प्रमोद जोशी का लेख : स्त्री-सशक्तिकरण की दिशा में कदम

प्रमोद जोशी का लेख : स्त्री-सशक्तिकरण की दिशा में कदम
X
नारी शक्ति वंदन विधेयक संसद के दोनों सदनों में पास हो गया। यह अभी लागू नहीं होगा। इसे लागू करने के साथ दो बड़ी शर्तें जुड़ी हैं। जनगणना और परिसीमन। इस वजह से आगामी चुनाव में यह लागू नहीं होगा, पर चुनाव का एक मुद्दा जरूर बनेगा, जहां सभी पार्टियां इसका श्रेय लेंगी। इसकी सबसे बड़ी वजह है, महिला वोट। महिला पहले ‘वोट बैंक’ नहीं हुआ करती थीं। 2014 के चुनाव के बाद से वे ‘वोट बैंक’ बनती नज़र आने लगी हैं। केवल शहरी ही नहीं ग्रामीण महिलाएं भी ‘वोट बैंक’ बन रही हैं। ज़रूरी नहीं है कि इसका श्रेय किसी एक पार्टी या नेता को मिले। सबसे बड़ी वजह है पिछले दो दशक में भारतीय स्त्रियों की बढ़ती जागरूकता और सामाजिक जीवन में उनकी भूमिका। राजनीति इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाएगी। सच यह है कि एकाध साल में परिसीमन नहीं होता। उसमें कई साल लग जाते हैं। 2031 की जनगणना के बाद फिर परिसीमन होगा?

नारी शक्ति वंदन विधेयक और उसके छह अनुच्छेद गुरुवार को राज्यसभा से भी पास हो गए। जैसी सर्वानुमति इसे मिली है, वैसी बहुत कम कानूनों को संसद में मिली है। 1996 से 2008 तक संसद में चार बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किए गए, पर राजनीतिक दलों ने उन्हें पास होने नहीं दिया। 2010 में यह राज्यसभा से पास जरूर हुआ, फिर भी कुछ नहीं हुआ। ऐसे दौर में जब एक-एक विषय पर राय बंटी हुई है, यह आमराय अपूर्व है, पर इसे लागू करने के साथ दो बड़ी शर्तें जुड़ी हैं। जनगणना और परिसीमन। इस वजह से आगामी चुनाव में यह लागू नहीं होगा, पर चुनाव का एक मुद्दा जरूर बनेगा, जहां सभी पार्टियां इसका श्रेय लेंगी। इसकी सबसे बड़ी वजह है, महिला वोट। महिला पहले ‘वोट बैंक’ नहीं हुआ करती थीं। 2014 के चुनाव के बाद से वे ‘वोट बैंक’ बनती नज़र आने लगी हैं।

केवल शहरी ही नहीं ग्रामीण महिलाएं भी ‘वोट बैंक’ बन रही हैं। जरूरी नहीं है कि इसका श्रेय किसी एक पार्टी या नेता को मिले। सबसे बड़ी वजह है पिछले दो दशक में भारतीय स्त्रियों की बढ़ती जागरूकता और सामाजिक जीवन में उनकी भूमिका। राजनीति इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाएगी।

रोका किसने?

इस विधेयक को लेकर इतनी जबर्दस्त सर्वानुमति है, तो इसे फौरन लागू करने से रोका किसने है? कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में कहा, जब सरकार नोटबंदी जैसा फैसला तुरंत लागू करा सकती है, तब इतने महत्वपूर्ण विधेयक की याद साढ़े नौ साल बाद क्यों आई? बात तो बहुत मार्के की कही है, पर जब दस साल तक कांग्रेस की सरकार थी, तब उन्हें किसने रोका था? सोनिया गांधी ने लोकसभा में सवाल किया, मैं एक सवाल पूछना चाहती हूं।

भारतीय महिलाएं पिछले 13 साल से इस राजनीतिक ज़िम्मेदारी का इंतज़ार कर रही हैं। अब उन्हें कुछ और साल इंतज़ार करने के लिए कहा जा रहा है। कितने साल? दो साल, चार साल, छह साल, या आठ साल? संसद में इस बार हुई बहस के दौरान कुछ सदस्यों ने जनगणना और सीटों के परिसीमन की व्यवस्थाओं में संशोधन के लिए प्रस्ताव रखे, पर वे ध्वनिमत से इसलिए नामंजूर हो गए, क्योंकि किसी ने उन पर मतदान कराने की मांग नहीं की। सीधा अर्थ है कि ज्यादातर सदस्य मानते हैं कि जब सीटें बढ़ जाएंगी, तब महिलाओं को उन बढ़ी सीटों में अपना हिस्सा मिल जाएगा। कांग्रेस ने भी मत विभाजन की मांग नहीं की। जब आप दिल्ली-सेवा विधेयक पर मतदान की मांग कर सकते हैं, तो इस विधेयक को फौरन लागू कराने के लिए मत-विभाजन की मांग क्यों नहीं कर पाए? खुशी की बात है कि मंडलवादी पार्टियों ने इसे स्वीकार कर लिया। कांग्रेस ने ओबीसी कोटा की मांग की, जबकि इसके पहले वह इसके लिए तैयार नहीं थी।

टिकट कोटा

अगले चुनाव में इस आरक्षण को लागू कराने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं, पर यह भी कोई अड़ंगा है? सच यह है कि यह विधेयक पास नहीं भी हुआ, तब भी राजनीतिक दल चाहते, तो सीट वितरण में 33 प्रतिशत का नियम लागू कर सकते थे। अब भी कर सकते हैं। वे घोषणाएं करते भी रहते हैं, पर करते कुछ नहीं हैं। 2019 के चुनाव में ओडिशा में बीजू जनता दल और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने इस वादे को निभाया भी, पर बड़े राष्ट्रीय दलों ने ऐसा कुछ नहीं किया। संसद के दोनों सदनों में इस विधेयक पर हुई चर्चा के बहाने राजनीति में महिलाओं की भूमिका से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए। इस विधेयक को लाने में हुई देरी और 33 प्रतिशत महिलाओं के भीतर ओबीसी के आरक्षण को लेकर सवाल उठाए गए। विलंब हुआ सो हुआ, अब उसे 2029 तक टालने को लेकर भी कई वक्ताओं ने सवाल उठाए। कुछ सदस्यों ने इस बात को भी उठाया कि पार्टियों की आंतरिक राजनीति में भी महिलाओं की भूमिका बढ़नी चाहिए। लागू हो जाने के बाद महिला आरक्षण केवल 15 साल के लिए ही वैध होगा, लेकिन इस अवधि को संसद आगे बढ़ा सकती है। एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटें भी केवल सीमित समय के लिए ही थीं, लेकिन इसे एक बार में 10 साल तक बढ़ाया जाता रहा है।

एक तिहाई का मतलब

विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए जितनी सीटें आरक्षित हैं, उनमें से एक तिहाई सीटें अब महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। लद्दाख, पुदुच्चेरी और चंडीगढ़ जैसे केंद्र शासित राज्यों में, जहां लोकसभा की केवल एक-एक सीटें हैं, वहां सीटें कैसे आरक्षित की जाएंगी, यह स्पष्ट नहीं है। पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों, जैसे मणिपुर और त्रिपुरा में दो-दो सीटें हैं, जबकि नगालैंड में लोकसभा की एक ही सीट है। 2010 में राज्यसभा में पारित किए गए विधेयक में कहा गया था कि जिन राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों में केवल एक सीट है, वहां एक लोकसभा चुनाव में वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होगी और अगले दो चुनाव में वह सीट आरक्षित नहीं होगी। वहीं दो सीटों वाले राज्यों में दो लोकसभा चुनावों में एक सीट आरक्षित होगी, जबकि तीसरे चुनाव में महिलाओं के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं होगी। वर्तमान लोकसभा पर इस गणित को लागू करने का मतलब है कि 543 में से 181 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इस समय 131 सीटें अजा-जजा के लिए आरक्षित हैं। महिला आरक्षण विधेयक के आधार पर इनमें से 43 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इन 43 सीटों को सदन में महिलाओं के लिए आरक्षित कुल सीटों के एक हिस्से के रूप में गिना जाएगा। यह गणना लोकसभा में सीटों की वर्तमान संख्या पर की गई है। परिसीमन के बाद इसमें बदलाव आ जाएगा, क्योंकि तब कुल सीटों की और महिला सीटों की भी संख्या ज्यादा होगी।

परिसीमन से जुड़े सवाल

परिसीमन में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर सीमाएं तय की जाती हैं। पिछला देशव्यापी परिसीमन 2002 में हुआ था। इसे 2008 में लागू किया गया था, पर सीटें नहीं बढ़ीं। 1976 में संवैधानिक संशोधन के बाद लोकसभा में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या का विस्तार वर्ष 2001 तक के लिए रोक दिया गया था। फिर 2001 में संविधान संशोधन करके इसे 2026 तक के लिए फ़्रीज़ कर दिया गया। परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद लोकसभाओं के चुनाव होने पर महिला आरक्षण लागू हो सकता है। बदलती आबादी के हिसाब से ये एक सतत प्रक्रिया है। इसके लिए क़ानून बनाकर परिसीमन आयोग की स्थापना की जाती है। इस आयोग का गठन वर्ष 1952, 1962, 1972 और 2002 में कानून के ज़रिये ही किया गया था। इस प्रक्रिया को चलाए रखने में क्या दिक्कतें थीं, जो उसे रोका गया? भविष्य में यह क्या जारी रहेगी?

उत्तर बनाम दक्षिण

जनसंख्या किसी भी निर्वाचन क्षेत्र की सीमा तय करने का मापदंड है। प्रत्येक राज्य को उसकी जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा सीटें मिलती हैं। अब दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच सदस्यों की संख्या को लेकर विवाद पैदा होने वाला है। दक्षिण के लोगों का कहना है कि जनसंख्या-नियंत्रण में हमारी भूमिका बड़ी है, पर संसद में प्रतिनिधित्व भी हमारा ही कम होगा, ऐसा क्यों? मान लिया कि 2024 के फौरन बाद जनगणना हो गई, फिर भी उसके आंकड़े लाने में कुछ समय लगेगा। मान लेते हैं कि 2026 के एकाध साल बाद परिसीमन हो जाएगा और 2029 के चुनावों में सीटें बढ़ जाएंगी। सच यह है कि एकाध साल में परिसीमन नहीं होता। उसमें कई साल लग जाते हैं। 2031 की जनगणना के बाद फिर परिसीमन होगा? क्या वह 2034 तक पूरा हो पाएगा?

स्त्रियों की भूमिका

जब स्त्रियां बैंकों, कॉरपोरेट हाउसों, कारखानों, प्रयोगशालाओं, सेना, हवाई जहाजों, रेल-इंजनों और मीडिया हाउसों का संचालन कर रहीं हैं, तो वे संसद और विधानसभाओं की कार्य-पद्धति में भी क्रांतिकारी बदलाव ला सकती हैं। सत्ता की चाबी स्त्रियों के हाथ में लगेगी, तभी बड़े बदलावों की उम्मीद करनी चाहिए। जन-प्रतिनिधि के रूप में ही स्त्रियां उन संरचनात्मक अवरोधों को गिराएंगी, जो समस्या के रूप में हमारे सामने खड़े हैं। पार्टियों के भीतर क्रमिक रूप से स्त्रियों के महत्व को स्थापित करने और सीटों के आवंटन में उन्हें वरीयता देने से भी यह काम हो सकता है। दुनिया के कई देशों में इसे सफलता भी मिली है। मसलन स्वीडन की संसद में सीटों का कोटा नहीं है, बल्कि पार्टियों के भीतर कोटा है। वहां संसद में 47 फीसदी स्त्रियों की उपस्थिति है।

वैश्विक स्थिति

अर्जेंटीना में सीटों का कोटा है और पार्टियों के भीतर भी कोटा है। वहां 40 फीसदी स्थान स्त्रियों के पास हैं। नॉर्वे की संसद में 36 फीसदी महिला सदस्य है। हमारी वर्तमान 17वीं लोकसभा में 82 महिलाएं चुनकर आईं। उनका प्रतिनिधित्व करीब 15 फीसदी है। देश के 19 राज्यों की विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व 10 फीसदी से कम है। सोलहवीं लोकसभा में 64 यानी कि 11.8 प्रतिशत तक पहुंची। 1952 में पहली लोकसभा में केवल 4.4 फीसदी महिला सदस्य थीं, 1977 में केवल 3.5 फीसदी। पाकिस्तान में 20.6, बांग्लादेश में 19, नेपाल में 30 और सऊदी अरब की संसद में 19.9 फीसदी स्त्रियां हैं। वैश्विक औसत 21 से 22 फीसदी का है। स्त्रियों की भागीदारी वैश्विक औसत से भी नीचे होने का मतलब है कि हमें अपनी लोकतांत्रिक-व्यवस्था पर गहराई से विचार करना चाहिए।

( लेखक- प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने निजी विचार हैं )

Tags

Next Story