डॉ. रमेश ठाकुर का लेख : आंदोलन की सियासी तपिश बाकी

डॉ. रमेश ठाकुर का लेख : आंदोलन की सियासी तपिश बाकी
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कृषि कानूनों की बर्खास्तगी का ऐलान बेशक हो गया हो, लेकिन आंदोलन से निकली सियासी तपिश जल्द कम नहीं होगी। निश्चित रूप इस निर्णय से केंद्र सरकार की अलग छवि बनी है। इसे आंदोलनकारी इसे अपनी जीत के रूप में ले रहे हैं, लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हुई है। अब आंदोलनरत किसानों के नेता सरकार के सामने तरह तरह की नई मांगें रखेंगे। लखनऊ महापंचायत से शुरू हो गया है। फसलों पर एमएसपी गारंटी कानून की मांग की गई है, हालांकि सरकार खुद ही एमएसपी पर कानून बनाने के लिए समिति बनाने की बात कही है। संभावनाएं ऐसी जाग उठी है कि सरकार-किसान के बीच तनातनी का एक दौर और शुरू हो सकता है।

डॉ. रमेश ठाकुर

पीएम ने बेशक तीनों कृषि कानून की वापसी का ऐलान कर दिया। आंदोलन से उपजा जनाक्रोश, वोटर खिसकने का डर, गड़बड़ाता चुनावी गणित, आदि को ध्यान में रखकर कृषि कानूनों की बर्खास्तगी का ऐलान हो गया हो, लेकिन आंदोलन से निकली सियासी तपिश जल्द कम नहीं होगी। निश्चित रूप इस निर्णय से केंद्र सरकार की अलग छवि बनी है। नए कृषि कानूनों का अंत इस निराले अंदाज और खट्टे-मीठे अनुभवों से होगा, ऐसी आशंकाएं पहले से थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देशवासियों से माफी मांगने के साथ अपने कदम को पीछे खींचने का निर्णय अगर पहले ही ले लिया गया होता, तो आज तस्वीर कुछ अलग होती। कृषि कानूनों के चलते बीते साल भर से भाजपा और केंद्र सरकार की संयुक्त रूप से चौतरफा आलोचना हो रही थी? प्रधानमंत्री के सात वर्षीय कार्यकाल में ये उनका मात्र इकलौता फैसला रहा, जिसे उन्हें जनसमूह की बुलंद आवाज के चलते बदलना पड़ा? वरना इससे पहले कभी झुके नहीं, फैसला सही हो या गलत झुकना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं? लेकिन ये पहली मर्तबा हुआ जब अपने फैसले को लेकर उनको अपने कदम पीछे खींचने पड़े हों।

मोदी सरकार को अब तक की सबसे सख्त सरकार का तमगा दिया गया। नोटबंदी, जीएसटी जैसे कठोरतम फैसलों के इतर कुछ पूर्ववर्ती उनके ऐसे भी निर्णय रहे जिनकी सराहना भी हुई। कई फैसले देश हित के लिए रहे। जैसे, राम मंदिर मसले पर प्रधानमंत्री प्रतिबद्धता और उनका पटाक्षेप? मंदिर मसले पर उनकी पहल ईमानदार रही। वहीं, जम्मू-कश्मीर के नए उदयभाग के लिए धारा-370, आर्टिकल 35ए सरीखे ऐतिहासिक फैसले सदियों तक याद किए जाएंगे, लेकिन सवा साल पहले बनाए गए नए तीनों कृषि कानूनों का हश्र ऐसा होगा, इसकी कल्पना शायद सरकार ने नहीं की होगी। सरकार की तकरीबन सभी चालों को आंदोलनकारी नेताओं ने विफल किया। उनके इसी अड़ियल रुख से हताश होकर सरकार को पीछे हटना पड़ा। तीनों कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन के चलते करीब सात सौ किसानों की जानें गईं, सर्दी, गर्मी, बारिश, तूफान सभी मौसम में आंदोलनकारी दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहे। इसी दरम्यान लाल किला कांड हुआ, लखीमपुर में रक्तरंजित हिंसक घटना घटी, आंदोलन से बंद हाईवे से आम जनों ने भारी परेशानियां उठाईं और भी बहुत कुछ हुआ। ये घटनाएं बीते 12 महीनों तक निरंतर होती रहीं, लेकिन सरकार अपने फैसले से टस-मस नहीं हुई। देखिए, किसी भी सरकार के लिए चुनाव बहुत मायने रखते हैं, चुनावी भट्टियों से ही उनकी सियासी रोटियां सेंकी जाती हैं। वही चुनाव इस वक्त दहलीज पर खड़े हैं और वह भी उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में, जहां की जीत दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाती है। भाजपा ने यूपी की नब्ज टटोली, तो पता चला कि मौजूदा किसान आंदोलन उनके लिए मुसीबत पैदा कर रहा है और उस मुसीबत का कारण कृषि कानून हैं। तभी आनन-फानन में गत गुरुवार देर रात प्रधानमंत्री अपने चुनिंदा साथियों को अपने आवास पर बुलाकर मंथन किया।

साथियों के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने तय किया कि जब तक कृषि कानून वापस नहीं होंगे, देश की फिजा उनके खिलाफ रहेगी। तभी बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेलते हुए शुक्रवार सुबह राष्ट्र के नाम संबोधन के माध्यम से कृषि कानून को निरस्त करने एेलान कर दिया। प्रधानमंत्री को माफी के साथ कृषि कानूनों के निर्णय से क्यों पीछे हटना पड़ा, क्यों फैसला बदला, इसके पीछे कई सियासी राज छिपे हैं। प्रधानमंत्री भांप चुके थे कि कृषि कानूनों से उपजे जनाक्रोश से उनकी छवि धूमिल हो जाएगी, पर ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने फैसला लेते-लेते बहुत देर कर दी। बिल बहुत पहले वापस हो जाने चाहिए थे, लेकिन सरकार अपने फैसले पर कायम रही। आज वह दीवार ढह गई। ऐसा भी प्रतीत होता है चुनावों से पहले अगर केंद्र सरकार को लगता है कि कृषि कानूनों की बर्खास्तगी से उनकी साख बची रहेगी और आगामी विधानसभा चुनावों में फायदा होगा तो शायद यह उसकी गलतफहमी होगी। एक कहावत है, कि 'अब पछतावे से क्या हो, जब चिड़िया चुग गई खेत' लेकिन आने वाला वक्त तय करेगा कि कानूनों से पीछे हटना केंद्र सरकार की मजबूरी थी या सियासी मास्टर स्ट्रोक? जो भी हो, किसान नेता भी सरकार की हर चाल से वाकिफ हैं। सरकार डाल-डाल तो किसान पात-पात। किसान आंदोलन स्थलों से अब भी हटने को राजी नहीं हैं। कानूनों की बर्खास्तगी का सर्टिफिकेट उन्हें चाहिए, मुंह जुबानी बात पर आंदोलन खत्म करके घर नहीं जाएंगे। हालांकि प्रधानमंत्री ने घर जाने की उनसे अपील जरूर की है। अब किसानों ने एक पेंच और भिड़ा दिया है, वो है फसलों पर एमएसपी गारंटी कानून? हालांकि ये मांग बाद में शामिल की गई थी, लेकिन उसे अब प्रमुख माना जा रहा है। सरकार की ओर से कानून वापसी के बाद अब आंदोलकारी नेताओं की ओर से नई नई मांगें सामने आ सकती हैं। इसका नजारा लखनऊ में हुई एसकेएम की महापंचायत से दिखना शुरू हो गया है।

गौरतलब है कि तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद किसान संगठनों के समूह संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर सोमवार को लखनऊ में महापंचायत का आयोजन किया गया। इसमें देश के विभिन्‍न राज्‍यों के किसान पहुंचे। किसानों ने महापंचायत में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर कानून बनाने और लखीमपुर खीरी हिंसा मामले में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा 'टेनी' की बर्खास्तगी समेत अन्य प्रमुख मांगों को उठाया। वहीं बैठक में यह बात भी दोहराई गई कि जब तक एमएसपी समेत सारी मांगों काे स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक आंदोलन खत्म नहीं किया जाएगा। सरकार बैठक में राकेश टिकैत ने कहा कि सरकार यदि बातचीत करना चाहती है तो वह किसान संगठनों को बुलाए। सरकार को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि उसने कानूनों को निरस्त कर दिया है और वह हमसे बात करना नहीं चाहती है ताकि हम गांवों में जाना शुरू कर सकें। इसके साथ ही टिकैत ने बातचीत में मोर्चा की छह सूत्रीय मांगों को दोहराया। लगता है कानूनों की बर्खास्तगी के ऐलान के बाद अभी सरकार व आंदोलनकारियों के बीच विश्वास का दौर शुरू नहीं हुआ है। इसलिए अभी तक दिल्ली की सीमाओं पर से आंदोलन के खात्मे का ऐलान नहीं हुआ है। संभावनाएं ऐसी जाग उठी है, सरकार-किसान के बीच तनातनी का एक दौर और शुरू होगा आगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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