डा. एके अरुण का लेख : महामारियों और रोगों की वैश्विक चुनौतियां

डा. एके अरुण
महामारियों और रोगों की वैश्विक चुनौतियों ने आम लोगों में दवा और उपचार की चिंता बढ़ा दी है। कोरोना संक्रमण के अनुभवों ने चिकित्सा एजेंसियों को भी डरा दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2022 में 'हमारी पृथ्वी हमारा स्वास्थ्य' को विश्व स्वास्थ्य दिवस के थीम के रूप में चुना है। यानी संदेश स्पष्ट है कि अपनी सेहत की रक्षा के लिए पृथ्वी की सेहत सुधारिए। जाहिर है कि स्वास्थ्य को एकांगी रूप में नहीं देखा जा सकता इसलिए संकेत समझ लें, 'पर्यावरण सुधरेगा तो पृथ्वी बचेगी, पृथ्वी बचेगी तभी मनुष्य की सेहत भी सुधरेगी।' सन 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना के बाद संभवत: पहली बार पृथ्वी की चिंता करते हुए संगठन ने स्पष्ट कर दिया है कि हम अपने लालच और पापों से पूरी पृथ्वी ग्रह को ही नष्ट कर रहे हैं ऐसे में मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा भला कैसे होगी?
विश्व स्वास्थ्य दिवस के बहाने मानव स्वास्थ्य के साथ-साथ पृथ्वी के स्वास्थ्य की बात करना बेहद जरूरी है। कोरोना काल में ही दुनिया ने देखा कि प्रदूषण से प्रभावित लोगों में संक्रमण की दर बहुत ज्यादा थी और पहले से ही फेफड़े के रोगों से ग्रस्त लोगों की स्थिति औरों की अपेक्षा ज्यादा गंभीर थी और उन जैसों की ही ज्यादा गंभीर थी और उन जैसों की ही ज्यादा मृत्यु भी हुई। आंकड़े बताते हैं कि सालाना 20 लाख से ज्यादा मौतों की मुख्य वजह पर्यावरण प्रदूषण है। संगठन की चेतावनी है कि पर्यावरणीय कारणों से आंकड़ों के अनुसार दुनिया की 90 फीसदी आबादी प्रदूषित हवा श्वास के रूप में लेती है। ऐसे ही प्रदूषण के कारण दुनिया में मच्छर जनित रोगों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। प्रदूषण के कारण जीवन के सभी आवश्यक तत्व जैसे मिट्टी, पानी, हवा आदि प्रदूषित है जो जीवन के लिए गंभीर खतरा है। भारत ही नहीं दुनिया में प्रदूषण की स्थिति कितनी खतरनाक है इसका अंदाजा डब्ल्यूएचओ की इस चेतावनी से लगा सकते हैं। सन 2016 में डब्ल्यूएचओ ने दुनिया के 2000 शहरों में प्रदूषण की स्थिति और इससे संबन्धित डाटा के आधार पर चेतावनी दी थी और इस खतरनाक प्रदूषण को 'हेल्थ इमरजेंसी' बताया था, लेकिन इस वर्ष तो श्वसन संबंधी विकार पैदा करने वाले वायरस (सार्स कोव-2) कोविड-19 की वजह से यह जानलेवा और तबाही वाला हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 के बाद से वायु प्रदूषण की खतरनाक स्थिति ने दुनिया को सकते में डाल दिया है। साल दर साल हालात खराब होते जा रहे हैं और हम हैं कि जरा भी फिक्र नहीं। व्यक्ति, कंपनियां और सरकार सब मिल जुलकर वातावरण की हवा को खराब कर रहे हैं। और इस बार तो हालात को और बदतर बनाने के लिए दुनिया में कोविड-19 संक्रमण भी काफी जिम्मेदार है। वर्ष 2018 में भारत में फेफड़ों के रोगों के तेज प्रकोप से परेशान बिल गेट्स ने अपने गेट्स फाउन्डेशन को 1.3 अरब भारतीयों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को निर्धारित करने के लिए एक वैज्ञानिक अध्ययन करने को कहा था। भारतीयों को विदेशियों के अध्ययन पर संदेह नहीं हो, इसलिए गेट्स फाउन्डेशन ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) को भी इस अध्ययन में शामिल किया है। इस अध्ययन में 40 फीसदी वैज्ञानिक भारतीय थे। अध्ययन का निष्कर्ष आया कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 21 भारत में हैं। हालांकि इस तथ्य को भारत सरकार ने कभी स्वीकार नहीं किया। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन ने हमें बताया कि सालाना 20 लाख भारतीय प्रदूषण की वजह से मर रहे हैं तथा लगभग 70 लाख लोग प्रदूषण जनित रोगों के गिरफ्त में फंस रहे हैं।
प्रदूषण की वजह से उत्पन्न मानवीय संकट के मद्देनजर दुनिया के कई युवाओं नें 'फ्राइडे फार फ्यूचर' नामक एक आंदोलन चलाया हुआ है। विगत 15 मार्च 2019 को विश्व के 200 स्थानों पर लाखों छात्रों और युवाओं ने खड़े होकर धरती की रक्षा का संकल्प दोहराया। इस आंदोलन में शु़क्रवार को अलग-अलग जगह सैकड़ों छात्र इकट्ठा होते हैं और धरती की रक्षा का संकल्प दोहराते हैं। इस 'फ्राइडे फार फ्यूचर' अभियान को अनेक वैज्ञानिकों एवं मानवप्रिय संगठनों का सहयोग मिल रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका में अनेक छात्रों ने तो वहां की सरकार पर यह मुकदमा कर रखा है कि प्रदूषण के कहर से अगली पीढ़ी की भविष्य के रक्षा के लिए उनकी सरकार जरूरी कदम नहीं उठा रही है। इन युवा छात्रों के समर्थन में कई महत्वपूर्ण पर्यावरण वैज्ञानिक भी अदालत से गुहार लगाए हैं।
उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2018 में जलवायु बदलाव पर वैज्ञानिकों की एक ऐसी रिपोर्ट आई थी जिसे बहुत गंभीर माना गया। वैसे इसे 'इंटर गवर्नमेंटल पैनल आॅन क्लाइमेट चेंज' की विशेष रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया। रिपोर्ट के अनुसार वातावरण के तापमान वृद्धि को 1.5 सेल्सियस तक थामना जरूरी है। यदि तापमान में हो रही यह वृद्धि नहीं रुकी तो भयंकर परिणाम होंगे। हालांकि पहले वातावरण के तापमान वृद्धि को 2 सेल्सियस तक रोकने की बात थी, लेकिन अब इसे और घटा दिया गया है। रिपोर्ट के अनुसार यदि वर्ष 2030 तक हमने यह लक्ष्य पूरा नहीं किया तो हालात और बदतर हो जाएंगे। विश्व स्वास्थ्य दिवस के महज तीन दिन बाद ही विश्व होमियोपैथी दिवस (10 अप्रैल) भी दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञों का ध्यान आकृष्ट कर रहा है। वर्ष 2021 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के 70 देशों में 30 करोड़ से ज्यादा लोग होमियोपैथी की दवाओं से चिकित्सा ले रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा 20 करोड़ लोग तो भारत में हैं। सरकारी रिकार्ड में देश में होमियोपैथी के योग्य चिकित्सकों की संख्या 5 लाख से ज्यादा है और गंभीर पुराने रोगों में स्थायी उपचार के लिए प्रचलित इस चिकित्सा पद्धति पर करोड़ों लोगों की निर्भरता और उनका विश्वास अटूट है।
अब सवाल यह है कि रोगों और महामारियों की बढ़ती चुनौतियां तथा एलोपैथिक दवाओं की सीमाएं व विफलताओं के बीच आम आदमी अपनी सेहत और जान की रक्षा के लिए आखिर किस चिकित्सा पद्धति को अपनाए? महंगी एलोपैथी के बरक्स किफायती होमियोपैथी की तरफ लोगों का झुकाव सहज है लेकिन सच्चाई यह भी है कि जटिल रोगों की चुनौतियों से निपटने के लिए होमियोपैथी में शिक्षा का स्तर अभी भी संतोषजनक नहीं है। विश्व स्वास्थ्य दिवस एवं विश्व होमियोपैथी दिवस के बहाने देश और दुनिया की सरकारें विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के समन्वय या आपसी तालमेल की योजना बनाकर दुनिया को स्वास्थ्य, मुकम्मल उपचार एवं बीमारों की सेवा का उपहार दे सकती है। क्यों न हम हानिरहित कल्याणकारी स्वास्थ्य व्यवस्था एवं पर्यावरणीय सुचिता के लिए पृथ्वी, पर्यावरण एवं सम्पूर्ण मानवता व जीव जन्तु के कल्याण के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य को संरक्षित करने का संकल्प लें। केवल सरकारों पर यह जिम्मेदारी डालने से बात नहीं बनेगी। मानव स्वास्थ्य के साथ पृथ्वी की सेहत को जन आन्दोलन के रूप में देखें, पहले ही बहुत देर हो चुकी है और मानवता विनाश के कगार पर खड़ी है।
( ये लेखक के अपने विचार हैं। )
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