अग्निपथ : सामान्य नहीं यह हिंसा-उपद्रव

अवधेश कुमार
अग्निपथ के विरोध में हो रही हिंसा और आगजनी ने पूरे देश को चौंकाया है। आप किसी भी दृष्टिकोण से अग्निवीर को देख लीजिए विरोध के नाम पर ऐसी हिंसा और अराजकता का कोई कारण नजर नहीं आएगा। कुछ समय के लिए अग्निवीर के तथ्यों को अलग रख दीजिए। जरा सोचिए, इसमें ऐसा क्या है जिसके सामने आते ही विरोध के नाम पर भीषण आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा होने लगे? 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब पिछड़ों के लिए आरक्षण की योजना केंद्र की सेवाओं में भी लागू की तो इस तरह का विरोध हुआ था। उसमें गैर दलित व गैर पिछले पिछड़ी जातियों के छात्रों को लगा था कि आरक्षण से उनके लिए नौकरियों के अवसर कितना जाएंगे। इस कारण विरोध में व्यापक हिंसक हुआ और छात्रों द्वारा आत्मदाह करने तक की घटनाएं हुई। अग्निवीर योजना में किसी का कुछ जाना नहीं है। यह योजना अनिवार्य नहीं है। जिसे पसंद होगा वह योजना में आवेदन करेगा और जाएगा जिसे नहीं पसंद होगा नहीं जाएगा। विरोधियों ने देश और दुनिया में ऐसे प्रस्तुत कर दिया है मानो हजारों -लाखों लोग सेना में भर्ती होने वाले थे जिनको इस योजना से वंचित कर दिया गया है। यही नहीं भविष्य के लिए उनके रास्ते अवरुद्ध कर दिए गए हैं तथा केवल 4 वर्ष की अवधि के लिए निश्चित वेतनमान पर सेवा लेकर उन्हें जीवनभर के लिए निराश्रित और बेरोजगार छोड़ दिया जाएगा। यानी कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी सरकार की छवि ऐसी बनाई गई है कि यह रोजगार की तलाश कर रहे युवाओं और छात्रों की दुश्मन है। उन्हें सेना जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के रोजगार से वंचित रखना चाहती है। ध्यान रखने की बात है कि जिस दिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस योजना की घोषणा की उसके कुछ ही देर बाद से इसका विरोध आरंभ हो गया जो धीरे-धीरे भारी हिंसा आगजनी तोड़फोड़ से बढ़ता चला गया। क्यों? अग्निवीर योजना की पूरी जानकारी इतनी जल्दी विरोध करने वालों के पास कैसे पहुंच गई?
यद्यपि हिंसा कई राज्यों में हुए लेकिन सबसे ज्यादा शिकार बिहार हुआ है। तो यह प्रश्न भी उठेगा कि आखिर बिहार में सबसे ज्यादा हिंसा क्यों? अगर सेना में भर्ती से वंचित होने का ही सवाल है तो हिंसा देखकर निष्कर्ष यही निकलेगा कि बिहार से भारी संख्या में नौजवान हर वर्ष भर्ती होते हैं। सच यह है कि प्रतिवर्ष बिहार से सेना में जाने वाले युवाओं की संख्या औसत ढाई हजार है। उत्तर प्रदेश की भी औसत संख्या 6500 है। इतनी कम संख्या में जहां लोग सेना में जाते हो वहां इतनी बड़ी हिंसा अग्निवीर के कारण तो नहीं हो सकती। बिहार से ज्यादा हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड से लोग सेना में जाते हैं। जाहिर है, ऐसी हिंसा का मूल कारण कुछ और है। यह नहीं कह सकते कि इस आंदोलन में छात्र और नौजवान नहीं है लेकिन आंदोलन केवल उनका नहीं है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। हिंसा के आ रहे विजुअल की थोड़ी गहराई से समीक्षा करेंगे तो साफ दिख जाएगा कि अनेक जगह आग लगाने वाले बिल्कुल पारंगत है। जिस तरह रेलवे की बोगी में पेट्रोल डालकर आग लगाया जा रहा है इससे पता चलता है कि इसका ज्ञान उनको है। सामान्य आंदोलनों की आगजनी में थोड़ा जला ,थोड़ा रह गया, कहीं आग लगा फिर बुझ गया। इस आंदोलन में ज्यादातर जगहों की आगजनी में संपत्तियां पूरी तरह खाक हो गई। एक विजुअल में साफ दिखा कि बिहार के तारेगाना रेलवे स्टेशन में स्टेशन मास्टर का केबिन व्यवस्थित तरीके से जल रहा है । तारेगना रेलवे स्टेशन में पुलिस के साथ मोर्चाबंदी में प्रदर्शनकारियों की ओर से गोलियां चलीं। गोलियां चलाने वाले क्या सामान छात्र और नौजवान थे? ये तो कुछ उदाहरण हैं। आप देखेंगे कि चेहरे पर कपड़ा बांधे हुए हाथों में लाठी,डंडे, पेट्रोल के कनस्तर लिए ऐसे लोगों की बड़ी संख्या इस हिंसा में चारों तरफ नजर आ रही है। बिहार में 8 बजे रात से सुबह 4 बजे तक ट्रेनों का चालन निश्चित किया गया क्योंकि पुलिस का ने बताया 5 बजे सुबह से पत्थरबाजी शुरू हो जाती है। इतने पत्थरबाज कहां से आ गए? कश्मीर से निकलकर पत्थरबाजी उत्तर प्रदेश से बिहार और झारखंड तक पहुंची है।
ऐसे अनेक डरावने तथ्य हैं जिनके आधार पर आप मोटा -मोटी अनुमान लगा सकते हैं कि विरोध और आंदोलन के नाम पर कैसी शक्तियां इसके पीछे हैं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ,कांग्रेस सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने आंदोलन और दूसरे दिन आयोजित बंद का समर्थन किया था। जब आंदोलन के नाम पर इतनी हिंसा होने लगी राजनीतिक पार्टियों का दायित्व था कि अपने को अलग होने की घोषणा करते। इसकी जगह इन्होंने दूसरे दिन बंद का समर्थन किया और राजद, कांग्रेस जनाधिकार पार्टी तथा कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यकर्ता जगह-जगह स्वयं जबरन बंद कराते देखे गए । 18 जून के दिन टेलीविजन में ज्यादातर बायट राजद नेताओं के आ रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे यह आंदोलन उस पार्टी का है । राजद कहती है कि हिंसा से उसका कोई लेना-देना नहीं तो फिर इसकी जिम्मेवारी किसके सिर जा सकती है? राजद बिहार की बड़ी राजनीतिक शक्ति है। उसके सहयोग के बिना सरकार के विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन संभव नहीं था।
वास्तव में देखा जाए तो 2018 के बाद से भारत में केंद्र की मोदी सरकार के विरोध में होने वाले अभियान ऐसे ही हिंसक होते गए हैं। नागरिकता कानून संशोधन के दौरान जामिया मिलिया से आरंभ हिंसा कई जगह गया। कृषि कानून विरोधी आंदोलन में लाल किले की हिंसा सबको याद है। पिछले दिनों एक परीक्षा को लेकर व्यापक पैमाने पर इसी तरह हिंसा हुई। ज्ञानवापी और भाजपा के एक प्रवक्ता के टेलीविजन डिबेट में दिए गए जवाब विरोध के नाम पर प्रदर्शन और हिंसा सबसे ताजा है। 10 जून जुम्मे की नमाज के बाद की हिंसा भुला नहीं जा सकता। कई मुस्लिम नेताओं ने अगले जुम्मे को भी बंद और विरोध की घोषणा की थी। ध्यान रखिए ,17 जून के मुख्य विरोध प्रदर्शन का दिन भी जुम्मा का ही था। देश में और बाहर ऐसी बड़ी शक्तियां किसी भी मुद्दे को लेकर विरोध के नाम पर हिंसा, आगजनी तथा उसके दुष्प्रचार के लिए पूरी तैयारी से काम करती हैं। इन शक्तियों की पूरी कोशिश भारत में केवल अशांति, अराजकता और हिंसा ही पैदा करना नहीं, दुनिया को संदेश देना है कि केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की भाजपा सरकार से शासन संभल नहीं रहा, देश में उनके विरुद्ध आक्रोश है, इसलिए लोग सड़कों पर उतर कर आगजनी कर रहे हैं, कानून व्यवस्था विफल है। सच कहा जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे धीरे-धीरे देश उस दशा में जा रहा है जहां सरकार के विरोध के नाम पर ऐसी हिंसा और तोड़फोड़ सामान्य घटना बन जाएगा। यह ठीक नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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