अलका आर्य का लेख : बाल यौन अपराध पर हो जीरो टॉलरेंस

अलका आर्य
हाल में देश की राजधानी दिल्ली के बदरपुर इलाके में आठ साल की मासूम बच्ची से बलात्कार का मामला सामने आया है। 30 वर्षीय आरोपी राहुल ने बच्ची के साथ दरिदंगी करते हुए उसके बदन को जगह-जगह बुरी तरह दांतों से काटा। पीड़ित बच्ची अपनी मां के साथ रहती है। इस वारदात के वक्त उसकी मां कारखाने में काम करने गई हुई थी व बच्ची अकेले घर में थी। आरोपी उसे अकेले देखकर घर में आया और उसके मुह में कपड़ा ठूंस दिया ताकि उसके चिल्लाने की आवाज बाहर न जाए। पुलिस ने आरोपी को पकड़ लिया है और उसके खून के नमूने की जांच भी करवाई। इस जांच से पता चला है कि आरोपी एचआईवी पाॅजिटिव है और यह उसे पता था। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के रामपुर गांव में बलात्कार की शिकार 14 साल की नाबालिग पीड़िता ने आत्महत्या कर ली। 22 मई को उसके एक युवक पड़ोसी ने उसे घर में अकेला देख उसके साथ बलात्कार किया। लड़की ने बाद में परिजनों को बताया। परिजनों ने थाने में शिकायत दर्ज नहीं कराई, और इधर युवक के परिजन गांव के प्रभावशाली लोगों के साथ 26 मई को पीड़िता के परिजनों के पास समझौता करने पहुंच गए। आरोपी के परिजनों ने शर्त रखी कि वे आरोपी के खिलाफ कोई मामला ना तो अब थाने में दर्ज कराएंगे व ना ही भविष्य में। इसके एवज में वे आरोपी लड़के की शादी पीड़िता से कर देंगे, जब वह व्यस्क हो जाएगी। लेकिन पीड़िता समझौते के बजाए चाहती थी कि उसके माता-पिता उस युवक के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएं व उस पर बलात्कार का मुकदमा चले। पीड़िता यह सब सुन परेशान हो गई व उसने दूसरे कमरे में आत्महत्या कर ली। इस अप्रिय वारदात के बारे में नाबालिग के भाई ने मीडिया को बताया। आत्महत्या के बाद पुलिस ने आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 और 306 लगाई है।
दिल्ली की नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार की यह घटना और उत्तरप्रदेश में बलात्कार शिकार 14 साल की नाबालिग लड़की की आत्महत्या वाली यह ताजा खबर एक बार फिर उन आंकड़ों में धकेल देती है, जो बार-बार इस बात की तस्दीक करते हैं कि मुल्क में बच्चियां कितनी असुरक्षित हैं। सामाजिक ताना-बाना खासतौर पर गावों में रिश्तों-प्रभावशाली लोगों की दखलंदाजी किस तरह आरोपियों के बचाव में खड़ी हो जाती है। भारत जैसे मुल्क के लिए बाल यौन शोषण, उत्पीड़न एक अति गंभीर मुद्दा है, क्योंकि मुल्क में करीब 44 करोड़ बच्चे हैं और युवाओं की तादाद भी उल्लेखनीय है। सरकार द्वारा प्रयोजित एक सर्वे में सामने आया कि मुल्क में 53 फीसदी बच्चे यानी लड़कियां व लड़के दोनों ने कभी न कभी यौन शोषण/उत्पीड़न का सामना किया था। शोषण करने वाले बच्चों के जानकार, रिश्तेदार व वो लोग थे, जिन पर बच्चे व उनके अभिभावक भरोसा करते थे। ऐसे मामले केवल महानगरों, नगरों में ही सामने नहीं आते बल्कि गांव भी इनसे अछूते नहीं है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बाल यौन शोषण से अभिप्राय किसी बच्चे को ऐसे कृत्य में शमिल करना है, जिसकी उसे (बालिका/बालक) पूरी तरह से समझ नहीं है और अपनी सहमति नहीं देता, अथवा जो कानून का उल्लघंन करने वाली गतिविधि हो। अब सवाल यह भी उठता है कि कितने अभिभावकों, शिक्षकों और आम जन को इसके बारे में पता होगा या भारत में बने ' बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम 2012'(पाॅक्सो) की जानकारी है। दरअसल यह एक गंभीर समस्या है कि बाल यौन शोषण/उत्पीड़न को लेकर समाज अभी भी संकोच करता है। जबकि यह परिवार, स्कूल,समाज की अहम जिम्मेदारी है। दिल्ली की एक अदालत ने इस बावत एक मामले की सुनवाई के दौरान इस पर रोशनी डाली थी कि ऐसे मामलों में वृद्वि की एक वजह यह भी है कि लोगों को इस कानून के बारे में कोई जानकारी नहीं है व कानूनी कार्रवाई का कोई भय भी नहीं है। गौरतलब है कि पाॅक्सो अधिनियम 2012 एक लंबे संघर्ष के बाद लाया गया। इसे बच्चों के प्रति यौन अपराधों, यौन शोषण और अश्लील सामग्री से संरक्षण प्रदान करने के लिए लाया गया, इसमें बच्चों को अनुचित तरीके से व गलत मंशा से छूना भी शमिल है। यह 18 साल तक के बच्चों पर लागू होता है। इस कानून की एक विशेषता यह भी है कि यह लिंग निरपेक्ष है। यानी पीड़ित लड़की या लड़का दोनों हो सकते हैं और आरोपी महिला व पुरूष कोई भी हो सकता है। बचपन में यौन हिंसा व अन्य हिंसा के शिकार बच्चे अक्सर जिंदगीभर उस पीड़ा से गुजरते रहते हैं , अवसाद के शिकार हो जाते हैं व कई बार आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं। कई मर्तबा अदालतें ठोस सबूतों के अभाव के चलते कभी आरोपी को कम सजा सुनाती है या कभी बरी भी कर देती है। ऐसे मामलों में दोषी पाए जाने की दर भी बहुत कम है। इसकी वजहों में अदालतों व उनसे संबधित ढांचे, स्टाफ की कमी, दूसरी तरफ पुलिस व न्यायपालिका में कार्यरत अधिकारियों व कर्मचारियों को बाल पीडि़तों के प्रति संवेदनशीलता से निपटने वाले प्रशिक्षण देने की कमी आदि है।
गौरतलब है कि बाल यौन शोषण, उत्पीड़न एक वैश्विक समस्या है। 'टूगेदर फाॅर गर्ल्स' नामक एक अंतराष्ट्रीय संगठन के एक सर्वे से पता चलता है कि विश्व में 20 साल से कम आयु की करीब 12 करोड़ लड़कियों ने अपनी जिंदगी में यौन हिंसा सही है। 5 में से एक महिला ने बच्ची के तौर पर यौन उत्पीड़न को सहा और प्रत्येक 10 पुरुषों में से एक ने बालक होने पर इस यौन उत्पीड़न का सामना किया। इस संगठन की सदस्य एल्सा डी सिल्वा का मानना है कि खमोशी से कुछ हासिल नहीं होगा। इस हिंसा के चक्र को तोड़ने के लिए लामबंद होने की जरूरत है। हमें आंकड़ों को इकट्ठा करके राष्ट्र सरकारों व अन्य संस्थाओं के साथ मिल कर काम करना होगा।
इस दिशा में वैश्विक स्तर पर ब्रेव मूवमेंट भी शुरू किया गया है और वैश्विक स्तर पर कार्रवाई का आह्वान भी किया गया है। भारत में इस आह्वान से संबधित बयान पर जिसमें सभी बच्चों-किशारों को यौन हिंसा से रोकथाम के लिए संरक्षण प्रदान करना, सर्वाइवर यानी जीवित/ पीडि़तों के उपचार, मुजरिम को पकड़ कर पीडि़तों को इंसाफ दिलाने वाले बिंदुओं की जिक्र है, उस पर कई संगठनों व व्यक्तियों ने हस्ताक्षर किए हैं। इसमें आईआईटी मंडी, इंडियन इंस्टीटयूट आॅफ सांइस, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आदि शमिल हैं। बाल सुरक्षा बाल अधिकारों की सूची में शमिल है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(3) राज्य को बच्चों के हित की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित बाल अधिकार कंवेशन पर भारत सरकार ने अपनी सहमति भी दर्ज कराई हुई है। इस बाल अधिकार कंवेशन के अनुच्छेद 3 के अनुसार परिवार, स्कूल, स्वास्थ्य संबधित संस्थाओं और सरकार पर बच्चों के हितों को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी डाली गई है। भारत व दुनिया के अन्य मुल्कों को बाल यौन शोषण सरीखी समस्या के प्रति अति गंभीर नजरिया अपनाने की दरकार है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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