राज कुमार सिंह का लेख : आसान नहीं केसीआर की राह
तेलंगाना के गठन के लिए लंबे संघर्ष के नायक रहे के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) क्षेत्रीय दलों के मोर्चा के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में बड़े किरदार के सपने देख रहे थे, लेकिन रणनीति के तहत भी कांग्रेस और भाजपा ने ऐसी घेराबंदी की है कि तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की राह आसान नहीं लगती। वर्ष 2018 में केसीआर की टीआरएस ने 119 सदस्यीय विधानसभा में 88 सीटें जीत कर लगातार दूसरी बार सरकार बनाई थी, जो पृथक राज्य बनने के बाद हुए पहले चुनाव से भी 25 ज्यादा थीं। दूसरे स्थान पर कांग्रेस रही थी, जिसे अकेले दम पर 19 सीटें जीती थी। इनका फासला बताता है कि तब केसीआर की कैसी लहर रही होगी।;
आंध्र प्रदेश के विभाजन से पृथक राज्य तेलंगाना के गठन के लिए लंबे संघर्ष के नायक रहे के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) क्षेत्रीय दलों के मोर्चा के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में बड़े किरदार के सपने देख रहे थे, लेकिन अलग-अलग रणनीति के तहत भी कांग्रेस और भाजपा ने ऐसी घेराबंदी की है कि तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की राह आसान नहीं लगती। नवंबर में चुनाव वाले पांच राज्यों में सबसे आखिर में तेलंगाना में ही 30 तारीख को मतदान होगा। वर्ष 2018 में केसीआर की तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने 119 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए जरूरी से भी ज्यादा 88 सीटें जीत कर लगातार दूसरी बार सरकार बनाई थी, जो वर्ष 2014 में पृथक राज्य बनने के बाद हुए पहले चुनाव से भी 25 ज्यादा थीं। दूसरे स्थान पर कांग्रेस रही थी, जिसे अकेले दम पर 19 और उसके नेतृत्व वाले पीपुल्स एलायंस को 22 सीटें मिली थीं। टीआरएस और कांग्रेस की सीटों के बीच का फासला बताता है कि तब केसीआर की कैसी लहर रही होगी।
सीटें ही नहीं, टीआरएस को मिले 47 प्रतिशत मत भी केसीआर की लोकप्रियता का संकेत रहे। उस लहर में सबसे ज्यादा नुकसान तेलुगु देशम को हुआ था, जिसकी सीटें वर्ष 2014 के मुकाबले 15 से घटकर दो रह गई। भाजपा ने अपनी चार विधानसभा सीटें गंवाई थी, तो कांग्रेस को भी दो सीटों का नुकसान हुआ था। अब जब केसीआर तीसरी बार जनादेश मांग रहे हैं, तब राजनीतिक समीकरण बदले हुए नजर आ रहे हैँ। आत्मविश्वास कहें या अति विश्वास, कर्नाटक में भाजपा से सत्ता छीन लेने के बाद कांग्रेस को लगता है कि वह तेलंगाना में भी सत्ता में वापसी कर सकती है। बेशक अविभाजित आंध्र प्रदेश एक हद तक कांग्रेस का गढ़ रहा, पर पृथक राज्य बने तेलंगाना ने उसमें वैसा विश्वास नहीं जताया। इसके बावजूद कांग्रेस को सत्ता में वापसी जैसी उम्मीदें हैं तो उसके दो कारण हैं एक, भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने लंबा समय तेलंगाना में गुजारा। दो, कर्नाटक में कांग्रेस की जीत का पूरे दक्षिण भारत में मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उप मुख्यमंत्री डी के शिवकुमार तेलंगाना में चुनाव प्रचार भी कर रहे हैं। उनका मुख्य फोकस यह बताने पर रहता है कि कर्नाटक में चुनाव के दौरान कांग्रेस द्वारा दी गई पांचों गारंटी पूरी कर दी गई हैं, इसलिए तेलंगाना के मतदाताओं को भी उसकी छह गारंटियों पर विश्वास करना चाहिए। केसीआर, कांग्रेस के दावों को झूठा बताते हुए न सिर्फ अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं का रिपोर्ट कार्ड पेश कर रहे हैं, बल्कि और अधिक लुभावने वायदे भी कर रहे हैं। 2018 के बाद कांग्रेस से गठबंधन कर कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने एच डी कुमारस्वामी के जनता दल (सेक्यूलर) का वैसे तो अब भाजपा से गठबंधन है, पर वह भी केसीआर के सुर में सुर मिलाते हुए तेलंगाना में बता रहे हैं कि कांग्रेस की गारंटियां छलावा हैं। अंतिम परिणाम तो तीन दिसंबर को पता चलेगा, पर कांग्रेस की तैयारियों, तेवरों और आक्रामक प्रचार से संदेश यही जा रहा है कि वह टीआरएस को बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) बनाने वाले केसीआर को टक्कर दे रही है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि चंद्रबाबू नायडू के जेल में बंद होने के कारण चुनाव मैदान में तेलुगु देशम की गैर मौजूदगी का लाभ किसको मिलेगा। ऐसा माना जा रहा है कि नायडू की गिरफ्तारी की निंदा न करने के चलते तेलुगु देशम समर्थक केसीआर से खफा हैं। उधर आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ वाईएसआरसीपी की तेलंगाना इकाई के नेता भी कांग्रेस के प्रति नरम रुख दिखा रहे हैं। ऐसे छोटे दलों का समर्थन भी कांग्रेस के हौसले बढ़ा रहा है।
कांग्रेस ने चुनाव जिताऊ कसौटी के चलते अन्य दलों से आये नेताओं को टिकट देने में भी संकोच नहीं किया है। वैसे दलबदलुओं पर मेहरबानी से परहेज बीआरएस और भाजपा ने भी नहीं किया है। अगर तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने की केसीआर की राह मुश्किल नजर आ रही है तो इसका एक बड़ा कारण चुनाव मैदान में भाजपा की उपस्थिति और रणनीति है। हालांकि वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 6.98 प्रतिशत मतों के साथ मात्र एक सीट ही मिली थी, लेकिन अगले ही साल हुए लोकसभा चुनाव में वह 19.65 प्रतिशत वोट पाकर चार सीटें जीतने में सफल रही। दरअसल ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनावों में मिली सफलता से भाजपा के हौसलों को ऊंची उड़ान मिली है। भाजपा 150 में से 48 वार्ड जीतने में सफल रही। इसलिए उसने भी चुनाव जिताऊ कसौटी के आधार पर अपने पुराने निष्ठावानों से ज्यादा टिकट दूसरे दलों से आए नेताओं को दिए हैं। भाजपा को ज्यादा उम्मीदें उत्तरी तेलंगाना से हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि लगभग 40 सीटों पर मुकाबले में नजर आ रही भाजपा 7-8 सीटें जीत सकती है।
निजी बातचीत में खुद भाजपा नेताओं की यह टिप्पणी कि हम ‘किंग’ नहीं तो ‘किंग मेकर’ अवश्य बनेंगे, बताती है कि बहुमत मिलने की खुशफहमी पार्टी को नहीं है, पर परिवारवाद पर प्रहार तथा पिछड़े वर्ग का मुख्यमंत्री बनाने के वादे की आक्रामक रणनीति से वह बीआरएस और कांग्रेस, दोनों को नुकसान पहुंचाते हुए इतनी सीटें अवश्य जीत लेना चाहती है कि केसीआर अपने नूराकुश्ती-मित्र असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम के सहयोग के बावजूद, उसके समर्थन के बिना तीसरी बार मुख्यमंत्री न बन पाएं। भाजपा का आकलन है कि एआईएमआईएम 6-7 सीट से ज्यादा नहीं जीत सकती। ऐसे में अगर बीआरएस को 50 सीटों तक रोका जा सके तो केसीआर को भाजपा से हाथ मिलाना ही पड़ेगा, जिसका असर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी होगा। बेशक तब बीआरएस और भाजपा में मिलीभगत के कांग्रेसी आरोप की पुष्टि भी हो ही जाएगी। ध्यान रहे कि तेलंगाना से 17 लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं। 2019 के चुनाव में केसीआर की पार्टी नौ सीटें ही जीत पाई थी, जबकि भाजपा और कांग्रेस के हिस्से क्रमश: चार और तीन सीटें आई थी। शेष एक सीट ओवैसी की पार्टी को मिली थी। केसीआर को चुनावी घेराबंदी और उसके मंसूबों का अहसास है, इसलिए मौजूदा जन कल्याणकारी योजनाएं गिनाते हुए भी उन्होंने कांग्रेस के चुनावी वादों से आगे बढ़कर लुभावने वादे किए हैं। चुनाव जिताऊ कसौटी के दबाव में बीआरएस ने भी दलबदलुओं को टिकट देने से परहेज नहीं किया। अब जबकि तेलंगाना मतदान की दहलीज पर खड़ा है, राज्य के अल्पसंख्यक मतदाताओं की भूमिका निर्णायक मानी जा रही है, जो 40-45 सीटों को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे में अल्पसंख्यक आरक्षण बड़ा मुद्दा बन गया है, जिस पर कांग्रेस और बीआरएस, दोनों ही अपनी-अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। बीआरएस की सत्ता में वापसी की संभावनाएं इसलिए बेहतर मानी जा सकती हैं कि उसके पास समर्थन लेने के विकल्प होंगे, जबकि कांग्रेस के पास नहीं।
(लेखक- राज कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)