ओमकार चौधरी का लेख : शाह से सच क्यों छिपाया नीतीश ने

ओमकार चौधरी
नीतीश कुमार ने नौ अगस्त को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और अगले दिन फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली, लेकिन इस बार भाजपा के बजाय राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, माकपा सहित कुछ दूसरे दलों के साथ। यह करीब-करीब वैसा ही था, जैसे 2017 में उन्होंने रातों-रात राजद और कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा के साथ सरकार बना ली थी। नीतीश के लिए संगी-साथी बदल लेना चुटकियों की बात है। भारतीय राजनीति में उन्हें इसी रूप में स्मरण किया जाएगा। अब किसी को उनकी पलटी से आश्चर्य नहीं होता। 2017 में अचानक महागठबंधन का साथ छोड़ने के बाद लालू प्रसाद यादव, कांग्रेस सहित समूचे विपक्ष की ओर से जिस तरह की टिप्पणियां उन्हें सुननी पड़ी थी, वो अब भी उपलब्ध हैं लेकिन इस बार आलोचना करने वाले बदल गए हैं परंतु नीतीश की सेहत पर जैसे इसका कोई असर नहीं पड़ता। वो आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर खुश हैं।
2020 में भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू मिलकर लड़े। उन्हें जनादेश मिला। भाजपा को 74 सीटें और नीतीश की पार्टी को 43 सीटें मिलीं, जो 2015 में मिली 71 सीटों से जाहिर है कम ही थीं, परंतु वादे के अनुसार भाजपा उन्हें ही सीएम बनाया। बिना हील-हुज्जत के वो बन भी गए, परंतु उन्नीस महीने बाद अचानक उन्हें और उनके करीबी राजीव रंजन उर्फ लल्लन सिंह को 2020 के चुनाव की वो घटनाएं क्यों याद आनी शुरू हो गईं जिनका उल्लेख उन्होंने कभी नहीं किया, यह समझ से बाहर की बात है। लल्लन सिंह ने यह कहते हुए भाजपा पर आरोपों की बौछार कर डाली है कि तब जेडीयू को हरवाने के लिए भाजपा ने चिराग पासवान की लोजपा के टिकट पर कुछ अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए थे, इसीलिए जेडीयू 43 पर सिमटकर रह गई। ऐसा था तो नीतीश जानते-बूझते हुए भी सीएम क्यों बने, यह यक्ष प्रश्न है। वो भाजपा के इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे रहे हैं कि 2017 में उन्होंने लालू-कांग्रेस का जिन वजहों से साथ छोड़ा था क्या वो वजह समाप्त हो गई हैं। ऐसी कौन सी परिस्थितियां बदल गईं कि फिर उन्हीं के साथ पींगें बढ़ाने के लिए पहुंच गए हैं।
कई तरह की बातें सामने आ रही हैं। उनके साथ दस-ग्यारह वर्ष तक उप मुख्यमंत्री रह चुके बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सदस्य सुशील मोदी का कहना है कि कुछ समय पूर्व उनके करीबियों ने यह संदेश भेजे थे कि वो उप राष्ट्रपति बनने के इच्छुक हैं, परंतु भाजपा नेतृत्व ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। कोई भी प्रधानमंत्री राष्ट्रपति अथवा उप राष्ट्रपति पद पर अपने भरोसेमंद चेहरे को ही बैठाना पसंद करेगा। ऐसे व्यक्ति को नहीं, जो अतीत में उन्हें पीएम का चेहरा बनाए जाने की वजह से 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा का साथ छोड़कर अचानक सेकूलर बन गया हो। उप राष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति होता है। यह ऐसा सदन है जहां आठ साल सत्ता में रहने के बाद भी सरकार को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है, परंतु लोकसभा से पारित विधेयकों को उच्च सदन की स्वीकृति भी दिलानी होती है। ऐसे में सभापति के आसन पर यदि हामिद अंसारी अथवा नीतीश जैसा व्यक्ति बैठा हो तो हर तरह खेल होने की आशंका बनी ही रहती है।
अभी चूंकि घटना ताजी है, इसलिए भाजपा की ओर से भी वार होंगे। जदयू की ओर से भी पलटवार होंगे। जनता को समझाने के लिए सभी तरह के तर्क-वितर्क किए जाएंगे। असली वजह क्या है संबंध विच्छेद की, आइए इसे समझ लेते हैं। विगत बीस वर्ष से नीतीश ही बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। जब भाजपा के सहयोग से लालू राबड़ी के कथित जंगल राज के बाद वह सीएम बने, तब उन्हें सुशासन बाबू का तमगा दिया गया। कानून व्यवस्था पटरी पर लौटी तो नीतीश को श्रेय मिला। सच यह है कि भाजपा के साथ की वजह से जातीय और दूसरे तरह की हिंसा का पटाक्षेप हुआ और लूट-अपहरण जैसी वारदातें या तो बंद हो गईं या बहुत कम हो गई। बिहार का राज संभालने के पूर्व नीतीश अटल बिहारी वाजपेयी के साथ रेलमंत्री जैसा ओहदा भी संभाल चुके थे। तब भी रेलमंत्री थे, जब गुजरात में भीषण दंगे हुए। न दंगों से उन्हें परेशानी हुई और न नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री होने से। वो रेलमंत्री बने रहे। यह प्रश्न अब तक पहेली ही है कि सितंबर 2013 में जब मोदी को भाजपा ने पीएम चेहरा बनाया, तभी नीतीश को परेशानी क्यों हुई।
बहरहाल, 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने भाजपा नीत राजग की झोली में 28 सीटें डाल दीं। नीतीश लालू कांग्रेस घाटे में रहे। नीतीश की जदयू दो सीटों पर सिमट गईं, लेकिन 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में पासा पलट गया। महागठबंधन को 178 सीटें मिल गई और भाजपा 53 पर सिमट गईं। पिछली विधानसभा में जदयू की 115 सीटें थीं, परंतु लालू-कांग्रेस के साथ लड़ने से वो घटकर 71 रह गई। राजद ने 80 सीटें जीतीं और कांग्रेस की 27 आईं। नीतीश फिर सीएम बन गए, परंतु दो साल के भीतर ही उन्हें अहसास हो गया कि जैसा सम्मान उन्हें भाजपा से मिल रहा था, वैसा राजद में संभव ही नहीं है। बिहार में फिर से जंगलराज की वापसी हो चली थी। शहाबुद्दीन जैसे अपराधी जेल में बैठकर भी लालू को फोन घुमाकर बता रहे थे कि कौन सा एसपी बदलना है। लालू के दोनों सुपुत्र अनियंत्रित हो चले थे। लिहाजा नीतीश ने फिर पाला बदला। रातों-रात भाजपा के साथ शपथ ले ली, लेकिन उनकी सुशासन बाबू वाली छवि जाती रही। लोगों का उनसे मोहभंग होने लगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें मोदी के चेहरे का लाभ मिला। सांसद दो से सोलह पहुंच गए, परंतु 2020 के विधानसभा चुनाव में सीटें 71 से घटकर 43 रह गईं। जबकि भाजपा की 53 से 74 पहुंच गईं।
भाजपा ने बड़ा दिल दिखाते हुए वादे के अनुसार उन्हें फिर सीएम बना दिया, परंतु नीतीश को यह भी अपमानजनक ही लग रहा था। उद्धव ठाकरे की तरह वह भाजपा के बड़े होने को सहन नहीं कर पा रहे थे। कभी न उद्धव ने ठंडे दिमाग से सोचा और न नीतीश ने कि उनका जनाधार क्यों खिसक रहा है। भाजपा का क्यों बढ़ रहा है। उन्हें भय था कि भाजपा के साथ ही बने रहे तो अगले लोकसभा चुनाव में भले ही उन्हें कुछ लाभ मिल जाए परंतु राज्य से जदयू का सफाया भी हो सकता है। भाजपा फिर सौ से ऊपर पहुंच सकती है। इसके अलावा उन्हें यह भी अहसास हो चला था कि 2020 में इतनी कम सीटें होने के बावजूद वह सीएम तो बन गए हैं, परंतु भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और राज्य की लीडरशिप उन्हें मनमाने फैसले नहीं लेने दे रही है। जो उन्होंने किया, अपना अस्तित्व बचाने के लिए किया है, परंतु अगले छह महीने उन्हें बता देंगे कि यह फैसला कितना सही है कितना गलत। भाजपा नेतृत्व ने अंतिम क्षणों में भी उन्हें रोकने की कोशिश की थी। स्वयं अमित शाह ने उन्हें फोन किया परंतु उन्होंने उन्हें भी यह कहकर झांसे में रखा कि जैसे आपके यहां गिरिराज सिंह कुछ भी बोलते रहते हैं, वैसे ही हमारे यहां लल्लन सिंह हैं। सब ठीक है। यानी नीतीश ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से भी सच छिपाया। शायद इसलिए कि साथ छोड़ने की बताने के लिए कोई ठाेस वजह उनके पास नहीं थी।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )
© Copyright 2025 : Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS
-
Home
-
Menu
© Copyright 2025: Haribhoomi All Rights Reserved. Powered by BLINK CMS