पंकज चतुर्वेदी का लेख : आखिर मौत घर क्यों बन रहे सीवर

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि यदि सीवर की सफाई के दौरान कोई श्रमिक मारे जाते हैं तो उनके परिवार को सरकारी अधिकारियों को 30 लाख रुपये मुआवजा देना होगा। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने यह भी कहा कि सीवर की सफाई के दौरान स्थायी विकलांगता का शिकार होने वालों को न्यूनतम मुआवजे के रूप में 20 लाख रुपये का भुगतान किया जाएगा और अगर सफाई करते हुए कोई कर्मचारी अन्य किसी विकलांगता से ग्रस्त होता है तो उसे 10 लाख रुपये का मुआवजा मिलेगा। इस आदेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि सरकारें यह सुनिश्चित करें कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा पूरी खत्म हो जाए। हालंकि यह इस तरह का कोई पहला आदेश नहीं है, लेकिन एक तरफ कम खर्च में श्रम का लोभ है तो दूसरी तरफ पेट भरने की मजबूरी और तीसरी है आम मजदूरों को सरकारी कानूनों की जानकारी न होना।
संसद के 2022 के शीतकालीन सत्र के पहले सप्ताह में ही सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास अठावले ने बताया कि पिछले तीन सालों के दौरान सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय 233 लोगों की मौत हुई है। वैसे यह सरकारी आंकड़ा भयावह है कि गत बीस सालों में देश में सीवर सफाई के दौरान 989 लोग जान गंवा चुके हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 1993 से फरवरी 2022 तक देश में सीवर सफाई के दौरान सर्वाधिक लोग तमिलनाडु में 218 मारे गए। उसके बाद गुजरात में 153 और बहुत छोटे से राज्य दिल्ली में 97 मौत दर्ज की गई। उप्र में 107, हरियाणा में 84 और कर्नाटक में 86 लोगों के लिए सीवर मौतघर बन गया।
ऐसी हर मौत का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है। हर बार कहा जाता है कि यह लापरवाही का मामला है। पुलिस ठेकेदार के खिलाफ मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो ना तो उनके आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और ना ही कोताही करने वालों को कोई समझाईश। शायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि इस तरह सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।
यह विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने आठ साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा–निर्देश जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। सरकार ने भी 2008 में एक अध्यादेश ला कर गहरे में सफाई का काम करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण प्रदान करने की अनिवार्यता की बात कही थी। नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लोगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देश भी, लेकिन इनके पालन की जिम्मेदारी किसी की नहीं। कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाइन के नक्शे, उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित ट्रेनिंग, सीवर में गिरने वाले कचरे की हर दिन जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं; जैसी आदर्श स्थिति कागजों से ऊपर कभी आ नहीं पाई। सुप्रीम कोर्ट का ताजा आदेश है तो ताकतवर लेकिन समस्या यह है कि अधिकांश मामलों में मजदूरों को काम पर लगाने का कोई रिकार्ड ही नहीं होता। यह सिद्ध करना मुश्किल होता है कि अमुक व्यक्ति को अमुक ने इस काम के लिए बुलाया था या काम सौंपा था।
भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले ने और भी अंधेरा कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देश भर के सीवरों में औसतन एक हजार लोग दम घुटने से मरते हैं, जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विषैली गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देश में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने, मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे हैं। कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साइड, हाईड्रोजन सल्फाइड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं
यह एक शर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है। सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है और आज घर भी विभिन्न रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं। इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराइड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या होता है। सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी के शरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है। नाइट्रेट और नाईट्राइड के कारण दमा और फेफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना होती है। सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से शरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फेंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं। भीतर का अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है। यह वे स्वयं जानते हैं कि सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका शरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है। ऐसी बदबू, गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशों की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नशेे की यह लत उन्हें कई गंभीर बीमारियों का शिकार बना देती है।
वैसे यह कानून है कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर (जहरीली गैस की जांच का उपकरण), गंदी हवा को बाहर फेंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने, चश्मा और कान को ढंकने का कैप, हेलमेट मुहैया करवाना आवश्यक है। मुंबई हाईकोर्ट का निर्देश था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । काश कानून इतनी कड़ाई से लागू हो कि मुआवजा देने की नौबत आये नहीं और सफाई कार्य से पहले ही जिम्मेदार एजेंसियां सुरक्षा उपकरण और कानून के प्रति संवेदनशील हों।
(लेखक- पंकज चतुर्वेदी शिक्षाविद् व राम दर्शन के वेत्ता हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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