अखिलेश आर्येन्दु का लेख : वनों को सुरक्षित करने का वक्त

अखिलेश आर्येन्दु
स्काॅटलैंड के ग्लासगो के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से निपटने के लिए 2030 तक जंगलों की अंधाधुंध कटाई रोकने का संकल्प सम्मेलन में सभी जिम्मेदार देशों ने हिस्सा लिया, जिसके तहत वनों की अंधाधुंध कटाई को लेकर 105 देशों ने कटाई पर रोक लगाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। गौरतलब है 'टिकाऊ विकास और समावेशी ग्रामीण बदलाव को प्रोत्साहन देने' पर खुलकर चर्चाएं हुईं। विकसित देशों का ढुलमुल रवैया क्या पहले की तरह रहेगा या वे पर्यावरण के हित में जंगल और जनसामान्य के बेहतर जीवन यापन पर अपनी सोच में बदलाव करने पर विचार करेंगे? वनों की कटाई और ग्रामीण समावेशी विकास पर जो चर्चाएं हुईं हैं और ग्रीन हाऊस गैसों की बढ़ती समस्या पर जो समझौते हुए हैं, वे इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस समझौते में ब्राजील, इंडोनेशिया डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ काॅन्गो शामिल हैं जो दुनिया के वन्यजीव-सम्पन्न उष्ण कंटिबंधीय वनों के घर हैं। गौरतलब है जंगलों की कटाई फाॅसिल ईंधन के बाद, जलवायु परिवर्तन के सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण उत्प्रेरकों में से एक है। द फारेस्ट स्टीवर्डशिप काउंसिल (एफएससी) के मुताबिक 'बुनियादी रूप से दुनिया के जंगल किसी राजनीतिक घोषणापत्र से नहीं बचाए जा सकते हैं। आय और जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर लोगों के समक्ष वन सुरक्षा और टिकाऊ वन प्रबंधन को आर्थिक रूप से आकर्षण समाधान के रूप में प्रस्तुत करना होगा।''
जंगलों की अंधाधुंध कटाई की रफ्तार कितनी तेज है इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंताओं से भी समझा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 1990 के बाद से 420 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र के (एक अरब एकड़) जंगल नष्ट हो गए। इसका मुख्य कारण खाद्यानों की बढ़ती मांग के मद्देनजर कृषि का विस्तार बताया गया। गौरतलब है 2014 में संयुक्त राष्ट्र ने 2020 तक वनों की कटाई रोकने या आधा करने और 2030 तक इसे समाप्त करने के लिए एक समझौते की घोषणा की थी। इसके बाद 2017 में इसने 2030 तक वनाच्छादित भूमि को 3 प्रतिशत बढ़ाने का एक और लक्ष्य निर्धारित किया था, लेकिन इससे वनों की अंधाधुंध कटाई पर कोई असर देखने को नहीं मिला। एक आंकड़े के अनुसार, हर दशक (हेक्टेयर) जंगल का औसत क्षेत्र नष्ट हो रहा है। 1990 से 2000 के मध्य जहां 7.8 मिलियन क्षेत्र के जंगल नष्ट हुए वहीं 2000-2010 के दशक में 5.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट हुए। इसी तरह 2010 से 2020 के दशक के दौरान 4.7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल नष्ट हुए। सर्वाधिक जंगल ब्राजील में 26.2 मिलियन हेक्टेयर 2002 से 2020 के मध्य नष्ट किए गए। इंडोनेशिया में 9.7 मिलियन हेक्टेयर जंगल खत्म कर दिए गए। छोटे से देश लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो में 5.3 मिलियन हेक्टेयर भूमि के जंगल बर्बाद हुए तो बोलीविया के 3 मिलियन हेक्टेयर भूमि में फैले वन विकास की भेंट चढ़ गए। जंगलों की अंधाधुंध कटाई के पीछे महज कृषि क्षेत्र का विस्तार नहीं है बल्कि खनन संचालन भी एक बड़ा कारण है।
गौरतलब है वनों की कटाई के पीछे कृषि का विस्तार है, क्योंकि बढ़ती आबादी के कारण खाद्य जरूरतों की मांग बढ़ रही है। वहीं पर, सोयाबीन और पाम तेल जैसी वस्तुओं की वजह से वनों की कटाई खतरनाक दर पर बढ़ रही है। वहीं दूसरी ओर तेल और खनन कार्यों के लिए लोग जंगलों को काट रहे हैं। बड़े पैमाने पर पर खनन कार्य, जंगलों के समाशोधन के माध्यम से प्रमुख वनों की कटाई का कारण बनता है। ग्लासगो सम्मेलन में वनों की कटाई को रोकने पर खास तवज्जो दी गई, लेकिन जिन कारणों से वन काटे जा रहे हैं उन कारणों का दूर किए बगैर क्या वनों की कटाई रोक पाना संभव है? क्या ब्राजील और इंडोनेशिया सहित दूसरे सभी देश जहां जंगलों की अंधाधुंध कटाई होती रही है, उन देशों की सरकारें जंगल और वन्य जीव सुरक्षा के मानक ईमानदारी से तय कर पाएंगे? ग्लासगो में वन कटाई रोकने के लिए जो समझौता हुआ है उसके लिए फंडिग जुटाना एक बड़ा मुद्दा है। अभी महज 19 अरब डाॅलर की फंडिग हुई है जिसमें एक तिहाई हिस्सा निजी क्षेत्र सेक्टर के निवेशकों और एसेट प्रबंधकों से आएगा जिसमें अवीवा, श्रोडर्स और आक्सा शामिल हैं। गौरतलब है जलवायु वार्ताओं में 50 वनाच्छादित उष्ण कटिबंधीय देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले द कोलिशन आफ रेनफॅरिस्ट नेशंस (वर्षा वन वाले देशों का गठबंधन) जैसे संगठनों और समूहों का मानना है कि इस समझौते को बनाए रखने के लिए अगले एक दशक में अतिरिक्त 100 अरब डाॅलर हर साल लगेंगे। यानी अभी और अधिक फंडिग की जरूरत है।
दरअसल, वनों के प्रति दुनियाभर में कोई ऐसा आंदोलन अभी नहीं खड़ा किया जा सका है जो आमजन और सरकारों को वनों की कटाई रोकने के लिए विवश करता। भारत में उत्तराखंड, झारखंड, कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में वन संरक्षण के लिए सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से प्रयास किए गए और उनमें सफलता भी मिली। वनों की कटाई से वनभूमि की कमी ही नहीं हो रही है बल्कि जैविक विविधता भी धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। ग्लासगो में वन कटाई को लेकर जो समझौता हुआ है वैसा ही समझौता 2014 में 'न्यूयार्क घोषणा पत्र' के हस्ताक्षर करने वाले 40 देशों ने किया था, जिसके अनुसार 2020 तक निर्वनीकरण को आधा करना था, लेकिन इस पर शायद आंशिक अमल ही किया गया। इसके पीछे कई कारण हैं जिनमें स्थानीय समस्याएं, खाद्यानों की बढ़ती मांग और खनन प्रमुख हैं, लेकिन ग्लासगो सम्मेलन में हुए समझौते पर इंडोनेशिया के राश्ट्रपति के बयान में कहा गया कि जारी विकास, कार्बन उत्सर्जन के नाम पर रुकना नहीं चाहिए।
भारत ने वनों की कटाई रोकने वाले घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करके यह बता दिया है कि वह वनों की कटाई रोकने के लिए प्रतिबद्ध तो है ही साथ ही वन क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति भी उसकी ईमानदार सोच है। लेकिन इतने से कोई बात बनने वाली नहीं है। जिस रफ्तार से वनस्पतियाें का विलोपन भारत में हो रहा है उससे यह कुछ कानूनों के जरिए उनकी पुख्ता सुरक्षा सुनिष्चित नहीं है। गौरतलब है जंगलों की कटाई और इसी से जुड़ा वन्य जीवों और वनस्पतियों के विलोपन का मुद्दा कोई सामान्य मुद्दा नहीं है। यह जैविक विविधता, वन्य जीव सुरक्षा, पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा है, इसलिए भारत सहित उन सभी देशों को तत्काल ठोस कदम उठाने होंगे। इससे जहां कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन से बढ़ रही खतरनाक समस्याओं का हल खोजने में मदद मिलेगी वहीं पर वनों के सहारे जीवन यापन करने वाले लोगों की भी सुरक्षा हो सकेगी। जरूरत इस बात की है कि विश्व स्तर पर जितनी मजबूती के साथ सरकारें वन सुरक्षा के लिए कदम उठाती हैं उतनी ही जिम्मेदारी से सभी देशों के जिम्मेदार नागरिकों को वनों की सुरक्षा के लिए वनों से होने वाले लाभों और वनों से आम आदमी के रिश्तों के बारे में भी जागरूक करना होगा। इसमें मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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