डाॅ. एन.के. सोमानी का लेख : चीनी घेराबंदी का अमेरिकी प्रयास

डाॅ. एन.के. सोमानी
इंडो पैसिफिक रीजन में अपने सहयोगी देशों के साथ आर्थिक संबंध मजबूत बनाने की दृष्टि से अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह (आईपीईएफ) के गठन का ऐलान किया है। समूह इंडो-पैसिफिक रिजन में कारोबारी नीतियों, सप्लाई चेन (आपूर्ति श्रृंखला), कार्बन उत्सर्जन में कमी, टैक्स, डिजिटल धोखाधड़ी और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे मसलों पर काम करेगा। समूह में भारत सहित 13 देश शामिल हैं। इसमें भारत, जापान और अमेरिका के अलावा आस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, ताइवान, न्यूजीलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड व वियतनाम को शामिल किया गया है। आईपीईएफ को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के विस्तारवाद पर अमेरिकी नियंत्रण के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है। क्वाड और ऑकस की तरह चीन ने बाइडेन की इस पहल की आलोचना की है। उसके विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि नई कारोबारी पहल से इस क्षेत्र में शक्ति प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। उनका देश क्षेत्र में विभाजन और टकराव पैदा करने वाली किसी भी पहल का विरोध करता है।
बाइडेन ने अक्टूबर 2021 में ईस्ट एशिया समिट के दौरान आईपीईएफ के गठन के संकेत दे दिए थे। उस वक्त उन्होंने कहा था कि अमेरिका इंडो-पैसिफिक इकोनाॅमिक फ्रेमवर्क के विकास की संभावनाओं का पता लगा रहा है, लेकिन सवाल यह है कि बाइडेन ने इसकी औपचारिक घोषणा क्वाड बैठक से ठीक पहले क्यों की। दूसरा, बाइडेन ने अपनी योजना को टोक्यो से ही क्यों लाॅन्च किया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाइडेन की संपूर्ण योजना के पीछे चीन का प्रभाव काम कर रहा हो। बाइडेन ने अपनी योजना के लिए जो समय और स्थान चुना है, उसे देखते हुए तो यही लगा रहा हैं।
दरअसल, चीन-अमेरिका इकोनाॅमिक वारफेयर में चीन की आक्रामकता लगातार बढ़ती जा रही है। अमेरिका इस वारफेयर में कहीं न कहीं खुद को पिछड़ा हुआ महसूस कर रहा है। आईपीईएफ के जरिए अमेरिका इस स्पेस को भरना चाहता है। द्वितीय, हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुख्य धुरी है। यहां स्थित 38 देशों में दुनिया की 65 फीसदी या 4.3 अरब आबादी निवास करती हैै। विश्व की कुल जीडीपी में हिंद-प्रशात का हिस्सा करीब 63 प्रतिशत है। दुनिया का 50 प्रतिशत समुद्री व्यापार इसी मार्ग से होता है। चीन की विस्तावादी नीतियों के कारण मौजूदा समय में यह क्षेत्र वैश्विक शक्तियों के मध्य शक्ति संघर्ष का कारण बना हुआ है। चीनी मंसूबों पर नकेल डालने के लिए इस तरह की पहल जरूरी थी। तृतीय, पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में अमेरिका के ट्रंास पैसेफिक पार्टनरशिप( टीपीपी) से बाहर निकल जाने के बाद एशिया में अमेरिकी साख को बटा लगा है। आईपीईएफ की तरह टीपीपी का भी अहम मकसद प्रशांत क्षेत्र में स्थित राष्ट्रों के बीच निकटता बढ़ाने तथा चीनी मंसूबों काे नियंत्रित करना था। इसे पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की एशिया नीति की धुरी कहा जाता था। पांच वर्षों तक चली मैराथन बैठकों के बाद अंततः फरवरी 2016 में अमेरिका की अगुआई में टीपीपी को अंजाम दिया गया। यह विश्व का सबसे बड़ा व्यापार समझौता था। समझौते के प्रारूप पर प्रशांत महासागर क्षेत्र के चारों ओर स्थित 12 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। समझौते में शामिल सभी देशों ने टैरिफ बैरियर यानी शुल्क संबंधी बाधाओं को खत्म करने का वादा किया था, लेकिन साल 2017 में अमेरिकी सत्ता में आए रिपब्लिकन ट्रंप ने पद भार संभालने के पहले ही दिन टीपीपी समझौते से अमेरिका के निकलने की घोषणा कर दी। ट्रंप के इस निर्णय से एशिया में अमेरिकी साख पर असर पड़ा। बाद में जापान के नेतृत्व में यह कंप्रहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट ऑन ट् पैसिफिक पार्टनरशिप( सीपीटीपीपी) के रूप में तब्दील हो गया। अब बाइडेन के सत्ताा में आने के बाद अमेरिका फिर से एशियाई देशों से तालमेल बढ़ाने की कोशिशों में जुटा हुआ था। आईपीईएफ बाइडेन की इन्हीं कोशिशों का परिणाम है। चतुर्थ, चीन टीपीपी का प्रभावशाली सदस्य है। वह कंप्रहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट आॅन ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप( सीपीटीपीपी) में भी मेंबर बनना चाहता है। चीन 14 सदस्यों वाले रीजनल कंप्रहेंसिव इकनाॅमिक पार्टनरशिप (आरसीइपी) का भी हिस्सा है। अमेरिका इसका सदस्य नहीं है, जबकि भारत इससे बाहर निकल चुका है। ऐसे में बाइडेन की इस कोशिश को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की मनमानियों पर नियंत्रण के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है।
इसके अलावा आईपीईएफ योजना का एक ओर बड़ा कारण वैश्विक सप्लाई चेन पर चीन के एकाधिकार को खत्म करना भी है। कोरोना काल के दौरान चीन से जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित हुई थी। उसके बाद दुनियाभर से आपूर्ति श्रृंखला में सुधार करने व चीन के विकल्प की मांग उठने लगी थी। भारत शुरू से ही इंडो-पैसिफिक रिजन में आर्थिक सहयोग को बढ़ाने की बात कह रहा है। वह विश्व के शीर्ष मंचों पर इस बात को दोहरा चुका है कि दुनिया को एक विश्वसनीय सप्लाई चेन की जरूरत है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बाइडेन की पहल का स्वागत करते हुए इस समूह को खुले, मुक्त एवं समावेशी हिंद-प्रशांत की प्रतिबद्धता के लिए वैश्विक ग्रोथ का इंजन बताया है। कोई दो राय नहीं कि सदस्य देशों के बीच स्पलाई चेन मजबूत होती है, तो चीन पर से विश्व की निर्भरता कम होगी और उसका दबदबा कम होगा। अमेरिका ने समूह में शामिल सदस्य देशों को भरोसा दिया है कि वह अर्थव्यवस्था को मजबूती देेने के लिए हरसंभव प्रयास करेगा जिससे कि इस क्षेत्र में विकास और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो।
अहम बात यह है कि इस समूह में क्वाड देशों के अलावा चीन के विस्तारवाद से परेशान वे तमाम देश हैं, जो इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन के हिमायती है। बाइडेन आईपीईएफ को लेकर खासे उत्साहित हैं। वे इसे पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ जुड़ने का एक नया जरिया मान रहे हैं। उनके नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर जेक सुलीवन ने इसे 21 वीं सदी की आर्थिक व्यवस्था बताया है। लेकिन सवाल अमेरिकी विश्वसनीयता का हैं । क्या गांरटी है कि सत्ता परिर्वतन के बाद आने वाला नेतृत्व पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप की तर्ज पर समझौते से बाहर नहीं निकलेगा। ताइवान को शामिल नहीं किया जाना भी इसकी साख पर सवाल उठा रहा है। फिर, अभी इसका संगठनात्मक स्वरूप और प्रावधानों को लेकर सदस्य देशों के बीच सहमति बनना बाकी है। ऐसे में अभी से यह कहा जाना कि यह समझौता 21 वीं सदी की वैश्विक जरूरतों को पूरा करने में पूरी तरह सफल होगा जल्दबाजी ही होगा।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं ये उनके अपने विचार हैं।)
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