नीलम महाजन सिंह का लेख : यूनिफॉर्म सिविल कोड वक्त की जरूरत

नीलम महाजन सिंह
एक बार फिर से यूनिफॉर्म सिविल कोड का मामला तूल पकड़ रहा है। हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संकेत दिया है कि राम मंदिर, सीएए, ट्रिपल तलाक और अनुच्छेद 370 तो हो गया, अब कॉमन सिविल कोड की बारी है। भारतीय जनता पार्टी के मूल उद्देश्यों में तीन मुद्दे प्रखर हैं। अयोध्या में श्री राम मंदिर का निर्माण, एक विधान एक संविधान के तहत कश्मीर से अनुच्छेद 370 व 35-ए के अधिकांश प्रावधानों को हटाना व यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना। दिल्ली उच्च न्यायालय की जज माननीय जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने यह महत्वपूर्ण आदेश दिया था, जिससे देश की राजनीति पुन: गरमा गई है। भारत में फिलहाल संपत्ति, शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामलों के लिए हिंदू, ईसाई, ज़ोरेसटरीयन और मुसलमानों का अलग-अलग पर्सनल लॉ है। इस कारण एक जैसे मामले को निपटाने में पेचीदगियों का सामना करना पड़ता है। देश में लंबे अरसे से समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर बहस होती रही है। खासकर भाजपा जोर-शोर से इस मुद्दे को उठाती रही है, लेकिन कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल इसका विरोध करते रहे हैं। तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) को अवैध करार कर भाजपा ने मुस्लिम महिलाओं को काफी राहत प्रदान किया, इसके चलते मुस्लिम महिलाओं में भाजपा की पैठ भी मजबूत हुई। उत्तर-प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इसका असर भी देखने को मिला, जहां भाजपा और ताकतवर बनकर उभरी। इसका सामाजिक और धार्मिक असर तो पड़ता ही है। राजनैतिक दलों की भी अपनी-अपनी विभिन्न सोच है। दो मूल उद्धेश्य लागू कर दिये गये हैं। पहला राम मंदिर निर्माण और दूसरा कश्मीर से धारा 370 को समाप्त कर, वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा। राम मंदिर भूमितल का सुप्रीम कोर्ट का 2:2 का फैसला था। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का वीटो निर्णय था। अब समान नागरिक संहिता लागू करने की बात है, जिसकी राह बननी जरूरी है।
जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने कहा कि, सामान नागरिक संहिता की जरूरत लागू करने का सही वक्त आ गया है। अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा कि आर्टिकल 44 में जिस यूनिफार्म सिविल कोड की उम्मीद जताई गई है, अब उसे हकीकत में बदलना चाहिए। जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने कहा, भारतीय समाज में धर्म, जाति, विवाह आदि की पारंपरिक बेड़ियां टूट रहीं हैं। युवाओं को अलग-अलग पर्सनल लॉ से उपजे विवादों के कारण शादी और तलाक के मामले में संघर्ष का सामना न करना पड़े। ऐसे में कानून लागू करने का यह सही समय है। हाईकोर्ट ने समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को जरूरी कदम उठाने का निर्देश दिया है। जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह की पीठ, पिछले दिनों राजस्थान की मीणा जनजाति की महिला और उसके हिंदू पति की तलाक की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। नागरिकों को विभिन्न पर्सनल लॉ में विरोधाभास के कारण संघर्ष से बचाना है। अदालत ने निर्देश दिया कि इस आदेश की जानकारी केंद्र सरकार के विधि एवं न्याय मंत्रालय के सचिव को दी जाए, ताकि वह आवश्यक कार्रवाई करें। मौजूदा मामले में भी अलग-अलग कानून का विरोधाभास सामने आने पर हाईकोर्ट ने यह आवश्यकता समान नागरिक संहिता को कार्यान्वित करने के आदेश दिए हैं। इस जोड़े की शादी 24 जून, 2012 को हुई थी। पति ने 2 दिसंबर, 2015 को परिवार अदालत में तलाक की याचिका दायर की। महिला का पति हिंदू विवाह कानून के मुताबिक तलाक चाहता था। लेकिन महिला का कहना है कि वह मीणा समुदाय से ताल्लुक रखती है, इसलिए उस पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता। बाद में फैमिली कोर्ट ने हिंदू मैरिज एक्ट-1955 का हवाला देते हुए याचिका को खारिज कर दिया। फैसले में कहा गया कि महिला राजस्थान की अधिसूचित जनजाति से है, इसलिए उस पर हिंदू विवाह कानून लागू नहीं होता। महिला के पति ने फैमिली कोर्ट के फैसले को 28 नवंबर, 2020 को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने कहा कि इस तरह के मामलों के लिए ही ऐसे कानून की जरूरत है, जो सभी के लिए समान हो।
समान नागरिक संहिता का अर्थ है, देश के हर नागरिक पर एक समान कानून लागू होना, फिर चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो। संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक के द्वारा राज्यों को कई मुद्दों पर सुझाव दिए गए हैं। जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह के मुताबिक, संविधान के अनुच्छेद 44 में उम्मीद जताई गई है कि राज्य अपने नागरिकों के समान नागरिक संहिता की सुरक्षा करेगा। अनुच्छेद की यह भावना महज उम्मीद बनकर ही नहीं रह जाए। अनुच्छेद 44 राज्य को सही समय पर सभी धर्मों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश देता है। यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने के बाद विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेने और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में सभी नागरिकों के लिए नियम समान होंगे। दरअसल देश में समान नागरिक संहिता का मामला पहली बार 1985 में शाहबानो केस के बाद सुर्खियों में आया। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद शाहबानो के पूर्व पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। तब शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए। उस वक्त गुप्तचर विभाग ने यह सूचना दी थी कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से मुस्लिम समुदाय में रोष है। तब राजीव गांधी की सरकार ने संसद में विधेयक पास करा कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। हाईकोर्ट ने 1985 में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जारी एक निर्देश का हवाला देते हुए निराशा जताई कि तीन दशक बाद भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने गोवा के यूनिफॉर्म सिविल कोड की तारीफ की थी। बतौर सी.जे.आई. गोवा में हाई कोर्ट बिल्डिंग के उद्घाटन के मौके पर चीफ जस्टिस ने कहा था कि गोवा के पास पहले से ही ऐसा यूनिफॉर्म सिविल कोड है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। 'एक देश, एक कानून' के तहत समान नागरिक संहिता को किस प्रकार, विभिन्न जातियां, धर्म, समुदाय स्वीकार करेंगें, इस बारे में अभी कुछ कहना कठिन है, लेकिन देश को इस ओर जरूर बढ़ना चाहिए। भारतवर्ष में विभिन्नता में एकता तो है, परंतु समान नागरिक संहिता को राजनैतिक चश्मे से लागू करने का प्रयास करना सही तरीका नहीं होगा। भारत की नई पीढ़ी बदल चुकी है, उसे धर्म व जाति के बंधन से मुक्त कर समान कानून के दायरे में लाने की जरूरत है। समान नागरिक संहिता महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों व संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक समीक्षक व मानवाधिकार संरक्षण अधिवक्ता हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)
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