प्रमोद भार्गव का लेख : कश्मीरी पंडितों के दर्द की दास्तां

प्रमोद भार्गव
इतिहास तथ्य, घटना और साक्ष्य के सत्य पर आधारित होता है। 32 साल पहले कश्मीर की धरती पर पंडित एवं अन्य हिंदुओं के साथ हत्या, अत्याचार और दुराचार की एक नहीं अनेक घटनाएं घटी थीं। नतीजतन लाखों लोगों को रातों-रात पलायन करना पड़ा था। उस समय सत्य का सामना करने से लोकतंत्र के चारों संवैधानिक स्तंभ आंख चुराते रहे थे। लिहाजा जो घटनाएं घटीं, उनके जीवित और पीड़ित सैकड़ों साक्षियों के साक्ष्यों के आधार पर जब एक फिल्म सामने आई है, तो उसे झुठलाने की कोशिश हो रही है। भारतीय इतिहास का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा है कि जब भी इतिहास से मुठभेड़ होती है, तो तथाकथित बुद्धिजीवी ठोस सच्चाइयों को या तो नकारते हैं या फिर सुधारने की बात करते हैं। अयोध्या के विवादित राम मंदिर के पुरातत्वीय उत्खनन से सामने आए साक्ष्यों को भी वामपंथी कथित बौद्धिकों ने कुछ इसी तर्ज पर नकारा था। इतिहास को झुठलाने में सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ जाने को भी मुद्दा बनाया जाता रहा है, लेकिन इसी सिलसिले में जब जोधा-अकबर जैसी फिल्में बनती हैं तो उन्हें सराहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने द कश्मीर फाइल्स पर ठीक ही कहा है कि 'अभिव्यक्ति की आजादी के झंडे लेकर घूमते थे, वे पूरी तरह बौखला गए हैं। उसे वे फिल्म की तथ्य और कला के आधार पर समीक्षा करने की बजाय बदनाम करने में जुटे हैं। यह पूरा का पूरा इकोसिस्टम कोई सत्य उजागर करने का साहस करे तो उसके साथ ऐसा ही करते हैं। ऐसे लोग इस सत्य को न समझने को तैयार हैं और न ही यह चाहते हैं कि दुनिया इसे देखे।'
दरअसल इस फिल्म में इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा पंडितों पर किए गए क्रूरतम अत्याचार को हुबहू दिखाया गया है, जिस रूप में खूनी इबारत लिखकर घटना को अंजाम तक पहुंचाया गया था। चश्मदीद गवाहों के रूप में आज भी इन घटनाक्रमों के साक्षात्कार करने वाले लाखों पंडित शरणार्थी शिविरों में उन दिनों की याद करके दहशत में आकर रो पड़ते हैं। अतीत खंगालने से पता चलता है कि कश्मीर का इकतरफा सांप्रदायिक चरित्र तब से गढ़ना शुरू हुआ, जब 32 साल पहले नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष व तब के मुख्यमंत्री डाॅ. फारूक अब्दुल्ला के घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या हुई थी। अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे थे और मस्जिदों से हिंदुओं को औरतें छोड़कर कश्मीर छोड़कर भाग जाने के माइक से ऐलान किए जा रहे थे। इसी आशय के पोस्टर उनके घरों के दरवाजों पर चिपका दिए गए थे। 1990 में शुरू हुए पाक प्रयोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की यह सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।
कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा शाही के प्रसिद्ध उपन्यास 'कोटा रानी' पर गौर करें तो बिना किसी अतिरिक्त आहट के कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण था। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ठ केंद्र था। 'नीलमत पुराण' और कल्हण रचित 'राजतरंगिनी' में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटलीपुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परंपरा और सूफी संप्रदाय साथ-साथ परवान चढ़े, लेकिन यही वह समय था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया।
सिंध पर सातवीं शताब्दी में अरबियों ने हमला कर, उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासिका रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पर्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाहमीर ने 14वीं शताब्दी में कश्मीर का राजकाज संभाला। इस वंश के क्रूर शासकों को इस्लामिक कट्टरता का पाठ पढ़ाया जाता रहा। जिन सूफियों को साझा संस्कृति का वाहक माना गया था, वे वास्तव में छिपे रूप में इस्लाम के कट्टर पाठ पढ़ाकर मुस्लिमों को हिंदुओं के विरुद्ध खड़ा करते रहे। सुल्तान सिकंदर बुतशिकन के कालखंड में यह अत्याचार और बढ़ गया। यहीं से जबरन धर्म परिवर्तन करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ और एक-एक कर मंदिर भी तोड़े जाने लगे। इन मंदिरों के जीर्णोद्धार और नए मंदिरों के निर्माण पर रोक लगा दी गई। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। जरूरी नहीं कि इतिहास की लाचारियां, बाध्यताएं और गलतियां किसी गतिशील समाज को स्थिर बनाए रखने का काम करें। यदि 32 साल में कोई ठोस तथ्यात्मक फिल्म कश्मीर समस्या पर नहीं बनाई गई तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वर्तमान या भविष्य में फिल्में बनाई ही न जाएं। जिस देश का अतीत जितना प्राचीन होता है, उसे नए-नए संदर्भों में दोहराया जाता है। रामायण, महाभारत, सम्राट अशोक और चाणक्य पर आज भी फिल्म व टीवी सीरियल बन रहे हैं। अकबर, सिकंदर पोरस, पद्मावती, मर्णिकर्णिका-द क्वीन आॅफ झांसी भी ऐतिहासिक घटनाओं पर बनाई गई नई फिल्में हैं। कश्मीर पर 2020 में शिकारा फिल्म भी बनी थी। लेकिन यह फिल्म आड़ में हरकत करती दिखाई दी थी। इसमें बताया गया था कि कश्मीर में आतंकवाद सरकारी दमन के कारण पैदा हुआ। नतीजतन इस फिल्म को देखने के बाद मजहबी जिहाद से आहत हिंदुओं ने खुद को छला हुआ अनुभव किया। कोई फिल्म परिणाममूलक हों यह जरूरी नहीं, लेकिन यदि फिल्म इतिहास की छिपी सच्चाई से अवगत कराती है तो यह ऐतिहासिक प्रमाण का बोध कराने वाली फिल्म है। कश्मीर का इतिहास और यह फिल्म इस बात का भी सबक है कि हिंदू समाज उदार नीतियों व अंजान विदेशियों को शरण देने के चलते ही न केवल पिटा है, बल्कि राज्य सत्ता से विस्थापित भी हुआ है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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