Sunday Special: सत्ता का केंद्र के रूप में कैसे उभरा दिल्ली का लाल किला, जानें क्या है इसकी ऐतिहासिक अहमियत

Sunday Special: साल 1857 की क्रांति के दौरान लाल किला ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ विद्रोह का भी गवाह बना। दिल्ली पर कई किताबें लिखने वालीं लेखिका राना सफवी ने अपनी हैं। वे लिखती हैं कि साल 1628 में जब शाहजहां आगरा के ताज पर अपने बाबा अकबर और पिता जहांगीर की तरह बैठे तो उन्हें लगा कि आगरे का क़िला उनके लिए बेहद छोटा है। तभी उन्होंने फ़ैसला किया कि वे दिल्ली के किनारे यमुना के तट पर एक नया किला बनाएंगे जो कि आगरा और लाहौर के किले से भी बड़ा होगा।;

Update: 2021-05-30 04:19 GMT

दिल्ली का लाल किला अपने आप में एक ऐतिहासिक अहमियत रखता है। इस लाल क़िले की अनेकों ऐसी कहानियां है जिसे जानकर आप हैरान हो जाएंगे। इसके इतिहास को देखें तो पता चलता है कि साल 1649 में मुगल शासक शाहजहां ने इस किले को बनवाया था। ये उस दौर की बात है जब दिल्ली को सातवीं बार एक शहर के रूप में विकसित किया जा रहा था। लाल किले ने मुगलिया सल्तनत का स्वर्णिम युग भी देखा और मुगलिया सल्तनत का सूरज ढलते हुए भी देखा है।


साल 1857 की क्रांति के दौरान लाल किला ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ विद्रोह का भी गवाह बना। दिल्ली पर कई किताबें लिखने वालीं लेखिका राना सफवी ने अपनी हैं। वे लिखती हैं कि साल 1628 में जब शाहजहां आगरा के ताज पर अपने बाबा अकबर और पिता जहांगीर की तरह बैठे तो उन्हें लगा कि आगरे का क़िला उनके लिए बेहद छोटा है। तभी उन्होंने फ़ैसला किया कि वे दिल्ली के किनारे यमुना के तट पर एक नया किला बनाएंगे जो कि आगरा और लाहौर के किले से भी बड़ा होगा। कुछ लोग ये भी मानते हैं कि शाहजहां को अपनी बेग़म मुमताज महल के गुजर जाने के बाद आगरा से अरुचि हो गई।


साल 1639 की 29 अप्रैल को शाहजहां ने लाल किले के निर्माण का काम शुरू करने का आदेश दे दिया था। इसके बाद 12 मई से निर्माण का काम शुरू हुआ। लगभग इसी दौर में शाहजहानाबाद कस्बे को बनाने का भी आदेश दिया गया। शाहजहां ने अपनी बेग़म और बेटियों को घर, मस्जिदें और बगीचे बनाने के लिए प्रेरित किया। उनकी बेटी जहां आरा ने चांदनी चौक बाज़ार को बनाया। इसके बाद यात्रियों के लिए बेग़म सराय स्ट्रीट बनाई गई जहां आजकल दिल्ली का टाउन हाल है। शाहजहां के बेटे दारा शिकोह का घर वहां बनाया गया जहां आज निगम बोध घाट है (एक श्मशान स्थल). मुग़लिया सल्तनत के बादशाह शाहजहां ने 1648 की 15 जून को लाल क़िले में प्रवेश किया जिसे इस दौर में क़िला-ए-मुबारक़ कहा गया।


कहा जाता है कि लाल किले में लाल पत्थर लगाया गया था उसे नदी के रास्ते फतेहपुर सीकरी के पास लाल पत्थर की खान से दिल्ली लाया गया था। इसे लाल किला इसलिए कहा गया क्योंकि ये लाल बलुआ पत्थर से बना था। शाहजहां का दौर मुग़लिया सल्तनत के स्वर्णिम दिनों के रूप में गिना जाता है। अहमद लाहौरी ने विश्व प्रसिद्ध ताजमहल बनाया था। उन्होंने ही शाहजहानाबाद को डिज़ाइन करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस इमारत को ध्यान से देखें तो इसमें इस्लामी, मुग़ल, फ़ारसी और हिंदू स्थापत्य शैली की झलक मिलती है। इसके बाद इसकी तर्ज पर राजस्थान, आगरा और दिल्ली में भी दूसरी इमारतें और बाग़-बगीचे बनाए गए। लाल किले का वो इलाका जहां बादशाह आम लोगों से मिलकर उनके दुख-दर्द सुना करते थे, उसे दीवान-ए-आम कहा गया। वहीं, दीवान-ए-ख़ास में वह अपने मंत्रियों और अधिकारियों से मिला करते थे।


इस किले ने मुग़लिया सल्तनत में दो भाइयों के बीच षड्यंत्र और युद्ध भी देखा। दारा शिकोह जहां धर्मग्रंथों का अनुवाद करवाते हुए दूसरे धर्मों के रहस्य समझकर खुद को एक आदर्श राजा के रूप में स्थापित करने की कोशिश में थे, वहीं औरंगजेब मुग़लिया सल्तनत का ताज हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। बर्कले लिए कोई नहीं था। औरंगजेब ने इस अवसर का फायदा उठाकर अपने ही भाई के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचा। औरंगजेब मानते थे कि दारा शिकोह दुश्मनों और सैन्य मामलों में निर्णय लेने में कमज़ोर हैं। सन् 1659 में आगरा के पास सामूगढ़ में दोनों भाइयों के बीच युद्ध हुआ और जैसा कि औरंगजेब ने अंदेशा जताया था, दारा शिकोह की हार हुई। दारा शिकोह के अफ़गान कमांडर मलिक जिसने उन्हें बचाने का वादा किया था, उसने ही दारा को औरंगजेब के हवाले कर दिया।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सल्तनत और लाल क़िले के पलायन का भी दौर आ गया। साल 1739 में ईरान के नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला बोल दिया। उसने लाल किले से मयूरासन और कोहिनूर हीरा लूट लिया। रोहिल्ला, मराठा, सिख, अफ़गान, और ब्रितानियों ने दिल्ली पर आक्रमण किया और लूटपाट मचाई. साल 1748 में सरहिंद में मोहम्मद शाह रंगीला अफ़गान घुसपेठिए अहमद शाह अब्दाली से युद्ध लड़ते हुए मारे गए। इतिहासकार जसवंतलाल मेहता अपनी क़िताब 'एडवांस स्टडी इन द हिस्ट्री ऑफ़ मॉडर्न इंडिया 1707-1813 में लिखते हैं कि

मोहम्मद शाह की मौत के बाद उनका बेटा अहमद शाह दिल्ली का शासक बना. लेकिन वह अपनी माँ के दोस्त जावेद ख़ान का मोहरा मात्र था. सफदरजंग, जो कि अवध के नवाब थे, उन्होंने जावेद ख़ान को मरवा दिया कि इसी दौर में मराठा सेनाएं उत्तर भारत के इलाकों को जीत रही थीं। सफदरजंग मराठों से युद्ध करने के लिए तैयार नहीं थे। वह सिर्फ अपना प्रांत अवध बचाना चाहते थे। इस वजह से उन्होंने मुगलों की तरफ से मराठा साम्राज्य से संधि कर ली। 

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