हरिभूमि का विशेष लेखः उत्तर प्रदेश में साठा धान पर बैन लगाना सही कदम

धरा के नीर को बेहताशा सोखने वाली फसल को अब उत्तर प्रदेश में बैन कर दिया गया। साठा धान जिसे चैनी धान के नाम से भी जाना जाता है, को तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित करने का फैसला योगी आदित्य नाथ सरकार ने लिया है। पंजाब और हरियाणा में पहले से ही इस पर रोक है। फसल पर रोक लगाने का मुख्य कारण इससे भूमिगत जल का दोहन युद्वस्तर पर होता है। नेपाल से सटा तराई का समूचा इलाका ऐसा है जहां किसान साठा धान उगाते हैं। वहां से सैंपल लेने के बाद सरकार ने कृषि प्रयोगशालाओं में जांच कराई। जाचं रिपोर्ट से पता चला कि ये फसल जमीन की नमीं को सबसे ज्यादा सोखती हंै। यूं कहें कि ये फसल धरती की कोख को सूखाने में अहम भूमिका निभा रही है।
साठा धान जमीन को बंजर क्यों बनाती है इसे भी जानना जरूरी है। दरअसल, यह फसल भंयकर गर्मी के वक्त यानी मई और जून माह में उगाई जाती है जब बारिश न के बराबर होती है। जिस जमीन पर पानी की नमी ज्यादा होती है वहीं यह फसल उगाई जाती है। इस लिहाज से तराई की जमीन तो हमेशा से नमीयुक्त रहती है। लेकिन उस जमीन को भी साठा फसल बंजर बनाने में अपना अग्रणी भूमिका निभा रही थी। साठे धान की पूरी फसल की सिंचाई भूमिगत जल द्वारा की जाती है। जहां भी ये फसल उगाई जाती है उसका जलस्तर नीचे कुछ ही वर्षों में नीचे खिसक जाता है। यही वजह है कि तराई क्षेत्र में जिस तरह से साठे धान की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा था, उससे भविष्य के लिए संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि यहां की जमीन बंजर होगी। साठा धान की फसल नमी वाली जमीन के लिए भूजल संकट का सबब बनती जा रही थी। सोचने वाली बात है जब परंपरा युक्त धान के लिए प्रयुक्त जमीन ही नहीं बचेगी तो कैसे किसानों की आमदनी बढ़ेगी।
साठा धान की फसल में किसान दिलचस्पी इसलिए भी ज्यादा दिखाते हैं कि इस धान की दर परंपरागत धान के मुकाबले दोगुनी होती है। इसे उगाने के पीछे एक और कारण है। दरअसल अप्रैल से जून यानी तीन महीने के भीतर जमीन बेफसलें होती हैं। इसी दरमियान किसान इन तीन महीने में खाली पड़े खेतों में साठा धान लगा देते हैं। फसल कम समय में तैयार हो जाती है और भाव भी दूसरी फसलों के मुकाबले ज्यादा मिलता है। इन तीन महीनों में किसानों के पास दूसरी फसलों का विकल्प भी नहीं होता। तराई के अलावा साठा धान उत्तर प्रदेश में अन्य जगहों पर भी बड़े पैमाने पर लगाया जाता है, इसके अलावा मध्यप्रदेश में इसकी खेती बढ़ रही है।
इतिहास की बात करें तो कनाड़ा की तर्ज पर पंजाब के किसानों ने साठा धान की खेती शुरू की थी, लेकिन वहां प्रतिबंध लगा दिया गया है। किसान इस बात से बेखबर हैं कि वह साठा धान से होनी वाली आमदनी के लालच में पानी की समस्या को जन्म दे रहे हैं।
नेपाल बार्डर से सटे तराई क्षेत्र का भू-जल स्तर पूरे देश से ज्यादा है। तराई में मात्र पंद्रह फीट नीचे पानी निकल आता है, लेकिन इस पानी का दोहन युद्वस्तर पर जारी था। तराई का क्षेत्रफल हजारों हेक्टर में फैला है। काफी हिस्सा उतराखंड में आता है, वहां अब भी साठा धान लगाने का सिलसिला जारी है। उत्तराखंड गर्मियों में पानी को जिस तरह से तरसता है, उसे देखते हुए जल्द ही ऐसा कदम उठाया जाएगा। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक तराई का पानी पहले के मुकाबले काफी सूख चुका है। चैनी धान की फसल के चलते मिट्टी और पानी का संतुलन बिगड़ गया है।
दूसरे राज्यों को भी इस फसल पर रोक लगानी चाहिए। साठा धान लगाने से जो नुकसान जमीन को पहुंच रहा है शायद उसका आंकलन कृषि वैज्ञानिक ही ठीक से समझ पाते हों? अत्याधिक कीटनाशक व उर्वक के प्रयोग से जहां जमीन बंजर हो रही है। वहीं, धरती की कोख भी सूख रही है। जल संचय के श्रोत कुएं, तालाब, नदिया, बांध आदि लुप्त होने के कगार पर पहुंच गए हैं। बारिश के दौरान भूजल की पूर्ति करने वाले बोरबिल अब सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। अगर समय रहते भूजल का संरक्षण नहीं किया गया तो निश्चित रूप से गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। मार्च-अप्रैल में ही साठा धान लगाया जाता है। इस बार भी किसानों ने तैयारी की हुई थी, लेकिन प्रतिबंध के फरमान के बाद उनके अरमानो पर पानी फिर गया है। पर्यावरण रक्षा के लिए सरकार के इस कदम की हर ओर सराहना हो रही है। सरकार ने अपना काम कर दिया, अब चुनौती स्थानीय प्रशासन के सिर पर है। उन्हें गहन निगरानी दिखानी होगी, कहीं कोई चोरी-छिपे चैनी धान को न लगा ले।
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