डॉ. सत्येंद्र किशोर मिश्र का लेख : सामाजिक लोकतंत्र का लक्ष्य शेष
बाबासाहेब के अनुसार सामाजिक समता एवं बंधुत्व के बगैर राजनीतिक स्वतंत्रता बेमानी है। उनका मकसद नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित करने तक ही सीमित न होकर ऐसे समाज की संकल्पना में था, जिसमें स्वतंत्रता, समता हो। उन्होंने आत्मगौरव के साथ सामाजिक समता बढ़ाने का प्रयास किया।;
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ताउम्र गरीबों, वंचिताें और मजलूमों के लिए संघर्ष किया। बाबासाहेब प्रत्येक नागरिक के साथ समान मानवोचित एवं गरिमापूर्ण व्यवहार को समतामूलक समाज हेतु अपरिहार्य मानते थे। उनके सामाजिक न्याय, संवैधानिक व्यवस्था एवं सियासत संबंधी विचारों की बुनियाद में उनका आर्थिक दर्शन था। बाबासाहेब के अनुसार सामाजिक समता एवं बंधुत्व के बगैर राजनीतिक स्वतंत्रता बेमानी है। उनका मकसद नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित करने तक ही सीमित न होकर ऐसे समाज की संकल्पना में था, जिसमें स्वतंत्रता, समता हो। उन्होंने आत्मगौरव के साथ सामाजिक समता बढ़ाने का प्रयास किया।
आज की राजनीति क्या बाबा साहेब के सपनों के सामाजिक लोकतंत्र के लक्ष्य को हासिल कर पा रही है? बाबासाहेब डॉ. भीम राव आंबेडकर ने समाज के मजलूम वर्गों के साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। बाबासाहेब ने समाज में जहां भी अन्याय देखा, चाहे वह तथाकथित धर्म, संस्कृति, परम्परा अथवा रीतिरिवाज के नाम पर हो अथवा सामन्ती सोच तथा ज्यादती के कारण, उसे चुनौती देने का साहस कर, युगदृष्टा बने। उन्होंने महसूस किया कि वंचितों, दलितों तथा महिलाओं के साथ भेदभाव एवं अन्याय की बुनियाद सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था के भीतर है। सामाजिक अन्याय, कुप्रथाओं एवं विभाजनकारी प्रवृत्तियों ने भारतवर्ष की सामुदायिकता एवं राष्ट्रीयता की भावना को जकड़ रखा है। वर्तमान में नवउदारवाद के दौर में जनांकिकी लाभांश के माध्यम से भारत वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने का मंसूबा रखता है, परन्तु इस राह में गरीबी, बेरोजगारी सहित बढ़ती आर्थिक तथा क्षेत्रीय असमानता गंभीर चुनौती बनी हुई है, जिनका समाधान बाबासाहेब के सामाजिक-आर्थिक वैचारिक दिशानिर्देशों द्वारा संभव है।
बाबासाहेब प्रत्येक नागरिक के साथ समान मानवोचित एवं गरिमापूर्ण व्यवहार को समतामूलक समाज हेतु अपरिहार्य मानते थे। उनके सामाजिक न्याय, संवैधानिक व्यवस्था एवं सियासत संबंधी विचारों की बुनियाद में उनका आर्थिक दर्शन था। बाबासाहेब के अनुसार सामाजिक समता एवं बंधुत्व के बगैर राजनीतिक स्वतंत्रता बेमानी है। उनका मकसद नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों की गारंटी सुनिश्चित करने तक ही सीमित न होकर ऐसे समाज की संकल्पना में था, जिसमें स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व हो। सामाजिक भेदभाव खत्म किए बगैर गरीबों, दलितों, अश्पृस्यों तथा महिलाओं के लिए राजनीतिक आजादी का कोई मतलब ही नहीं है। बाबासाहेब ने संवैधानिक प्रावधानों के जरिये वंचित वर्गों की राजनीतिक एवं प्रशासकीय व्यवस्था में भागीदारी बढ़ाकर आत्मगौरव के साथ सामाजिक समता बढ़ाने का प्रयास किया। उनकी सोच थी कि अस्पृश्यता उन्मूलन तथा भेदभाव की समाप्ति, सामाजिक न्याय का एकमात्र कर्तव्य नहीं है, अपितु यही राष्ट्रनिर्माण की बुनियाद भी है।
बाबासाहेब, स्वतन्त्रता, समता एवं बंधुत्व पर आधारित लोकतंत्रात्मक सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर थे। स्वतंत्रता से उनका तात्पर्य था कि देश का प्रत्येक नागरिक हर मामले में न केवल समान हो अपितु उसे सभी प्रकार के अवसरों की समानता भी हासिल हो। इस राह में जो भी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक अथवा राजनीतिक व्यवस्था रुकावट हो, उसे हटाना ही होगा, इसी से राष्ट्र मजबूत होगा। ऐसे समतामूलक समाज निर्माण में संवैधानिक, राजनीतिक एवं सामाजार्थिक प्रावधानों का महत्व तो है ही, धर्म के मूलभूत सिद्धांतों के साथ-साथ इसके आचार-व्यवहार में भी परिवर्तन जरूरी है। ‘रिडल्स इन हिन्दुइज्म’ में बाबासाहेब ने माना कि हिन्दू धर्म का मूलाधार ब्रह्मसिद्धान्त, लोकशाही की बुनियाद बन सकता है, क्योंकि इसके अनुसार प्रत्येक जीव ब्रह्म का ही अंश है तो मानव मात्र में भेद क्यों?
बाबा साहेब का संघर्ष धर्म से नहीं, अपितु पाखंड के समूल उन्मूलन से था। ‘गौतम बुद्ध और उनका धम्म’ में बाबासाहेब कहते हैं कि धर्म की अनुपस्थिति से समाज अराजक हो जाता है। अकेले व्यक्ति को धर्म की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु समुदाय में परस्पर व्यवहार हेतु धर्म बहुत जरूरी है। बाबासाहेब के अनुसार धर्म को सिद्धान्त रूप में ही रहना चाहिए, परन्तु उसे नियम-कानून में कोई स्थान नहीं देना चाहिए। वस्तुतः धर्म तथा नियम-कानून दो शक्तियां हैं जो मिलकर समाज का संचालन एवं नियंत्रण बेहतर ढंग से कर सकती हैं। धर्म मूलतः व्यक्ति निरपेक्ष होने के कारण अन्याय, असमानता एवं भेदभाव को खत्म कर सकता है, जबकि नियम-कानून व्यक्ति सापेक्ष होते हैं, अतः अकेले होने पर अन्याय, असमानता एवं भेदभाव को बढ़ावा दे सकते हैं।
बाबासाहेब के अनुसार अन्याय, असमानता एवं भेदभाव समाज की अपूर्णता का प्रतीक है, परन्तु अस्पृश्यता तो राष्ट्रनिर्माण में सबसे बड़ी बाधा है, जिससे निजात पाना ही होगा। यदि समाज एवं संस्कृति की रक्षा करनी है तो इनमें कालक्रम में जो विकृतियां आ गई हैं, उन्हें सुधारने में झिझक नहीं होनी चाहिए, हिन्दू कोड बिल ऐसे सुधारों के लिए ही तो था। बाबा साहेब के अनुसार स्वार्थी तथा लालची प्रवृत्तियों ने दलितों, वंचितों तथा महिलाओं के साथ भेदभाव तथा अन्याय कर उन्हें समाज में निचले पायदान पर रखा। आंबेडकर ने संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री के रूप में समस्त नागरिकों हेतु स्वतंत्रता एवं समानता की गारंटी भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में दी। बाबासाहेब जीवनपर्यन्त समाज में पीड़ितों तथा वंचित वर्गों तथा महिलाओं के उत्थान के लिए संघर्ष करते रहे। उन्हें जो भी गलत लगा, उसका शिद्दत से प्रतिकार किया। बाबासाहेब सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु संघर्ष में व्यवस्था से टकराकर सामाजिक न्याय के मसीहा बने। भारत आज जो, दलितों, महिलाओं की स्थिति में सुधार के जरिये सामाजिकार्थिक विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ा है, वह बाबासाहेब के त्याग एवं संघर्ष का नतीजा है। उनका सामाजिक न्याय का रास्ता क्रान्तिकारी, भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के अनुकूल तथा सार्वकालिक है।
आंबेडकर सामाजिक जीवन की बुराइयों तथा कुप्रथाओं से लड़ते हुए, सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना को प्रतिबद्ध थे। छुआछूत के खिलाफ संघर्ष, विधायिका में दलितों के पृथक प्रतिनिधित्व की वकालत से लेकर जीवन के आखिरी दिनों में सामूहिक धर्मान्तरण तक का सफर सामाजिक लोकतंत्र के प्राप्ति की ही कोशिश थी। महापरिनिर्वाण के कुछ समय पूर्व बौद्ध धर्म अपनाने में बाबासाहेब की सामाजिक अन्याय, अलगाव एवं कुप्रथाओं के प्रति पीड़ा, चिन्ता एवं विद्रोह के साथ-साथ उससे मजबूर समाज को उबारने की छटपटाहट थी। बाबासाहेब का सामाजिक लोकतन्त्र के प्रति दृढ़ विश्वास समकालीन राजनेताओं से बिल्कुल अलग था। वे क्रमिक बदलाव के विचार से असहमति जताते हुए समाज में तेज बदलाव के पक्षधर थे। वे दलितों के लिए प्रशासन एवं सियासी व्यवस्था में हिस्सेदारी की पुरजोर वकालत कर सामाजिक अलगाव को समाप्त करना चाहते थे। इसके लिए आरक्षण के प्रावधानों की वकालत तो की, परन्तु चिंतित भी थे कि कहीं ये प्रावधान इस वर्ग को हमेशा के लिए कमजोर न कर दे।
बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउन्सिल में बहस के दौरान बाबासाहेब ने कहा था कि लोगों की समृद्धि ही देश की सबसे बड़ी धरोहर होती है, उन्हें दया का पात्र या भिखारी नहीं बनाना चाहिए। जो देश अपने नागरिकों को भिखारी बना देता है, अंततः वह खुद भिखारी बन जाता है। यह बात आज की रेवड़ी कल्चर पर समीचीन बैठती है
डॉ. सत्येंद्र किशोर मिश्र (लेखक विक्रम विवि में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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