अरविंद जयतिलक का लेख : यह गांधी की कांग्रेस नहीं

अरविंद जयतिलक का लेख : यह गांधी की कांग्रेस नहीं
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28 दिसंबर, 1885। कांग्रेस का स्थापना दिवस। दिन के 12 बजे मुंबई का गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज कांग्रेसजनों से खचाखच भरा हुआ था। अंग्रेज अधिकारी एलन ऑक्टेवियम ह्यूम ने व्योमेश चंद्र बनर्जी के सभापतित्व का प्रस्ताव रखा और एस सुब्रमण्यम अय्यर और काशीनाथ त्रयंबक तैलंग ने उसका समर्थन किया। इस तरह कांग्रेस का जन्म हुआ और साथ ही पहला अधिवेशन भी संपन्न हो गया।

अरविंद जयतिलक

28 दिसंबर, 1885। कांग्रेस का स्थापना दिवस। दिन के 12 बजे मुंबई का गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज कांग्रेसजनों से खचाखच भरा हुआ था। अंग्रेज अधिकारी एलन ऑक्टेवियम ह्यूम ने व्योमेश चंद्र बनर्जी के सभापतित्व का प्रस्ताव रखा और एस सुब्रमण्यम अय्यर और काशीनाथ त्रयंबक तैलंग ने उसका समर्थन किया। इस तरह कांग्रेस का जन्म हुआ और साथ ही पहला अधिवेशन भी संपन्न हो गया। कांग्रेस ने इस अधिवेशन में अपना उद्देश्य सुनिश्चित किया कि वह देशवासियों के बीच जाति संप्रदाय तथा प्रांतीय पक्षपातों की भावना को दूर कर उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करेगी। इस अधिवेशन में कुल नौ प्रस्ताव पारित हुए और सभी का सरोकार देश व समाज के कल्याण से जुड़ा था।

समय के साथ कांग्रेस की प्रासंगिकता बढ़ती गई और देश का जनमानस उससे जुड़ता गया। कांग्रेस के नेतृत्व में ही आजादी की लड़ाई लड़ी गई और देश स्वतंत्र हुआ। आजादी के तत्काल बाद ही गांधी जी ने कांग्रेस को भंग करने की सलाह दी। उनका तर्क था कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य आजादी हासिल करना था और वह लक्ष्य पूरा हुआ। अब इसे बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं, लेकिन गांधी जी के अनुयायिओं ने उनकी एक न सुनी और कांग्रेस को भंग नहीं होने दिया। उनका मकसद कांग्रेस के जरिये सत्ता तक पहुंचना था और वे इसमें सफल रहे। यानी जिस कांग्रेस संगठन के तले आजादी की जंग लड़ी गई वह सत्ता का सोपान बन गई। कांग्रेस के प्रति आमजन की असीम श्रद्धा ने कांग्रेस पार्टी को दीर्घकाल तक सत्ता में बनाए रखा। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि आजादी के बाद कांग्रेस का मूल चरित्र बदल गया, लेकिन कांग्रेस के नेताओं द्वारा अब भी यही मुनादी पीटी जाती है कि मौजूदा कांग्रेस गांधी की ही कांग्रेस है। कांग्रेस के सफर पर नजर दौड़ाएं तो 1947 से लेकर 1964 तक देश की बागडोर पंडित जवाहर लाल नेहरू के हाथ में रही। निःसंदेह वे एक महान राजनेता थे और उन्होंने देश की प्रगति में अहम योगदान दिया। उन्होंने भारत की आर्थिक समृद्धि के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाई। सिंचाई के उचित प्रबंध के लिए बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं का शुभारंभ किया।

इन योजनाओं को आधुनिक भारत का तीर्थ कहा। रोजगार सृजन और तरक्की के लिए कल-कारखानों की स्थापना की। निर्गुटता और पंचशील जैसे सिद्धांतों का पालन कर विश्व बंधुत्व एवं विश्वशांति को एक सूत्र दिया। मार्शल टिटो और अब्दुल गमाल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक गुटनिरपेक्ष आंदोलन की जमीन तैयार की। इसके अलावा उन्होंने कोरियाई युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के समाधान की दिशा में शानदार पहल की, लेकिन उनसे कुछ भूलें भी हुई जिसका खामियाजा देश को आज तक भुगतना पड़ रहा है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने लिखा है कि 'निःसंदेह बेहतर होता यदि नेहरू को विदेश मंत्री और सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्यान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।' 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस का शीराजा बिखरने लगा। उसका मूल कारण यह रहा कि जिस कांग्रेस ने देश को जाग्रत किया, समाज में समरसता घोली, बहुधर्मी और बहुविविधतापूर्ण भारतीय समाज के विभिन्न संप्रदायों के बीच समरसता के फूल उगाए उस कांग्रेस ने सत्ता में बने रहने के लिए देश को जाति, धर्म, पंथ और संप्रदायों में बांट दिया। आजादी से पूर्व जिस कांग्रेस के अखिल भारतीय चरित्र में संपूर्ण जाति, धर्म और पंथ का प्रतिनिधित्व समाहित था वह वंशवाद में विलीन होकर रह गया।

इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी और उनके चापलूसों ने कांग्रेस की परिभाषा ही बदल दी। कांग्रेस मायने इंदिरा और इंदिरा मायने कांग्रेस हो गया। उसका घातक परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी की सरकार ने देश में आपातकाल थोप दिया। सत्ता के बूते संविधान और न्यायभावना को मसल दिया। आपातकाल का कारण 12 जून, 1975 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला था जिसमें न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने श्रीमती गांधी के रायबरेली चुनाव को यह कहकर रद कर दिया था कि चुनाव भ्रष्ट तरीके से जीता गया। न्यायमूर्ति सिन्हा ने श्रीमती गांधी पर छह साल चुनाव लड़ने का प्रतिबंध लगाया। इस फैसल से श्रीमती गांधी तिलमिला गई और उनका सत्ता अहंकार जाग उठा। उनके सामने दो रास्ते बचे। एक, या तो वह न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए अपने पद से इस्तीफा दें या संविधान का ही गला घोंट दें।

उन्होंने दूसरे रास्ते को चुना और संविधान का गला घोंट दिया। उन्होंने आंतरिक सुरक्षा को मुद्दा बनाकर बगैर कैबिनेट की मंजूरी लिए ही देश पर आपातकाल थोप दिया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध लगा दिए। आगामी आमचुनाव में इंदिरा गांधी को सत्ता-सिंहासन से उखाड़ फेंका। इंदिरा गांधी के निधन के बाद वंशवाद की पर्याय बन चुकी कांग्रेस की कमान राजीव गांधी के हाथ आई और वे देश के प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री बनते ही बड़े पैमाने पर सिखों का नरसंहार हुआ जिसके गुनाहगार आज भी कांग्रेस पार्टी में बने हुए हैं। राजीव गांधी की सरकार पर भ्रष्टाचार के ढेरों आरोप लगे। बोफोर्स तोप घोटाले में उनका नाम खूब उछला और आखिरकार सत्ता से हाथ धोना पड़ा। राजीव गांधी के बाद कांग्रेस की कमान उनकी पत्नी सोनिया गांधी के हाथ आई। कांग्रेस के सत्ता में आने पर सोनिया गांधी ने डॉ. मनमोहन सिंह के हाथ देश की कमान सौंप दी। आजादी पूर्व कांग्रेस का चरित्र ऐसा नहीं था जैसा कि आज है। कांग्रेस के नेता मौजूदा कांग्रेस की चाहे जितनी प्रशंसा करें लेकिन सच यहीं है कि यह गांधी की कांग्रेस नहीं है।

आज की कांग्रेस का चेहरा टू-जी स्पेक्ट्रम, कोयला आवंटन, काॅमनवेल्थ गेम्स, हेलीकाॅप्टर खरीद और आदर्श हाऊसिंग जैसे घोटालों से रंगा है। उस पर संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण और न्यायालय की आंख में धूल झोंकने के संगीन आरोप हैं। माथे पर तुष्टीकरण का दाग है। 13 मई 1952 को जब संसद की पहली बैठक संपन्न हुई थी तब देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि संसद जनभावनाओं की अपेक्षा की सर्वोच्च पंचायत है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसदीय लोकतंत्र को जवाबदेही से जोड़ते हुए कहा था कि भारत की सेवा का अर्थ लाखों-करोड़ों पीड़ित जनों की सेवा करना है, लेकिन देखा जा रहा है कि मौजूदा कांग्रेस राजेंद्र प्रसाद, पंडित नेहरु, सरदार पटेल के आदर्शों पर चलने वाली नहीं है। यह कांग्रेस सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका गांधी की कांग्रेस है जिसका लक्ष्य किसी भी कीमत पर सत्ता तक पहुंचना है।

( ये लेखक के अपने विचार हैं। )

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