आलोक यात्री का लेख : जलद्रोह कानून से रुकेगी पानी की बर्बादी

आलोक यात्री
आज विश्व जल दिवस है। आज के दिन ही 22 मार्च 1992 को रियो जेनेरियो में पर्यावरणविदों की एक बैठक में धरती पर जल संरक्षण और लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाने की अवधारणा पर वैश्विक तौर पर चिंता प्रकट करते हुए इसके संरक्षण की पैरवी की गई थी। जल संरक्षण की अवधारणा को मूर्त रूप लेने के तीन दशक बाद भी स्थिति बद से बद्तर होती चली जा रही है। दुनिया की बात तो बाद में होगी, यदि भारत की ही बात करें तो देश के एक बड़े हिस्से में पेयजल संकट जहां लगातार विकट रूप धारण करता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर देश भर में जल की बर्बादी और बेकद्री भी निरंतर बढ़ती जा रही है।
सोचने वाली बात यह है कि पृथ्वी के 70 फ़ीसदी से अधिक भूभाग पर फैले जल में से मात्र 3 फ़ीसदी पानी पीने के लायक है। इस 3 फ़ीसदी ताजे पेयजल का दो तिहाई से भी अधिक भाग ग्लेशियरों के रूप में मौजूद है। इसके पश्चात 1 फ़ीसदी पानी विश्व की लगभग 8 अरब आबादी के दैनिक उपयोग के लिए शेष बचता है। वर्ष 2018 में नीति आयोग द्वारा किए गए अध्ययन में 122 देशों के जल संकट की सूची में भारत 120वें स्थान पर खड़ा था। गौरतलब है कि जल संकट से जूझ रहे विश्व के 400 शहरों में से शीर्ष 20 शहरों में शामिल चार प्रमुख महानगरों में चेन्नई पहले, कोलकाता दूसरे, मुंबई 11वें और दिल्ली 15 वें स्थान पर हैं। इन शहरों की ताजा स्थिति का आकलन बताता है कि जल संकट के मामले में चेन्नई और दिल्ली जल्द ही दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर बनने की राह पर अग्रसर हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पूरी दुनिया के सामने बढ़ते वैश्विक तापमान के बाद पेयजल संकट सबसे बड़ी चुनौती है। भारत में वैश्विक आबादी का 18 फीसद हिस्सा निवास करता है, लेकिन इसे विश्व में उपलब्ध पेयजल का 4 फ़ीसदी हिस्सा ही हासिल है। इससे इतर संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक के अनुसार भारत के 21 शहर चंद सालों के भीतर जीरो ग्राउंड वाटर लेबल पर पहुंच जाएंगे। यानी इन शहरों के पास पीने का खुद का पानी नहीं बचेगा। जिनमें हैदराबाद, दिल्ली, बैंगलुरू और चेन्नई जैसे देश प्रमुख हैं। इससे निसंदेह 10 करोड़ लोगों की जिंदगी प्रभावित होगी। जल संकट से जूझ रही ग्रामीण भारत की एक बड़ी आबादी देश के महानगरों की ओर पलायन कर इस संकट को बढ़ावा देने का काम कर रही है। पानी की खपत के मामले में दिल्ली दुनिया में अव्वल स्थान पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक व्यक्ति को करीब 25 से 50 लीटर जल की आवश्यकता प्रतिदिन होती है। देश के कुछ बड़े शहरों मसलन मुंबई और दिल्ली में नगर निगम द्वारा प्रति व्यक्ति को निर्धारित 150 लीटर से अधिक पानी रोज उपलब्ध करवाया जाता है। दिल्ली में प्रति व्यक्ति खपत 272 लीटर प्रतिदिन है। यह खपत दुनिया में सर्वोपरि है। इसकी एक बड़ी वजह पानी की बर्बादी और औद्योगिक क्षेत्र में बढ़ती जरूरत है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया में सर्वाधिक भूजल का उपयोग करने वाला देश है। जबकि चीन और अमेरिका में भारत की तुलना में भूजल का उपयोग बहुत सीमित है। देश में अनुमानतः भूजल का 80 फीसदी जल कृषि पर, 10 फीसदी जल उद्योग पर और 5 फीसदी जल घरेलू उपयोग के काम आता है। कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाले जल का मात्र 15 फीसदी जल ही सही तरीके से खर्च होता है। शेष 85 फ़ीसदी भूजल बर्बाद हो जाता है। जल प्रबंधन आज भी देश में एक बड़ी समस्या है। शहरी क्षेत्र की 50 फीसदी तथा ग्रामीण क्षेत्र की 85 फ़ीसदी जरूरतों की पूर्ति के लिए देश आज भी भूजल पर ही निर्भर है। 2007-2017 के मध्य किए गए अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि देश में इस अवधि के दौरान भूजल स्तर में 60 फ़ीसदी तक की कमी आई है। ताजा स्थिति यह है कि देश में शहरी क्षेत्र की 9.70 करोड़ आबादी को साफ पानी मुहैया नहीं है। वहीं ग्रामीण इलाकों में लगभग 70 फ़ीसदी लोग प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं। लगभग 33 करोड लोग सूखाग्रस्त इलाकों में रहने को अभिशप्त हैं। जल संकट की इस स्थिति से देश की जीडीपी अर्थात सकल घरेलू उत्पाद में अनुमान से 6 फ़ीसदी के नुकसान की आशंका है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश के 40 फ़ीसदी से अधिक क्षेत्र में सूखे का संकट है। दिनोंदिन बढ़ती पानी की मांग के चलते अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2030 तक पानी की मांग मौजूदा उपलब्धता के मुकाबले दोगुनी हो जाएगी। यही नहीं बढ़ता वैश्विक तापमान भी देश में उत्पन्न जल संकट को बढ़ाने में सहायता देगा। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक तापमान वृद्धि की मौजूदा दर के चलते वर्ष 2046 से 2056 के मध्य यह 1.5 से 2.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। बढ़ता वैश्विक तापमान भारत के अलावा भूमध्य रेखा के आसपास के कई देशों का जलस्तर सुखाता जा रहा है।
बढ़ते पेयजल संकट से निजात पाने के लिए केंद्रीय सरकार ने वर्ष 2019 में 'जल शक्ति मंत्रालय' का गठन किया था। जिसका गठन दो मंत्रालयों को मिलाकर किया गया था। यह मंत्रालय देश में पेयजल संकट से निपटने के लिए खास तौर पर बनाया गया है। मंत्रालय ने 2024 तक सभी घरों में पाइप लाइन के जरिए पानी देने की योजना तैयार की है। लेकिन इस योजना पर अमल आसान प्रतीत नहीं होता। इस योजना पर होने वाले भारी-भरकम खर्च की भरपाई की कोई योजना अभी तैयार नहीं की गई है। आजादी के बाद से देश में तीन राष्ट्रीय जल नीतियां बनीं। पहली 1987 में बनी, दूसरी 2002 में और तीसरी 2012 में बनाई गई। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार बीते दो दशकों में सूखे के चलते भारत में 3 लाख से अधिक किसानों ने खुदकुशी की है। इसके अलावा साफ पानी के अभाव में प्रतिवर्ष 2 लाख लोगों की जान भी जा रही है।
पूरी दुनिया आज जल संकट के प्रबंधन में प्राकृतिक और स्थानीय समाधान पर जोर दे रही है। लोगों को शायद अब यह बात समझ आ गई है कि प्रकृति से वैमनस्यता कर मानव जीवन इस धरती पर अधिक समय तक बचा रहने वाला नहीं है। लिहाजा हमारे सूबे और केंद्र सरकार को ऐसे कदम तत्काल उठाने पड़ेंगे जिनसे देश में बढ़ते जल संकट से निजात मिल सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, लगभग 80 फीसदी रोगों का कारण जल है। आयुर्वेद के अनुसार जल कई रोगों का वाहक है। बढ़ती हुई जनसंख्या, शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण जैसे मानवीय कारणों ने हमारे पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है। इसके अलावा जल की बर्बादी के प्रति लोगों को जागरूक करना भी आवश्यक है। इससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रद्रोह की तर्ज पर देश में 'जलद्रोह' कानून भी बनाया जाए। सभी प्रकार के जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाना जरूरी है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )
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