कुमार प्रशांत का लेख : हम एक साथ बहुत कुछ हारे

सभी दुखी हैं कि हम क्रिकेट का विश्वकप हार गए; मैं दुखी हूं कि हम क्रिकेट ही हार गए। मैच हारना और खेल हारना दो एकदम अलग-अलग बातें हैं। हार वक्ती होती है, पराजय का मतलब मन हारना होता है। हम मन से हारे हैं। अगर ऐसा न होता तो कोई कारण न था कि एक लाख से ज्यादा दर्शकों से भरा स्टेडियम इस कदर गूंगा बन जाता। फाइनल का खेल तो अच्छा ही हो रहा था। उतार-चढ़ाव से गुजर रहा था। खेल तो ऐसा ही होता है, लेकिन विश्वगुरू बनने वालों की भीड़ को यह बताया नहीं गया था कि उसे जो तैयार पटकथा दी गई है, उससे अलग कुछ घटने लगे तो उसे क्या करना है। उसे जो नारे सिखाए गए थे, जो जयकारा रटाया गया था, वह सब यह मान कर कि हमारी जीत तो पक्की है। खेल से साथ खेल करने वालों का ऐसा ही हाल होता है।
कोई बताएगा तो नहीं अन्यथा यह पूछा जाना चाहिए और इसका जवाब किसी को देना ही चाहिए कि मैदान के अलावा भारतीय टीम के कपड़ों का रंग किसने बदला व क्यों; और यह भी कि ऐसा करने वालों में कौन-कौन शरीक थे? कोच राहुल द्रविड़ को बताना चाहिए कि क्या उन्होंने क्रिकेट के इस भगवाकरण को खुशी-खुशी स्वीकार किया था? यदि असहमति उठी तो वह कहां दर्ज की गई? भारतीय क्रिकेट बोर्ड की किस बैठक में तय किया गया था कि विश्वकप का पहला व अंतिम मैच अहमदाबाद में होगा? विश्वकप की नियंत्रक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संस्थान से इस बारे में कोई विमर्श हुआ? दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बनाने से क्रिकेट-संस्कृति पैदा नहीं होती है।
भारत में किया गया यह पूरा आयोजन विश्वकप के दूसरे आयोजनों से बहुत अलग था क्योंकि इसमें खेल को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश की गई थी। यह क्रिकेट का विश्वकप कम, सत्ता का चुनाव-कप बन गया था और इसलिए पराजय से इसे उसी तरह सांप सूंघ गया जैसा चुनावी हार में होता है। सारे मैच कब, कहां और कैसे आयोजित किए जाएंगे, किन्हें माननीय अतिथि की तरह बुलाया जाएगा व किन्हें पूछा भी नहीं जाएगा, कैमरे को कब, क्या दिखाना है और क्या बिल्कुल नहीं दिखाना है, यह भी सत्ताधीश ही तै कर रहे थे। वीजा देने में ऐसी राजनीतिक मनमानी चली कि खेलने वाले देशों के दर्शक, विशेषज्ञ, पत्रकार आदि यहां आ ही नहीं सके। एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन पार्टी का आयोजन बना दिया गया। सब तरफ हम-ही-हम थे: जुटाई हुई भीड़! इसलिए खेलबाजी कम, भीड़बाजी ज्यादा थी।
किसी को यह आंकड़ा भी बताना चाहिए कि जब भारत हारा तब स्टेडियम में कितने लोग मौजूद थे? जो तब थे वे ही क्रिकेट के लिए थे, बाकी जुटाए गए सब तो खिसक चुके थे। प्रधानमंत्री भारतीय ड्रेसिंगरूम गए व खिलाड़ियों की हौसलाअफजाई की, लेकिन कितना स्वाभाविक होता कि हमारी टीम स्वंय मैदान में आ कर प्रधानमंत्री से मिलती!
यह सब तो पराजित मन की बात हुई लेकिन हम खेल में भी हारे। टीम राहुल द्रविड़ ने पूरे अभियान में एक अजीब रवैया अपनाया जैसे जीत मुट्ठी में बंद कोई जुगनू है कि जो मुट्ठी खोलते ही उड़ जाएगा। यही राहुल द्रविड़ थे जिन्होंने कोच बनने के बाद से भारतीय टीम का सही स्वरूप सुनिश्चित करने के लिए कितने ही खिलाड़ियों को आजमाया, उनका बैटिंग-क्रम बदला, कितनी रणनीतियां बनाई-बदलीं, खिलाड़ियों की निश्चित भूमिकाएं तय कीं और उन पर जोर डाला कि वे वैसी ही भूमिका में खेलें। ऐसा सब बार-बार करने के बाद वे 15 खिलाड़ी छांटे गए जिनसे हर मैच की जरूरत के हिसाब से भारतीय टीम बनानी थी, लेकिन आस्ट्रेलिया के साथ हमारा पहला मैच जैसे ही संकट में पड़ा, और हम किसी तरह जीत सके, टीम राहुल को जैसे लकवा मार गया। उसने मैचों के हिसाब से कोई प्रयोग किया ही नहीं। जो टीम बन गई वही अंत तक बनी रही। वो तो हार्दिक पंड्या घायल हो गए तो मुहम्मद शमी को टीम में जगह मिली। टीम जिस तरह लगातार जीतती गई, उसने सुरक्षित रहने का मानस बना दिया। आपने ‘टीम में कोई परिवर्तन नहीं’ का सूत्र भले बना लिया, स्थान, मैच, विपक्ष, खेल की मांग तो परिवर्तित होती रही। आपने कुछ भी बदलाव नहीं किया। अगर नाव को नदी के वेग से ही बहना था तो नाविक की जरूरत क्या थी?
अश्विन को पहले मैच में आस्ट्रेलिया के खिलाफ मौका मिला और हमेशा की तरह उन्होंने बेहतरीन गेंदबाजी की। अश्विन अपनी शैली के विश्व के नायाब स्पिनर हैं। उनकी हर गेंद विकेट लेने ही लपकती है। इसलिए आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों ने उनके सामने हर अनुशासन का पालन किया। अश्विन के हाथ उस मैच में 1 विकेट लगा। इसके साथ ही अश्विन का खेल पूरा मान लिया गया, जबकि हम देख रहे थे कि कुलदीप व जडेजा दोनों उतना प्रभाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं और विपक्ष धीरे-धीरे उन्हें पढ़ता भी जा रहा है। इससे बचने के लिए भी जरूरी था कि अश्विन-कुलदीप-जडेजा की तिकड़ी को खूब फेंटा जाता। फाइनल में आस्ट्रेलिया आया तो जरूरी था कि अश्विन को सिराज या जडेजा की जगह लाया जाता। अश्विन का बल्ला भी मजबूत है, तो यह प्रयोग किया ही जाना था। लेकिन टीम राहुल को अजीब-सी जड़ता ने जकड़ लिया। ऐसा ही सूर्यकुमार यादव के साथ हुआ। एक तरफ वे लगातार विफल हो रहे थे, तो दूसरी तरफ उन्हें खेलने का मौका भी कम मिल रहा था। फाइनल में, जब हम कमजोर हालत में पहुंच चुके थे और जरूरत थी कि आस्ट्रेलिया का तिलस्म छिन्न-भिन्न किया जाए, सूर्यकुमार को बल्लेबाजी में ऊपर ला कर देखना ही चाहिए था। वे चल जाते तो आस्ट्रेलिया की पकड़ टूट जाती, नहीं चलते तो भी कुछ जाता नहीं हमारा। उन्हें जडेजा के बाद बैटिंग के लिए भेजना कैसी रणनीति थी? जाडेजा पहले आ कर कई बेशकीमती गेंदें खा कर लौट गए तथा सूर्यकुमार भी कुछ कर तो नहीं सके।
ओपनिंग में आक्रामकता की रोहित-रणनीति बहुत मोहक थी, लेकिन हर गेंद पर छक्का! फाइनल में टॉस हारने के बाद भारत की रणनीति तो यही होनी चाहिए थी कि सावधानी से खेलते हुए ज्यादा-से-ज्यादा रन जमा करें, हम ताकि उसके बोझ तले आस्ट्रेलियाई उसी तरह टूट जाएं, जैसे न्यूजीलैंड टूटा था! हमें पता था कि विश्वकप में भारतीय पारी की रीढ़ रोहित के बल्ले से बनी है। रोहित अपनी लय में खेल भी रहे थे, फिर उस अंधाधुंधी का मतलब क्या था जबकि उस ओवर में 10 से अधिक रन बन ही चुके थे। हम यह भी देख रहे थे कि आस्ट्रेलियाई भूखे चीते की तरह फील्डिंग कर रहे थे, तो विशेष सावधानी की जरूरत थी। रोहित के खेल में वह सावधानी नहीं दीखी। गिल जैसे शॉट पर आउट हुए वह टेस्ट स्तर का कोई बल्लेबाज फाइनल में मारेगा क्या? खेल तो खेल है लेकिन उसके पीछे एक योजना होती है जो खेल का चेहरा बदल देती है। फाइनल में वह योजना सिरे से गायब थी। तो हम चौतरफा हारे! हमें अब चौतरफा वापसी करनी होगी। पहले क्रिकेट लौटेगा, फिर सफलता भी लौटेगी।
(लेखक- कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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