कनक तिवारी का लेख : राजेंद्र बाबू अपनी जात बताइए...

डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दुस्तान की जद्दोजहद, आपसी खींचतान और चरित्र हत्या तक की राजनीति के बावजूद इने गिने अजातशत्रुओं में रहे हैं। खान अब्दुल गफ्फार खान, लालबहादुर शास्त्री, गुलजारीलाल नंदा, कर्पूरी ठाकुर जैसे कई राजनेता चुंबक की तरह खींचते थे। राजेन्द्र प्रसाद दो बार राष्ट्रपति, कांग्रेस अध्यक्ष, संविधान सभा के अध्यक्ष और न जाने कितने महत्वपूर्ण पदों पर 'एक मेवो द्वितीयो' नास्ति जैसे कद्दावर पुरुष रहे हैं। आज़ादी के सिपहसालारों का बाद में विस्मरण में होता गया। उपेक्षितों की सूची में भी डाॅ. राजेंद्र प्रसाद काफी ऊंची पायदान पर हैं। स्थिति बदलनी चाहिए।;

Update: 2022-12-03 08:16 GMT

आज राजेंद्र बाबू का जन्मदिन है। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद हिन्दुस्तान की जद्दोजहद, आपसी खींचतान और चरित्र हत्या तक की राजनीति के बावजूद इने गिने अजातशत्रुओं में रहे हैं। खान अब्दुल गफ्फार खान, लालबहादुर शास्त्री, गुलजारीलाल नंदा, कर्पूरी ठाकुर जैसे कई राजनेता चुंबक की तरह खींचते थे। राजेन्द्र प्रसाद दो बार राष्ट्रपति, कांग्रेस अध्यक्ष, संविधान सभा के अध्यक्ष और न जाने कितने महत्वपूर्ण पदों पर 'एक मेवो द्वितीयो' नास्ति जैसे कद्दावर पुरुष रहे हैं। राजेन्द्र बाबू अन्य नेताओं के बनिस्बत छात्र जीवन में अनोखे प्रतिमान के जहीन रहे। किस्सा यहां तक है कि कई अध्यापकों से ज्यादा तेज दिमाग और आलिम फाजिल बताया गया। कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्तावों को लिखने के महारथी प्रसाद के ड्राफ्ट को गांधी तक नहीं सुधार पाते थे। 1917 में चंपारण के किसानों के संघर्ष को आंदोलनमय बनाने गए गांधी को राजेन्द्र बाबू के संरक्षण की ज़रूरत पड़ी थी। तब वे बिहार में शीर्ष नेता स्थापित हो चुके थे। बाद में उनके परिवारजनों पर कुछ किसानों की जमीनें हथियाने के आरोप भी लगाए गए।

आजादी के सिपहसालारों का बाद में विस्मरण में होता गया। उपेक्षितों की सूची में भी डाॅ. प्रसाद काफी ऊंची पायदान पर हैं। वीरों, शहीदों, भाग्यनिर्माताओं और इतिहासनियंताओं को लेकर भारत बहुत अधिक श्र्रद्धावनत और वफादार नहीं भी है। गांधी गुजरात में सिमटाये जा रहे हैं। अदानी, अम्बानी आदि के मुकाबले गांधी वाइब्रेंट गुजरात नहीं हैं। महानता के बावजूद उन्हें सफाई और शौचालय का ब्रांड अंबेसडर बना दिया गया। सत्याग्रह, अहिंसा, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी निजाम के हेकड़बाजी के हथियार से गायब कर दिए गए हैं। नेहरू का नामलेवा उनकी कांग्रेस पार्टी में ही ढू़ंढ़ना मुश्किल है। अलबत्ता बुद्धिजीवियों ने नेहरू को लोकतंत्र का रक्षाकवच बनाकर इतिहास के गले उतार देना तय कर रखा है। निराला जैसा दुर्धर्ष कवि कभी कभार साहित्यिक समारोहों और कान्यकुब्ज ब्राम्हणों के सम्मेलन में याद कर लिया जाता है। सरदार पटेल जातीय आधार पर कुर्मी और भौगोलिक आधार पर गुजरात में संसार की सबसे ऊंची मूर्ति में तब्दील हो गए हैं। सरदार का इस्तेमाल इतिहास में इसलिए ज्यादा है कि लोगों को बताया जाए कि उन्हंें मुसलमानों से नाइत्तकाफी और कांग्रेसियों के बहुमत के बावजूद गांधी ने पटेल के बदले नेहरू को प्रधानमंत्री बनवा दिया। हालिया वर्षों में राणा प्रताप चेतक के बदले क्षत्रियों के हत्थे चढ़ा दिए गए हैं। उनकी रौबदार मूंछें, हाथ में भाला, सिरस्त्राण, बड़ी बड़ी लाल रौद्र आंखें उन्हें क्षत्रिय कुल शिरोमणि बनाकर परोसने से राजपूत वोट बैंक का कारक बनाया जाता है। राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और लाल बहादुर शाास्त्री जैसे जन्मना कायस्थ अपने नाम के पीछे उपनाम लिखने से परहेज करते रहे। जाति की सरगनिसेनी पर चढ़ना हो तो नेहरू उन कश्मीरी पंडितांें के सहारे रह जाएंगे जिनकी खुद की जिंदगी अनुच्छेद 370 के छद्म के भी कारण यतीम, खानाबदोष और मनुष्य होने की अतिरिक्तता बनाई जा रही है। असंदिग्ध राष्ट्रवादी और भारत विभाजन के विरोधी मौलाना आजाद की जयंती मुस्लिम संगठन ही मनाने मजबूर हैं।

राजनीति में धर्म के मुकाबले जाति जिरहबख्तर पहनकर मैदान में है। 'जयश्रीराम' के मुकाबले जातिवाद ने भी अपने हथियार पैने कर लिए हैं। मंडल बनाम कमंडल का मैच खेला जा रहा है। लालू यादव और राजनीतिक समधी मुलायम सिंह यादव का परिवार उत्तरप्रदेश, बिहार में सियासी रसूखदार कब्जेदार रहा। कुर्मी नक्षत्र नीतीश कुमार और भूपेश बघेल जातीय हिकमत से अपने अपने प्रदेश संभाले हुए हैं। अन्य पिछड़े वर्ग तरक्कीकुनिंदा नहीं बन पाते हैं। छत्तीसगढ़ के पिछड़े वर्गों में साहू या तैलिकवैश्य की संख्या सबसे ज़्यादा है।

कांग्रेस को परिवारवाद की पार्टी बताते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जातिवाद का ककहरा पढ़ते तैलिकवैश्य बनते उन क्षेत्रों में जाकर वोट बटोर लेते हैं, जहां उनकी पिछड़ी जाति के मतदाता बड़ी संख्या में होते हैं। वह नेता भारत विभाजन के वक्त अखिल भारतीय कांग्रेस का अध्यक्ष रहा। संविधान सभा की पहली बैठक में उसने ही बिसमिल्लाह किया था। वे आचार्य कृपलानी वतनपरस्ती दिखाने क्या पाकिस्तान के सिंध जाते? वे रायपुर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के नामालूम उम्मीदवार लखनलाल गुप्ता, और मुंबई में वी0 के0 कृष्णमेनन जैसे कद्दावर कांग्रेसी से चुनाव हारते गए। गांधी के नामजद उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को त्रिपुरी कांग्रेस में डंके की चोट पर हराने वाले सुभाष बाबू की यादें उसी तरह मनाई जाती हैं जैसे भरी गरमी के मौसम में बरसात के छींटे पड़ें। प्रधानमंत्री ने सभी वर्गीकृत फाइलें निकलर्वाइं जिससे नेहरू प्रशासन पर तोहमत लग सके कि नेताजी की मौत को केंद्र सरकार की जिम्मेदारी रही है। सब कुछ टांय टांय फिस्स हुआ। नेताजी के वंशज भाजपा में शामिल भी हुए। फिर रुखसत हो गए। दिल्ली में इंडिया गेट पर नेताजी की गैरअनुपातिक मूर्ति लगाए जाने को लेकर बोस परिवार ने ही बावेला मचाया। असाधारण प्रतिभा के बावजूद दयानंद सरस्वती आर्य समाज और विवेकानंद रामकृष्ण मिषन के ही नसीब में हाज़िर हैं। अलग बात है कि सामाजिक अभियांत्रिकी के नए समीकरण के चलते डा. भीमराव आंंबेडकर नए इतिहास पुरुष हैं। उनकी जरूरत हर राजनीतिक पार्टी को है। गुरुनानक से लेकर गुरु गोविंद सिंह तक सिक्खों के मार्फत जनता तक पहुंचने के दुर्लभ आत्मालय हैं, लेकिन किसी सार्वजनिक प्रतीति के नहीं। जनसंख्या के धर्म वाले काॅलम में आदिवासी को कोई विकल्प नहीं है सिवाय अपने को हिन्दू लिखने के, लेकिन जातीय आधार पर संविधान उसका आरक्षण करता है। हिन्दू धर्म के सभी कानूनों में आदिवासी का नाम लिखा है लेकिन लागू होने की तिथि मुल्तवी कर दी गई है।

बात राजेन्द्र बाबू से शुुरू हुई थी। यह बात हर राष्ट्रनायक की याद में उसी तरह चस्पा की जा सकती है। चंद्रशेखर आज़ाद से उनका नाम और परिचय पूछा गया तो उन्होंने अपना पता हिन्दुस्तान बताया था। यही भगत सिंह और उनके बाकी क्रांतिकारी साथियों ने किया। जगह जगह शहीदों की कुरूप छोटी छोटी मूर्तियां उत्साही लोग स्थापित कर देते हैं। सड़क चौड़ीकरण और डिवाइडर बनाने के नाम पर उनको किसी कोने में धकिया दिया जाता है। तय नहीं हो पाता वे अंत में कहां महफूज रह पाएंगे। इन महान पुरुषों का दृष्टिबोध सेक्युलरिज्म के पक्ष में रहा है। उनके विचार मध्य से हटकर वामपंथ की ओर रहे हैं। हर प्रगतिषील व्यक्ति को सेक्युलरिस्ट या कम्युनिस्ट या वामपंथी कहकर उस पर तोहमत बख्श दी जाती है। सेक्युलरिस्टों, कम्युनिस्टों और वामपंथियों की कोई जाति नहीं। लेकिन अलग है कि उनके प्रेरणा पुरुष कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओत्से तुंग जैसे विदेशों के ही होते हैं। राष्ट्रपिता को ही हम गोली मारकर यादों में दफ्न कर चुके हैं तो राष्ट्रपति रहे की यादों की पीठ पर छुरा मारने से कौन रोक सकता है? आज हमें अपने महापुरुषों के बारे में गहराई से विचार करने की जरूरत है कि हम उन्हें उनके योगदानों के रूप में जानें न कि किसी अन्य राजनीतिक खांचे में। 

 (लेखक  कनक तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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