डॉ. रमेश ठाकुर का लेख : प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा

टनल इंजीनियरिंग, अंडरपिनिंग व टनलिंग विधि में भारतीय व्यवस्थाएं अब भी काफी पिछड़ी हुए हैं। पहाड़ों को फाड़कर उनके भीतर टनल या सुरंग बनाने का अनुभव नहीं है। हालांकि सॉफ्ट-ग्राउंड क्षेत्रों में सुरंगें, टनल, सब-वे व सीवर बनाने की विधियां में तो हमारी तकनीकें कारगर और मजबूत हैं, पर पहाड़ी दुगर्म क्षेत्रों को तहस-नहस करके उनमें विशालकाय सुरंगे बनाने के लिए आधुनिक तामझाम, टेक्नाॅलोजी व उपयुक्त सिस्टम नहीं हैं।;

Update: 2023-11-20 07:15 GMT

टनल इंजीनियरिंग, अंडरपिनिंग व टनलिंग विधि में भारतीय व्यवस्थाएं अब भी काफी पिछड़ी हुए हैं। पहाड़ों को फाड़कर उनके भीतर टनल या सुरंग बनाने का अनुभव नहीं है। हालांकि सॉफ्ट-ग्राउंड क्षेत्रों में सुरंगें, टनल, सब-वे व सीवर बनाने की विधियां में तो हमारी तकनीकें कारगर और मजबूत हैं, पर पहाड़ी दुगर्म क्षेत्रों को तहस-नहस करके उनमें विशालकाय सुरंगे बनाने के लिए आधुनिक तामझाम, टेक्नाॅलोजी व उपयुक्त सिस्टम नहीं हैं। विकास की दौड़ में हम इतने अंधे हुए पड़े हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना ही भूल गए। प्राकृतिक संरचनाएं मानव निर्मित मशीनों को कतई इजाजत नहीं देती कि उनका सीना वो बिनावजह चीरें?

सुरंग मेकिंग तकनीक विफलता की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए, क्योंकि ये परियोजना जोखिम से भरी है। हुकूमतें इस बात को बेशक न माने, पर टनल इंजीनियरिंग, अंडरपिनिंग व टनलिंग विधि में भारतीय व्यवस्थाएं अब भी काफी पिछड़ी हुए हैं। पहाड़ों को फाड़कर उनके भीतर टनल या सुरंग बनाने का अनुभव नहीं है। हालांकि सॉफ्ट-ग्राउंड क्षेत्रों में सुरंगें, टनल, सब-वे व सीवर बनाने की विधियां में तो हमारी तकनीकें कारगर और मजबूत हैं, पर पहाड़ी दुगर्म क्षेत्रों को तहस-नहस करके उनमें विशालकाय सुरंगे बनाने के लिए आधुनिक तामझाम, टेक्नाॅलोजी व उपयुक्त सिस्टम नहीं हैं। यही बड़ा कारण है कि पहाड़ों में बड़े प्रोजेक्ट कामयाब नहीं हो रहे। वहां, इस तरह की परियोजनाओं के असफल होने के पीछे पर्यावरण प्रकोप भी मुख्य वजहें हैं। उत्तराखंड में बीते दशक भर में घटी तमाम दर्दनाक घटनाएं इसका बड़ा उदाहरण हैं। उन्हीं में ये मौजूदा सुरंग की घटना भी शामिल है। जहां, ब्रह्मखाल-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर पहाड़ों का सीना चीरकर सिल्क्यारा और डंडालगांव के बीच लगभग पांच किलोमीटर लंबी सुरंग का निर्माण कार्य जारी है। सुरंग तो नहीं बनीं, लेकिन चालीस जिंदगियां मौत से जरूर लड़ रही हैं। उनकी जिंदगी में अंधकार आएगा या उजाला, उन्हें नहीं पता? जिदंगी की नई उम्मीद लेकर धंसी सुरंग में एक-एक पल काट रहे हैं।

निश्चित रूप से सुरंग कांड की ये दिल दहला देने वाली घटना रोंगटे खड़े करती है। समय जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, धड़कनें तेज हो रही हैं। सुरंग के शांत और डरावने सन्नाटे से मजदूर कैसे मुक्त हों? इसकी उम्मीद भी मुकम्मल तौर पर कोई नहीं बंधवाता। 12 तारीख से लेकर अभी तक स्थिति गंभीर बनी हुई है। उम्मीद की किरणें हर पल धूमिल होती दिख रही हैं। हालांकि शासन-प्रशासन रेस्क्यू अभियान में मुस्तैदी से जुटा है, पर सारे प्रयास अभी तक विफल ही हुए हैं। घटनास्थल पर पहुंचकर मजदूरों के परिजन चीख-चिल्ला, रो-बिलख रहे हैं और सिस्टम को ललकार रहे हैं। वो अपनों की जान बचाने की भीख मांग रहे हैं। सुरंग को मौत की सुरंग्ा बोलकर ईश्वर से हाथ फैलाकर उनके लिए सलामती की दुआएं भी कर रहे हैं। वैसे दुआएं उनके परिजन ही नहीं, बल्कि समूचा भारत कर रहा है और सभी की निगाहें वहीं टिकी हुई हैं। मजदूर सुरंग के भीतर किस हाल में होगेंं, ये तो सिर्फ वही जानते होंगे? काले अंधेरे में मंडराती बिन बुलाई मौत उनके सामने दस्तक देकर खड़ी होगी, जिसे वो खुली आंखों से भयभीत होकर निहार रहे होंगे। उस दृश्य की कल्पना मात्र से भी कलेजा कपकपाता है।

बहरहाल, एक उम्मीद बंधी है अमेरिकी से कोई आधुनिक ड्रिल मशीन मंगवाई है जिसके जरिये मजदूरों को बाहर निकालने की कोशिशें जारी हैं। ड्रिल मशीन के जरिए सुरंग के बाजू में एक गड्डा करके उसमें पाइप डालकर ड्रिलिंग का काम शुरू कर दिया है। जिसका सहारा लेकर अंदर फंसे मजदूरों को बाहर निकाला जाएगा। ये अमेरिकी ड्रिल मशीन बहुत तेज स्पीड से टनल काटती है। इसके अलावा थाइलैंड से भी कुछ एक मशीनें मंगवाई गई हैं जो इस रेस्क्यू अभियान में भारतीय सेना की मदद करेगी, लेकिन ये घटना कई सवाल खड़े करती है। उत्तराखंड में विगत कई हुकूमती प्रोजेक्ट असफल हुए और बड़े हादसों में तब्दील हुए। इशारा साफ है कि मानवीय हिमाकतों का खामियाजा कुदरत ने तुरंत दिया। केदारनाथ पावर प्रोजेक्ट उत्तरकाशी थर्मल प्लांट, बद्रीनाथ आदि में हुए हादसे संकेत ही तो देते हैं कि पहाड़ों को मत छेड़ो? अगर छेड़ोगे तो उसका अंजाम बुरा होगा? बुरा हो भी रहा है, लेकिन फिर भी कुदरत से मुकाबले करने के लिए इंसान आगे खड़े हैं। खुदा न खास्ता सुरंग में फंसे इन चालीसों मजदूरों के साथ कोई अनहोनी हो जाती है, तो उसकी भरपाई कौन करेगा। सुरंग ढहने के खिलाफ कानूनी सुरक्षा के लिए सतह प्रक्रिया भी कोई तय नहीं है, जिससे हताहतों के परिजन कानूनी लड़ाई लड़कर न्याय पा सकें।

बहरहाल, कहा जाता है कि विनाश की उत्पत्ति विकास से ही होती है। विकास के लिए हम प्रकृति से लगातार खिलवाड़ करते आ रहे हैं और इन खिलवाड़ों के परिणाम भी हमने देखे और भुगते हैं, लेिकन उनसे कोई सबक नहीं ले रहे। विकास की दौड़ में हम इतने अंधे हुए पड़े हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना ही भूल गए। प्राकृतिक संरचनाएं मानव या उनके द्वारा निर्मित मशीनों को कतई इजाजत नहीं देती कि उनका सीना वो बिनावजह चीरें? ये बात सोलह आने सच है कि विकास के लिए हम पर्यावरण के नियंत्रण को पूरी तरह भूल गए हैं। एक कड़वी सच्चाई से इंजीनियर पूरी तरह वाकिफ होते हुए भी मौन रहते हैं? उन्हें पता होता है कि मैदानी क्षेत्र टनल या सुरंग बनाने में मदद करते हैं, लेकिन पहाड़ी क्षेत्र बिल्कुल नहीं? बावजूद इसके पहाड़ों का दोहन करने से बाज नहीं आते? मैदानी क्षेत्रों में जब टनल या सुरंगों का निर्माण होता है तो उसमें ताजी हवा प्रदान करने और मीथेन जैसी विस्फोटक गैसों के से ब्लास्ट धुएं सहित हानिकारक गैसों को हटाने के लिए वेंटिलेशन महत्वपूर्ण होता है, जबकि निकास स्क्रबर के साथ भूमिगत उपयोग के लिए केवल कम धुएं वाले विस्फोटकों का चयन करने से भी समस्याएं कम होती है, लंबी सुरंगों में एक प्रमुख हवादार संयंत्र शामिल होता है जो तीन फीट व्यास तक के हल्के पाइपों के माध्यम से और बूस्टर प्रशंसकों के साथ एक मजबूर ड्राफ्ट को नियोजित करता है। इन सभी तकनीकों को नहीं अपनाया जाता।

उच्च स्तर ड्रिलिंग उपकरण द्वारा हेडिंग पर और वेंट लाइनों में उच्च-वेग हवा द्वारा पूरे सुरंग में उत्पन्न शोर को अक्सर संचार के लिए सांकेतिक भाषा के साथ इयरप्लग के उपयोग की आवश्यकता होती है। सुरंगों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निषिद्ध होते हैं, क्योंकि आवारा धाराएं ब्लास्टिंग सर्किट को सक्रिय करती हैं। पहाड़ी सुरंगों में तेज धमक से तूफ़ानी धाराओं का भी उठने का डर रहता है। ऐसे में विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। विदेशों में जब किसी बड़े टनल के निर्माण होता है तो उससे पूर्व भू-वैज्ञानिक जांच करवाई जाती है। तथा विभिन्न स्थानों की सापेक्ष और जोखिम वाले क्षेत्रों की गहन भूगर्भिक विश्लेषण होता है। जबकि, इस तरह की कोई विधि या तकनीक हमारे यहां नहीं अपनाई जाती है। हमारे इंजीनियर पर्वतीय क्षेत्रों के मिजाज को समझने में भूल करते हैं। विकसित वेल-लॉगिंग और भूभौतिकीय तकनीकों को प्रॉपर तरीके से नहीं अपनाते। नतीजा मौजूदा हादसे जैसी घटनाएं सामने आती हैं और उनका खामियाजा मासूम परिवारों को भुगतना पड़ता है। फिलहाल ये घटना किसी दर्दनाक हादसे में तब्दील न हो, सभी मजदूर सुरक्षित सुरंग से बाहर निकल के हर जरूरी प्रयास किए जाने चाहिए।

डॉ. रमेश ठाकुर (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

यह भी पढ़ें - Fatehabad : सरकारी खरीद बंद होने से निजी खरीदारों के हाथों लुट रहा किसान

Tags:    

Similar News