नीलम महाजन सिंह का लेख : अदालतों में सच की ही जीत

नीलम महाजन सिंह
हाल ही में न्यायपालिका पर, सोशल मीडिया में इतना हमला हुआ है कि जजों पर व्यक्तिगत आरोप लगे हैं। यह निंदनीय है। भारत के संविधान ने स्पष्ट रूप से पारिभाषित किया है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन महत्वपूर्ण अंग हैं और वे एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। न्यायपालिका को सरकार से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। 'अदालत की अवमानना' विवादास्पद मुद्दा रहा है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों को अवमानना की शक्तियां प्राप्त हैं। जिला एवं सत्र न्यायालयों को अवमानना का अधिकार नहीं है। वे अपराधी को फटकार सकते हैं। यह उम्मीद की जाती है कि अदालतों में जाने वाले लोग सम्मानजनक तरीके से व्यवहार करेंगे।
यह भी उल्लेख किया जा सकता है कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति 'मूल रूप से एक कानूनी प्रक्रिया' है। देश के सर्वोच्च न्यायालय में भी सीधे नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों के चयन की एक जांची-परखी कॉलिजियम व्यवस्था है। हालांकि हाल के वर्षों में देखा गया है कि 'कॉलिजियम' ने पूर्ण शक्तियों का उपयोग नहीं किया है। न्यायपालिका अपने आप में पूरी तरह स्वतंत्र है और वह कानून के अनुसार ही काम करती है। न्यायालय समय लेने वाली प्रक्रियाओं के साथ, न्याय प्राप्त करने की प्रणली बहुत महंगी है। इससे न्यायपालिका में आम आदमी के विश्वास की हानि होती है! वकीलों द्वारा तैयार किए गए वादों में बहुत सारे झूठ, मनगढ़ंत बातें, अनुमान लिखे जाते हैं। कई बार आम आदमी और जजों के बीच मतभेद देखने को मिलते हैं। हमारी न्याय व्यवस्था साक्ष्यों, गवाहों पर चलती है। इसमें जांच एजेंसियों व उसमें शामिल कर्मियों की अहम भूमिका होती है। जांच एजेंसियां जितनी मेहनत व वैज्ञानिक तरीके से साक्ष्य जुटाती हैं, फैसले की दर भी उसी अनुपात में होती है। देखा गया है कि जांच के दौरान कई बार निर्दोष लोग पुलिस की बर्बरता, मनमानी, थर्ड डिग्री यातना के शिकार होते हैं, हमारे देश में फ़र्जी एफआईआर में झूठे फंसाने के भी बहुत मामले सामने आते हैं। हाल ही में जजों पर व्यक्तिगत हमलों का चलन हो रहा है, जब आदेश उनके पक्ष में नहीं हैं तो!
अब सोशल मीडिया के आगमन के साथ यह देखा गया है कि आम लोग फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर निंदनीय बयान देते हैं जो न केवल न्यायाधीशों के लिए बल्कि उनके परिवार के सदस्यों के लिए भी हानिकारक होते हैं। हाल की भयानक घटनाओं में, भाजपा की नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल के पैगंबर मुहम्मद पर एक बयान के बाद, दो हिंदुओं की निंदनीय हत्या हुई है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने नूपुर शर्मा को गिरफ्तार नहीं करने पर सरकार और दिल्ली पुलिस के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि गृह मंत्रालय, भाजपा और पुलिस, उनकी रक्षा कर रही है। जहां तक नूपुर शर्मा के खिलाफ सभी एफआईआर को दिल्ली ट्रांसफर करने की याचिका दायर करने वाले वकील मनिंदर सिंह की बात है, तो उसे खारिज कर दिया गया है। इस तरह की राहत के लिए अर्नब गोस्वामी के मामले में यह स्थापित है कि विभिन्न राज्यों में सभी प्राथमिकीयों को याचिकाकर्ता की इच्छा के अनुसार एक राज्य में स्थानांतरित कर दी जाएंगी। नूपुर शर्मा के खिलाफ तीखी मौखिक टिप्पणियों ने भाजपा, नूपुर शर्मा समर्थकों, कट्टरपंथियों द्वारा सोशल मीडिया पर हमलों की बौछार कर दी है। यह स्पष्ट है कि पैगम्बर मोहम्मद रसूल और हज़रत आयशा के खिलाफ सोशल मीडिया पर अनर्गल, अपमानजनक, ईशनिंदा वाली टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए थी। नूपुर शर्मा की टिप्पणी ने विश्व स्तर पर मुस्लिम भावनाओं को आहत किया है। दिल्ली पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय, वह कई हफ्तों से अंडरग्राउंड है! बिना शर्त माफी मांगने के लिए उसके द्वारा कोई वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं की गई है। यह सही नहीं है। इस मामले को निरपेक्षता से देखने की जरूरत है।
किसी को भी अपने या दूसरे धर्म के प्रति अपमाजनक बातें करने का अधिकार नहीं है। धर्म एक व्यक्तिगत व्यवहार है। इस पर सार्वजनिक बहस होनी ही नहीं चाहिए। आजकल टीवी पर जिस तरह विभाजनकारी व सलेक्टिव धार्मिक मुद़दों पर निरर्थक बहस का ट्रेंड बढ़ा है, वह हमारे राष्ट्र की एकता, अखंडता के लिए ठीक नहीं है। टीवी न्यूज चैनलों के लिए एक लक्ष्मण रेखा की ज़रूरत है। यह ब्रॉडकास्टिंग सेल्फ रेगुलेशन से हो तो अच्छा है। हमारे देश के टीवी चैनलों को जिम्मेदार होना चाहिए, केवल बांटनेवाले विषयों को उकसाने से राष्ट्र का भला नहीं होगा। देश में एकता, अखंडता, भारतीय मूल्यों, सामाजिक व धार्मिक सदभाव, विकास की स्थिति जैसे विषयों को अगर हम अपने टीवी बहसों का विषय बनाएंगे तो राष्ट्र को नई दिशा मिलेगी।
न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत हमले कानून के शासन को नुकसान पहुंचाते हैं। कानूनी मुद्दों का राजनीतिकरण करने के लिए सोशल और डिजिटल मीडिया का अक्सर इस्तेमाल किया जा रहा है। जस्टिस जे. बी. पारदीवाला ने कहा कि 'न्यायाधीशों पर उनके फैसलों के लिए व्यक्तिगत हमले एक 'खतरनाक परिदृश्य' की ओर ले जाते हैं, जहां न्यायाधीशों को यह सोचना पड़ता है कि कानून वास्तव में क्या सोचता है, या इसके बजाय मीडिया क्या सोचता है?' सोशल और डिजिटल मीडिया को न्यायाधीशों के खिलाफ व्यक्तिगत राय व्यक्त करने के बजाय उनके निर्णयों के रचनात्मक आलोचनात्मक मूल्यांकन का सहारा लेना चाहिए। यह वही है जो न्यायिक संस्थान को नुकसान पहुंचा रहा है और उसकी गरिमा को कम कर रहा है। जस्टिस पारदीवाला कहते हैं कि न्यायिक निर्णय जनमत के प्रभाव का प्रतिबिंब नहीं हो सकते। लोकप्रिय जन भावनाओं पर कानून के शासन की प्रधानता जरूरी है। द्वितीय न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना मेमोरियल राष्ट्रीय संगोष्ठी में न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि 'एक ओर बहुसंख्यक आबादी के इरादे को संतुलित करना और उसकी मांग को पूरा करना और दूसरी ओर कानून के शासन की पुष्टि करना एक कठिन अभ्यास है।'
देश के न्यायालय कानून को ध्यान में रखकर ही न्यायिक फैसले करतते हैं, किसी जनमत के प्रभाव में नहीं। यह बात सबको समझनी चाहिए। लोकतंत्र में, कानून अधिक महत्वपूर्ण है। कानून का सम्मान बहुत महत् और पालन अति मह्त्वपूर्ण है। अदालत जब भी कोई फैसला देती है तो वह भारतीय कानून के आलोक में देती है, इसलिए उस पर अमल भी ज़रूरी है। अगर फैसले पर अमल नहीं होगा तो अदालतों के प्रति जन विश्वास में कमी आएगी। सोशल मीडिया पर न्यायिक आदेशों के प्रति अनर्गल उपहास उचित नहीं है। यह खतरनाक ट्रेंड है। इसे रोका जाना ज़रूरी है। किसी भी आदेश के खिलाफ उच्च अपीलीय अदालत में अपील कर सकते हैं, लेकिन स्ट्रीट-स्मार्ट सोशल मीडिया पर न्यायिक आदेश की आलोचना निंदनीय है। केवल सच्चाई की जीत होनी चाहिए। सत्यमेव जयते।
( लेखक कानून की विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )
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