डा. ऐश्वर्या झा का लेख : सशक्तिकरण की चुनौतियां अनेक

डा. ऐश्वर्या झा
विश्वभर में महिलाओं की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक समानता के लिए जागरूकता तथा महिलाओं की उपलब्धियों एवं योगदान के उत्सव को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में प्रतिवर्ष 8 मार्च को मनाया जाता है। एक दिवसीय महिला दिवस मना कर समाज को विमर्श के लिए प्रेरित तो किया जा सकता है अपितु महिला सशक्तीकरण जैसी गंभीर चुनौती पर विजय प्राप्त नहीं किया जा सकता है। सही मायनों में महिला के बिना, किसी भी दिवस की कल्पना भी संभव नहीं है। आम महिलाएं आज भी अपने अधिकारों या बराबरी से कोसों दूर हैं। महिला उत्थान के लिए भले ही सैंकड़ों योजनाएं तैयार की गई हों, परंतु महिला में शिक्षा व जागरूकता की कमी आज भी सच्चाई है। चूल्हे चौके से निकल कर कामकाजी महिलाओं की हालत और भी बदतर है, अधिकांश महिलाएँ दो शिफ्ट में काम कर रहीं एक घर के बाहर और एक घर के अंदर। भारत में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदाय एवं गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले समाज की महिलाएं अपने अधिकारों से बेखबर हैं और उनका जीवन आज भी एक त्रासदी की तरह है।
आजादी के 75 साल बाद भी तमाम दावों के विपरीत महिला सशक्तीकरण अथवा जेंडर न्यूट्रल मानव विकास अभी दूर की कौड़ी है। इसके लिए परिवार से संसद तक, विद्यालय से न्यायालय तक नीति निर्माताओं एवं सम्पूर्ण समाज को बहुत से प्रयास करने होंगे । वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार, भारत की स्थिति निराशाजनक है। 156 देशों में से भारत 140 वें स्थान पर है। यह जानकर आश्चर्य ही होगा कि पाकिस्तान (153) को छोड़ कर सभी पड़ोसी मुल्कों की स्थिति भारत से बेहतर है - बांग्लादेश (65),नेपाल (106), श्रीलंका (116), मालदीव (128) एवं भूटान (130) स्थान पर हैं। रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं की आर्थिक भागीदारी एवं अवसर, शैक्षिक उपलब्धियों, स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा तथा राजनीतिक सशक्तीकरण के सूचकांकों में भी भारत के विकास के अनुरूप आधी आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है। आज भी संसद में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व चिंतनीय है। लोकसभा में कुल सांसदों का केवल 14.4 फीसदी एवं राज्यसभा में 10.4 फीसदी हिस्सेदारी महिला वर्ग से है। भारत सांसद के प्रतिनिधित्व के मामलें में 189 देशों के बीच 142वें पायदान पर है, राजनीतिक पाखंड ये है कि हुक्मरानों ने पंचायत चुनाव में तो करीब करीब सभी राज्य में महिला आरक्षण लागू कर दिया। किन्तु संसद एवं विधानमंडल में क्यों नहीं ? संसार के चाहे विकसित देश हों या विकाशील महिला के प्रति जन्म पूर्व से ही भेदभाव होता है। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव दुनिया में हर जगह प्रचलित है। लैंगिक असमानता हो या लिंगानुपात यह एक अति संवेदनशील सूचक है जो महिलाओं की स्थिति को दर्शाता है। बच्चों में लिंगानुपात निरंतर कम होता जा रहा है। लिंग समानता और मूलभूत अधिकारों के संबंध में महिलाओं की निराशजनक स्थिति के द्योतक हैं। अतः महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये सरकार को अपनी नीति इस प्रकार से बनानी होगी जिस से विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ सभी महिलाओं को सुलभता से प्राप्त हो। समाज के किसी वर्ग के विकास में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है नीति, संसाधन एवं सामाजिक सोंच। बजट एक ऐसा माध्यम है जो किसी भी सरकार के नीति एवं संसाधन का मानक है। किसी भी सरकार का बजट उसके नीति एवं संसाधन के आवंटन का वार्षिक ब्यौरा होता है।
लैंगिक समानता के लिये कानूनी प्रावधानों के अलावा किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण तथा शिशु कल्याण के लिये किये जाने वाले बजट आवंटन को जेंडर बजटिंग कहा जाता है। जेंडर बजटिंग शब्द विगत दो-तीन दशकों में वैश्विक पटल पर अधिक प्रयोग किया जाने गया है।इसे सर्वप्रथम आस्ट्रेलिया सरकार द्वारा शुरू किया गया था अब विश्व के 62 देशों से अधिक में ये लागू किया जा चुका है। वर्ष 2005 से भारत ने भी बजट में जेंडर उत्तरदायी बजटिंग की शुरुआत की। जेंडर बजटिंग महिलाओं के आर्थिक, सामाजिक सशक्तिकरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण जन नीति है। जेण्डर आधारित बजट एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा सामाजिक विकास में पीछे छूटती आधी आबादी ख़ास कर वंचित, कमजोर, और बेसहारा महिलाओं पर केंद्रित नीति बनाया जा सकता है। इस वर्ष के बजट में देश की महिला वित्त मंत्री ने महिला केंद्रित योजनाओं के लिए कुल 1,71,006.47 करोड़ आवंटित किया गया हैं जो कुल अनुमानित व्यय का 4.3% हैं एवं जबकि 2021 में ये 4.4% था। जेंडर बजटिंग के माध्यम से महिलाओं को प्रत्यक्ष लाभार्थी बनाने की बजाय उन्हें विकास यात्रा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बनाना होगा। नीति, संसाधन के बाद, समाज में सदियों से व्याप्त पितृसत्तामक प्रवृत्ति ने महिला सशक्तिकरण में सबसे बड़ी बाधा खड़ी की है।
महिला सशक्तिकरण का सबसे बड़ा पहलू है समाज की सोच में बदलाव, कोई भी पुरुष महिला के अंश के बिना बन ही नहीं सकता। अशिक्षा एवं सामाजिक ताने बाने ने पुरुष के अंदर छुपे महिला के अंश को उसके आचार विचार में पल्लवित होने नहीं दिया। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, "पितृसत्ता सामाजिक संरचना की ऐसी व्यवस्था हैं, जिसमें पुरुष, महिला पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है और उसका शोषण करता है"। महिलाओं का शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृतिक परिघटना है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने रीति रिवाज़ में अपनी वैधता और स्वीकृति हमारे धार्मिक विश्वासों, चाहे वो हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हों, सबसे से ही प्राप्त की है। सदियों तक महिलाओं को खाने के लिये वही मिलता था जो परिवार के पुरुषों के खाने के बाद बच जाता है। अतः समुचित और पौष्टिक भोजन के अभाव में महिलाएँ कई तरह के शारीरिक एवं मानशिक रोगों का शिकार हो जाती हैं। अत्यधिक गरीबी, दिखावा वाले रीति रिवाज़ और शिक्षा की कमी ने उस सोच का पोषण किया है। लैंगिक समानता का महत्वपूर्ण सूत्र श्रम सुधारों और सामाजिक सुरक्षा कानूनों से भी जुड़ा है, फिर चाहे कामकाजी महिलाओं के लिये समान वेतन सुनिश्चित करना हो या सुरक्षित वातावरण की गारंटी देना। महिला सशक्तिकरण की राह में अनेक चुनौतियां हैं, जिन्हें हल करना होगा।
( लेखिका डीयू में प्रोफेसर हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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