डॉ. एनके सोमानी का लेख : श्रीलंका में अदूरदर्शी फैसलों से बढ़ा संकट

डॉ. एनके सोमानी
भारत का प्रमुख पड़ोसी देश श्रीलंका इतिहास के अब तक के सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री पद से महिंदा राजपक्षे के इस्तीफे के बाद सोमवार को सरकार समर्थकों और विरोधियों के बीच हुई हिंसक घटनाओं के बाद हंबनटोटा में राजपक्षे के पैतृक मकान को आग लगा दी गई। प्रदर्शनकारियांे ने सत्तारूढ़ और गठबंधन दल के कई मंत्रियों और सांसदों के घरों को फूंक दिया है। अनेक मंत्रियों और सांसदों पर हमले हुए हैं। आक्रोशित भीड़ से घबराकर एक सांसद ने खुद को गोली मार ली। एक अन्य सांसद को कार सहित नदी में फेंक दिए जाने का समाचार है। हिंसा और आगजनी की घटना में पांच लोगों के मारे जाने व दौ सौ से अधिक लोगों के घायल होने की खबरें आई हैं। आपातकाल और देशव्यापी कर्फ्यू को धता बताकर लोग जिस तरह से प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं, उससे देश में एक बार फिर से गृहयुद्ध की आशंका व्यक्त की जाने लगी है।
पिछले दो-ढाई महीनों से जिस तरह श्रीलंका आर्थिक और राजनीतिक संकट से जूझ रहा है, उसे देखते हुए इस बात की आशंका पहले से ही थी कि विदेशी मुद्रा की कमी से उत्पन्न आर्थिक संकट कभी भी राजनीतिक संकट में बदल सकता है। आपातकाल और देशव्यापी कर्फ्यू के बावजूद जिस तरह से लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उससे जाहिर है कि राजपक्षे सरकार के खिलाफ किस कदर लोगों के दिलों में गुस्सा भरा हुआ हैै। वे राजपक्षे परिवार को सत्त्ाा से बेदखल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे श्रीलंका में इस वक्त खाद्य सामग्री का गंभीर संकट पैदा हो गया है। मंहगाई की मार से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। महंगाई का आलम यह है कि श्रीलंका में नागरिकों को ब्रेड का एक पैकेट 0.75 डॉलर यानी कि 150 रुपये में खरीदना पड़ रहा है। एक किलोग्राम चीनी का मूल्य 290 रुपये, एक किलोग्राम चावल का मूल्य 500 रुपये, 400 ग्राम मिल्क पाउडर 790 रुपयेे, पेटोल 254 रुपये लीटर, डीजल 176 रुपये लीटर एवं रसोई गैस का सिलेंडर 4149 रुपये में मिल रहा है।
दरअसल, आर्थिक संकट की शुरुआत नवंबर 2019 में उस वक्त ही हो गई थी। जब सरकार ने वैल्यू एेडेड टैक्स यानी वैट की दरों को 15 प्रतिशत से घटाकर 8 फीसदी करने का फैसला किया था। इसका असर राजकोषीय आमदनी पर हुआ। सरकार के इस फैसले के अगले कुछ महीनों बाद ही पूरी दुनिया कोरोना की चपेट में आ गई। श्रीलंका का पर्यटन क्षेत्र जबर्दस्त तरीके से प्रभावित हुआ। आलम यह था कि साल 2018 में श्रीलंका ने पर्यटन क्षेत्र से रिकार्ड 47 करोड़ डॉलर की आमदनी की थी वहीं दिसंबर 2020 में यह घटकर महज 5 लाख डॉलर रह गई। आर्थिक बोझ कम करने के लिए श्रीलंका की राजपक्षे सरकार ने एक बोल्ड फैसला लिया और रासायनिक उर्वरकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार का मानना था कि इससे कोरोना काल में विदेश मुद्रा की बचत होगी और श्रीलंका दुनिया का पहला शत-प्रतिशत जैविक खेती करने वाला मुल्क बन जाएगा। श्रीलंका का यही फैसला उसके लिए आफत का सबब बन गया। इससे श्रीलंका के कृषि उत्पादन में भारी गिरावट आई और सरकार को मजबूरन खाद्यान्न का आयात करना पड़ा। पेट्रोल-डीजल और कोयले की भी भीषण किल्लत कोढ़ मेें खाज साबित हुई। तेल और कोयले की किल्लत ने बिजली के संकट बढ़ा दिया। श्रीलंका के कुल बिजली उत्पादन का तकरीबन 10 प्रतिशत उत्पादन तेल से चलने वाले पावर प्लांट से होता है। इसी तरह कोयले की आपूर्ति मंे आई किल्लत से भी बिजली का उत्पादन प्रभावित हुआ है। कहना गलत नहीं होगा कि बरसों से श्रीलंका की सत्त्ाा पर काबिज राजपक्षे परिवार की अदूरदर्शी सोच व मनमाने फैसलों ने देश को गर्त में धकेल दिया।
श्रीलंका की इस आर्थिक दुर्दशा की एक बड़ी वजह चीन की ऊंची ब्याज दर भी है। विपक्ष राजपक्षे परिवार की चीन परस्त नीतियों को लेकर सरकार को कटघरे में खड़े करते रहा, लेकिन विपक्षी दलों की सलाह को दरकिनार कर गोटबाया सरकार चीन से एकतरफा समझौते करती रही। राष्ट्रहित को धता बताकर एकतरफा तौर पर किए गए इन समझौतों से देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गई और श्रीलंका आर्थिक बदहाली के दुष्चक्र में उलझ गया, जहां से निकलना अब उसके लिए मुश्किल हो गया हैै। दरअसल, चीन ने भारत को घेरने के लिए अपनी 'स्टिंग्स ऑफ पल्स' रणनीति के तहत श्रीलंका को एक महत्वपूर्ण मोती के रूप में अपने साथ ले लिया था। यही नहीं उसने अपनी अत्यन्त महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में भी श्रीलंका को शामिल कर लिया था। चीन की इस चाल काे श्रीलंका समझ नहीं सका और उसके जाल मंे फंस गया। राजपक्षे परिवार के चीनी प्रेम की वजह से श्रीलंका आज जिस तरह से चीन के कर्ज बोझ से दबा हुआ है, उसमेें कर्ज लौटाना तो दूर की बात है, ब्याज के भुगतान के लिए भी ओर कर्ज लेना पड़ रहा है। श्रीलंका को अगले पांच साल में 25 अरब डॉलर का कर्ज चुकाना है, जिसमें से 7 अरब डॉलर का कर्ज इस साल ही चुकाना है। सरकार ने पिछले हफ्ते सभी तरह के विदेशी कर्ज के भुगतान को टालने का ऐलान किया था, जिससे की वो जरूरत का सामान खरीद सके।
आर्थिक संकट के बीच सरकार को राजनीतिक मोर्चे पर भी दो-दो हाथ करने पड़ रहे हैं। देश के भीतर हालात इस हद तक बिगड़ चुके हैं कि सरकार को आपातकाल का सहारा लेना पड़ रहा है। एक माह की अवधि में यह दूसरा मौका है जब सरकार ने देश मेें आपातकाल का ऐलान किया है। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के इस्तीफा देने के बाद देश में प्रधानमंत्री का पद रिक्त पड़ा है। हालांकि, राष्ट्रपति गोटाबाया सरकार के गठन के लिए विपक्षी पार्टियों से बातचीत कर रहे हैं। उन्होंने प्रदर्शनकारियों को भरोसा दिलाया है कि नई सरकार में राजपक्षे परिवार कोई भी व्यक्ति मंत्री नहीं होगा, लेकिन इसके बावजूद सत्त्ाारूढ़ पार्टी व विपक्षी दल का कोई भी नेता प्रधानमंत्री पद के लिए आगे नहीं आ रहा है। श्रीलंका की सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद अब जिस तरह से श्रीलंका की जनता आर-पार की लड़ाई के मूड में नजर आ रही है, उसे देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि वह राजपक्षे परिवार की सत्त्ाा से विदाई से कम पर शायद ही राजी हो। अगर ऐसा होता है तो हिंसा और अराजकता की मौजूदा स्थिति देश में गृहयुद्ध की संभावना को ओर अधिक बढ़ा देगी। अभी जिस तरह के हालात हाल-फिलहाल वहां पर बने हुए हैं, उसे देखते हुए तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाला समय श्रीलंका के लिए और अधिक संकटों से भरा हुआ होगा।
लेखक विदेश मामलों के जानकार हैं ये के अपने विचार हैं।
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