सामने खड़ा होता है, सत्ता मौन हो जाती है, चुप्पी लगा जाती है, जड़ हो जाती है। देश के परंपरागत खेल कुश्ती में देश के गौरव का परचम लहराने वाली बेटियां एक पखवारे से धूप, बेमौसम बरसात, अंधड़ का सामना करते हुए धरती को बिछौना और आकाश की चादर के भरोसे अपनी अस्मिता, अपने मान सम्मान और अपने होने का संकल्प लेकर बैठी हैं और हस्तिनापुर है कि द्रौपदी की तार-तार हुई मर्यादा को धृतराष्ट्री आंखों से अनदेखा करते हुए शकुनि की सत्ता पर एक शतरंजी बिसात लेकर बैठा है।
ओलंपियाड में देश की नाक रखने वाले इन विजेता खिलाड़ियों को प्रधानमंत्री ने उनके सम्मान में 'डिनर' भी दिया था। उसकी फोटो बाजी और वीडियोग्राफी संचार माध्यमों में पर्याप्त वायरल हो रही है। जो वायरल नहीं हो रही है, वह है सोना जीतने वाली बेटी विनेश फोगाट की वह बात जो उसने प्रधानमंत्री को अपना और अपने देश का अभिमान समझकर कही थी, कि कुश्ती संघ के अध्यक्ष का आचरण ठीक नहीं है। वह बेटियों पर बुरी नजर रखता है। यूं तो कोई जवान बेटी ऐसी बातें करते और कहते हुए सौ बार सोचती है और शर्म करती है किंतु उसने यह तभी कहा होगा जब पानी लगातार सिर के ऊपर से जा रहा होगा।
यदि विनेश फोगाट की इस बात में कोई सच्चाई नहीं है तो क्या प्रधानमंत्री को उसका खंडन नहीं करना चाहिए? सत्ता का वही पुराना खेल मौन लगातार मौन। इसे विरोधियों का षड्यंत्र, राजनीतिक एजेंडा पहले क्यों नहीं कहा अब क्यों? इनके पीछे अवश्य कोई मायावी लोग हैं अन्यथा यह अकेले ही क्यों नहीं रोते? क्यों इनके साथ अलग-अलग वर्ग, जाति, पंथ, दल और समुदाय के लोग आकर बैठते हैं? जिस सत्ता के पास किन्हीं आंदोलनकारियों को वर्षों 'वेट एंड वॉच' के करामाती करिश्मे का अनुभव हो वह यदि इन युवकों को कमतर आंककर मौन समाधान के इलाज पर भरोसा कर रही हो तो इसमें आश्चर्य कुछ भी नहीं है। इधर पूरे प्रसंग के आधार पुरुष कुश्ती बाज बृजभूषण शरण सिंह ताल ठोक कर कहते हैं कि वह अपना इस्तीफा जेब में रखकर घूम रहे हैं, बशर्ते यह उधमी लड़के-लड़कियां अपने घर चले जाएं। श्री सिंह कुश्ती बाज भर नहीं है वे बाहुबल धनबाज और राजनीति बाज भी हैं। वे जानते हैं कि मामला कोर्ट में चला तो रंग ला सकता है इसलिए उस दबाव को कम करने, उनके धरना खत्म होने से उन्हें ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी जैसा समाधान अपने बचाव के पक्ष में कारगर लगता है। वे जानते हैं चौबीस में सरकार बनाने के लिए और उससे भी अधिक श्री मोदी के प्रधानमंत्री बनने के लिए यूपी की एक-एक सीट बहुत मायने रखती है। इसलिए भाजपा किसी भी कीमत पर एक ऐसे होनहार और करामाती सांसद का बलिदान नहीं कर सकती जो उनके विधायकी सीट की गारंटी है।
अन्यथा क्या वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप पर पॉक्सो एक्ट की रिपोर्ट दर्ज होने के बावजूद दिल्ली पुलिस चूं-चूं का मुरब्बा बनकर बैठी है। अब सब जानने लगे हैं कि एक एक.आई. आर की गंभीरता नहीं बल्कि गृह मंत्री की नजरों का उठना गिरना खाकी वर्दी वालों के लिए कुछ करने या ना करने का ही आदेश है। एक पखवारे से चल रहे खिलाड़ियों का यह धरना आंदोलन का रूप लेता जा रहा है। आजकल तमाम मान्यता प्राप्त संघ संगठन और विभिन्न वर्ग तथा आम आदमी भी इनके साथ जुड़ने लगा है। पीछे नजर दौड़ाई तो यह मामला निर्भया कांड की याद दिला रहा है, इस फर्क के साथ कि उसको अपनी हवस का शिकार बनाने वाले सड़क छाप दरिंदे थे और यह आरोप किसी सफेदपोश, सत्ताधारी, सत्ता पोषक ऐसे व्यक्ति पर है जो कार्यवाही होते ही अपने मित्र अखिलेश यादव के पाले में जा कर इन्हें कुश्ती के लिए ललकार सकता है। इस प्रसंग पर अखिलेश की अब तक जुबान ना खुलने के पीछे सीधा गणित है विरोधी का दुश्मन अपना मित्र होता है यह कोई रहस्य नहीं। निर्भया कांड के समय तो मौनधारी प्रधानमंत्री थे किंतु अब तो मुखर प्रधानमंत्री हैं फिर भी इस प्रसंग पर मौन है़ं। शुतुरमुर्ग बालू में अपना सिर छुपा कर स्वयं को सुरक्षित भले मान ले किंतु इन लड़कियों की अस्मिता से उठे सवालों का जवाब इसी चाल में ढूंढने वाले लोगों को निर्भया कांड के प्रसार और उसकी परिणति के परिणामों को नहीं भूलना चाहिए।
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