राज कुमार सिंह का लेख : आत्ममुग्ध ओबामा का सच

राज कुमार सिंह का लेख : आत्ममुग्ध ओबामा का सच
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अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के बाद जो टिप्पणी की है, वह अमर्यादित के साथ-साथ आपत्तिजनक भी है। उन्होंने जिस तरह की आशंका जाहिर की है उसमें सच्चाई का लेशमात्र भी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग के पूर्व अध्यक्ष जॉनी मूर ने आपत्ति जताते हुए ओबामा को जो नसीहत दी है, उसके बाद कुछ और कहने की जरूरत नहीं, पर ऐसी मानसिकता का तकाजा है कि ओबामा को आईना दिखाया जाना चाहिए। असुरक्षा में अल्पसंख्यकों का क्या हाल होता है पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों की घटती जनसंख्या इसका प्रमाण है।

विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र माने जाने वाले अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति रह चुके बराक हुसैन ओबामा ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की बाबत जो टिप्पणी की, वह अवांछित ही नहीं, आपत्तिजनक और अमर्यादित भी है। ओबामा ने एक इंटरव्यू में कहा कि अगर वह राष्ट्रपति होते और मोदी से मिलते, जिन्हें वह अच्छी तरह जानते हैं, तो भारत में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की बाबत बात करते। यह भी कि ‘अगर भारत अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं करता तो इस बात की प्रबल आशंका है कि किसी मोड़ पर देश बिखरने लगे। हमने देखा है कि जब आपके अंदर इस प्रकार के बड़े आंतरिक संघर्ष होने लगते हैं तो क्या होता है। तो यह न केवल मुस्लिम भारतीयों, बल्कि हिंदू भारतीयों के हितों के भी विपरीत होगा। मुझे लगता है कि इन चीजों के बारे में ईमानदारी से बात करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है।‘

ओबामा की टिप्पणी पर तीन स्वाभाविक आपत्तियां हैं। पहली, सामान्य शिष्टाचार की दृष्टि से अपने मेहमान और उसके देश के बारे में इस तरह की टिप्पणी अमर्यादित है। दूसरी, माना कि कभी जो बाइडेन, ओबामा के उप राष्ट्रपति रहे हैं, लेकिन अब जबकि वह एक निर्वाचित राष्ट्रपति हैं, ओबामा को उनका काम उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री की वार्ता का एजेंडा तय करने की कोशिश निश्चय ही अवांछित है। तीसरी और सर्वाधिक महत्वपूर्ण, ओबामा की टिप्पणी पूरी तरह कपोल कल्पित और झूठ का पुलिंदा है।

अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग के पूर्व अध्यक्ष जॉनी मूर ने ओबामा को जो नसीहत दी है, उसके बाद कुछ और कहने की जरूरत नहीं, पर ऐसी मानसिकता का तकाजा है कि अमेरिका, खासकर ओबामा को आईना दिखाया जाना चाहिए। मूर ने एक इंटरव्यू में कहा कि ओबामा को अपनी ऊर्जा भारत की आलोचना के बजाय उसकी प्रशंसा में खर्च करनी चाहिए। यह भी कि भारत मानव इतिहास में सबसे विविधतापूर्ण देश है। यह एक आदर्श देश नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका भी एक आदर्श देश नहीं है, लेकिन इसकी विविधता ही इसकी ताकत है। मूर की स्पष्टवादिता बहुत कुछ कह देती है। फिर भी ओबामा या उनकी अवांछित टिप्पणी से उत्साहित भारत विरोधी तत्वों की गलतफहमी दूर न हो पाये तो उन्हें अमेरिका के सबसे बड़े थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट पढ़ लेनी चाहिए, जिसमें साफ कहा गया है कि 98 प्रतिशत भारतीय मुस्लिम मानते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होता। जब अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग के पूर्व अध्यक्ष तथा अमेरिका के सबसे बड़े थिंक टैंक की राय भारत में अल्पसंख्यकों की स्थितियों के बारे में इतनी सकारात्मक है, तो फिर ओबामा इतने नकारात्मक और चिंताजनक क्यों नजर आये? ओबामा की सोच इसलिए भी चौंकाती है कि वह पहले अमेरिकी राष्ट्रपति रहे, जिन्होंने बतौर राष्ट्रपति दो बार भारत की यात्रा की। भारत के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनने वाले भी वह पहले अमेरिकी राष्ट्रपति रहे। प्रधानमंत्री मोदी की पहली अमेरिका यात्रा के समय ओबामा ही राष्ट्रपति थे।

ओबामा ने खुद कहा है कि वह मोदी को अच्छी तरह जानते हैं, तब फिर उनके दिमाग में इतनी नकारात्मकता कहां से आई कि उन्हें भारत में अल्पसंख्यक इतने असुरक्षित नजर आए कि आंतरिक संघर्ष के चलते किसी मोड़ पर देश के ही बिखरने की आशंका भी जता दी? एक पूर्व राष्ट्रपति की बाबत कोई हल्की टिप्पणी उचित नहीं, पर खुला रहस्य है कि अमेरिका समेत पश्चिमी देशों में तमाम देशों के हित में लॉबी काम करती हैं। इन लॉबिस्ट में राजनेताओं से ले कर पूर्व नौकरशाह, एनजीओ, एक्टिविस्ट और पत्रकार सभी शामिल रहते हैं। किसी देश के लिए लॉबिंग का अर्थ उसके विरोधियों के हितों के विरुद्ध काम करना भी है। स्वाभाविक ही मोदी-बाइडेन वार्ता से भारत-अमेरिकी संबंधों के नई ऊंचाई पर पहुंचने से आशंकित लॉबिस्ट की सक्रियता चरम पर रही होगी।

हालांकि मोदी सरकार में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ओबामा को आईना दिखा दिया है कि उनके राष्ट्रपतिकाल में एक-दो नहीं, बल्कि छह मुस्लिम देशों पर बमबारी की गई। आदर्श स्थिति होती अगर यह काम विपक्षी दल करते। इससे संदेश जाता कि राजनीतिक मतभेदों के बावजूद राष्ट्र हित में भारत एक सुर में बोलता है। इससे भारतीय लोकतंत्र की साख और बढ़ती। अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति रहे ओबामा अपने देश में धर्म-नस्ल के आधार पर भेदभाव ही नहीं, अन्याय और शोषण से भी अनभिज्ञ तो नहीं होंगे। जब-तब अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बनने वाली घटनाएं बताती हैं कि वहां नस्लीय भेदभाव कितना गहरा है और मानवाधिकार किस तरह ताक पर रखे हुए हैं।

आत्ममुग्ध अमेरिका दुनिया को लोकतंत्र और मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाता है, लेकिन उसने खुद जिस तरह पाकिस्तान समेत अनेक देशों में लोकतंत्र से खिलवाड़ करते हुए तानाशाहों को शह दी है, किसी से छिपा नहीं है। पाकिस्तान में मरणासन्न लोकतंत्र के लिए सेना की सत्ता लोलुपता के अलावा अमेरिका ही जिम्मेदार है। तमाम छोटे विकासशील देशों में कठपुलती सरकारें बनाना-गिराना जिसका शगल रहा है। ये तो परदे के पीछे के खेल होते हैं, पर बाइडेन से चुनाव हारने के बाद डोनाल्ड ट्रंप की फर्जी जनादेश संबंधी टिप्पणी और उनके समर्थकों द्वारा कैपिटल हिल पर हमले से उजागर अमेरिकी लोकतंत्र के सच से ओबामा कैसे मुंह चुरायेंगे? जैसा कि जॉनी मूर ने साफगोई से कहा है, कोई भी देश आदर्श नहीं होता। भारत जैसे विशाल और बहुलतावादी देश में भी छिटपुट सामाजिक जटिलताओं से इनकार नहीं, लेकिन उसके चलते देश की साख पर ही सवाल कतई बर्दाश्त नहीं।

असुरक्षा में अल्पसंख्यकों का क्या हाल होता है पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों की घटती जनसंख्या इसका प्रमाण है। इसके उलट भारत में विभाजन के समय से मुस्लिम जनसंख्या तीन करोड़ से बढ़कर 20 करोड़ हो गई है। पाकिस्तान और इंडोनेशिया के बाद भारत मुस्लिम आबादी वाला विश्व का तीसरा बड़ा देश है। राज्यों में मुख्यमंत्री से लेकर सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति तक मुस्लिम पहुंचे हैं। जिन मोदी के शासन में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को ले कर ओबामा खुद को चिंता में दिखाई दे रहे हैं, उन्हें जिन 13 देशों ने अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाजा है, उनमें छह मुस्लिम बहुल हैं। मिस्र का सर्वोच्च सम्मान ऑर्डर ऑफ नील तो उन्हें हाल ही में मिला है।

(लेखक- राज कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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