अवधेश कुमार का लेख : विदेश नीति को धार देते जयशंकर
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के समय एस. जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत थे। जयशंकर चीन और रूस दोनों जगह भारत के दूत रहे हैं। तो तीनों प्रमुख देशों का उनका सीधा अनुभव है। अमेरिका और यूरोप को जिस ढंग से जयशंकर ने खरी-खरी सुनाई उसमें आईना दिखाने का भाव है। नॉर्वे के विदेश मंत्री ने यूक्रेन पर रूसी हमले में भारत की भूमिका पर प्रश्न उठाया तो जयशंकर ने कहा याद कीजिए कि अफगानिस्तान में क्या हुआ? यहां की पूरी सिविल सोसायटी को विश्व ने छोड़ दिया। यूरोपीय प्रतिनिधियों को याद दिलाया कि एशिया में नियम आधारित व्यवस्था को चुनौती मिली तो यूरोप से भारत को यह सलाह मिली कि चीन से व्यापार बढ़ाया जाए।;
अवधेश कुमार
विदेश मंत्री एस जयशंकर इन दिनों भारत के एक बड़े वर्ग के हीरो बन रहे हैं। उन्होंने जिस तरह बयान दिया, द्विपक्षीय- बहुपक्षीय वार्ताओं में जो कहा और पत्रकारों के प्रश्नों के जैसे उत्तर दिये वैसे आमतौर पर वैदेशिक मामले में भारत से सुने नहीं जाते। जयशंकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ 11 अप्रैल को टू प्लस टू बातचीत के लिए अमेरिका गए थे। बातचीत के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के साथ जयशंकर और राजनाथ सिंह पत्रकार वार्ता कर रहे थे। एक पत्रकार ने रूस से भारत के तेल खरीदने पर सवाल पूछा तो जयशंकर ने कहा कि भारत रूस से जितना तेल एक महीने में खरीदता है उतना यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है। इसका सीधा मतलब था कि जो भारत को घेरना चाहते हैं उनकी असलियत दुनिया देखे। उसी पत्रकार वार्ता में अमेरिकी विदेश मंत्री ने कह दिया कि भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर उनकी नजर है। ब्लिंकन के इस वक्तव्य पर भारतीय पत्रकारों ने जयशंकर से प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने कहा कि जिस तरह से अमेरिका भारत में मानवाधिकारों को लेकर अपनी राय रखता है उसी तरह से भारत भी अमेरिका में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर अपना विचार रखता है। अगर उनकी हम पर नजर है तो हमारी भी उनके यहां मानवाधिकारों पर नजर है।
ये सारे बयान सुर्खियों में थे ही कि 26 अप्रैल को रायसीना डायलॉग में उनके बयान फिर चर्चा में आ गए। उसमें नॉर्वे के विदेश मंत्री ने यूक्रेन पर रूसी हमले में भारत की भूमिका पर प्रश्न उठाया तो जयशंकर ने कहा याद कीजिए कि अफगानिस्तान में क्या हुआ? यहां की पूरी सिविल सोसायटी को विश्व ने छोड़ दिया। उन्होंने पूछा कि अफगान मामले पर आपने जो किया वह किस प्रकार की नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप था? एशिया में हम लोग अपनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और यह संकट नियमों से संचालित व्यवस्थाओं पर बुरा असर डाल रहा है। उन्होंने यूरोपीय प्रतिनिधियों को याद दिलाया कि एशिया में नियम आधारित व्यवस्था को चुनौती मिली यानी चीन भारतीय सीमा पर दुस्साहस दिखा रहा था तो यूरोप से भारत को यह सलाह मिली कि चीन से व्यापार बढ़ाया जाए। कम से कम हम सलाह तो नहीं दे रहे हैं। अफगानिस्तान के मामले में किस नियम आधारित व्यवस्था का पालन किया गया? उन्होंने कहा कि यह यूरोप के जगने की ही नहीं बल्कि जग कर एशिया की ओर देखने की भी चेतावनी है। यहां विश्व के बहुत से समस्याग्रस्त क्षेत्र हैं। सीमाएं निश्चित नहीं है, राज्य द्वारा प्रायोजित आतंकवाद पूरी तरह से जारी है। इस स्थिति में विश्व के लिए अत्यावश्यक है कि वह इधर फोकस करे।
आम जन समूह ने इनका स्वागत किया है। जन प्रतिक्रियाओं को देखने के बाद पहला निष्कर्ष यही आएगा कि अमेरिका और यूरोप को जिस ढंग से जयशंकर ने खरी-खरी सुनाई वैसा ही भारत के लोग सुनना चाहते हैं। स्वाभाविक ही उनके बयानों की आलोचना भी हुई है। पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने डिप्लोमेसी यानी कूटनीति का मतलब प्रतिक्रियावादी होना नहीं होता है। हम इस स्तर पर पहुंच गए हैं कि पश्चिम से अतीत को लेकर बहस कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि इससे क्या हासिल होगा। सलमान खुर्शीद की प्रतिक्रिया उस रूप में सुर्खियां नहीं बनी अन्यथा देश में जैसा माहौल है उसमें आम लोगों का उत्तर क्या होता इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। सलमान खुर्शीद से पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत यूरोप और अमेरिका की नसीहत सुनने के लिए है? कोई विदेश मंत्री केवल मन की भाषा नहीं बोलता सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री की वैश्विक सोच व द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर उनकी अवधारणा को ही अभिव्यक्त करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक अवसरों पर अलग-अलग देशों को उनके सामने आईना दिखाया है।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के समय एस. जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत थे। जयशंकर चीन और रूस दोनों जगह भारत के दूत रहे हैं। तो तीनों प्रमुख देशों का उनका सीधा अनुभव है। उनका कार्यकाल 31 जनवरी 2015 को खत्म हो रहा था लेकिन सरकार ने उन्हें विदेश सचिव बना दिया। जिस व्यक्ति के पास 40 वर्ष से ज्यादा का अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का अनुभव हो, जो भारत को ठीक प्रकार से समझता हो और साथ ही वर्तमान सरकार की विदेश नीति की सोच से सहमत हो ,उसकी भाषा ऐसी ही होगी। जब प्रधानमंत्री स्वयं लहजे में मुखर होकर सुस्पष्ट बोलते हैं तो विदेश मंत्री को हिचक क्यों हो। भारतीय विदेश नीति का यह दुर्भाग्य रहा है कि प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से लेकर लंबे समय तक रोमांसवादी काल्पनिक सिद्धांतों पर आधारित रहा जिसमें राष्ट्रहित से ज्यादा अबूझ आदर्श तथा नैतिकता, शालीनता, सभ्यता के नाम पर अजीब अव्यवहारिक लबादों से घिरा रहा। कई विद्वानों ने इसे नासमझ और राष्ट्र का अहित करने वाले व्यवहार की संज्ञा दी है। हमारी कोई आलोचना करे लेकिन हम उसी भाषा में उसे जवाब नहीं देंगे यह कैसी विदेश नीति थी? हिचकिचाहट या दूसरी भाषा में दब्बुपन से भारत को हासिल क्या हुआ? पंडित नेहरू के साथ वीके कृष्ण मैनन जैसे वामपंथी चरित्र वाले विदेश मंत्री ने भारतीय विदेश नीति को दूसरे देशों के साथ व्यवहार में हिचकिचाहट और संकोच से भरे व्यवहार का चरित्र प्रदान कर दिया। इंदिरा गांधी के शासनकाल में भारत ने 1971 में बांग्लादेश युद्ध में हस्तक्षेप कर निर्णायक विजय प्राप्त की। बावजूद राष्ट्रहित पर आधारित कूटनीतिक अस्पष्टता तथा मुखरता की कमी से भारत ने उस विजय से कुछ भी हासिल नहीं किया। 90 हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक हमारी कैद में थे लेकिन हम पाकिस्तान से कुछ नहीं ले सके। तब भारतीय सेना ने सिंध के काफी इलाकों पर कब्जा कर लिया था जिनमें हिंदू बहुल जिले शामिल थे। जिस भारत को जयशंकर अभिव्यक्त कर रहे हैं उसकी तार्किक परिणति तब यही होती कि हम पाकिस्तान से सौदेबाजी करते और कहते कि हम आपको सिंध का क्षेत्र लौटा सकते हैं आप कश्मीर का हमारा भाग लौटा दीजिए। संभव था पाकिस्तान तब मजबूर हो जाता।
समय-समय पर भारतीय विदेश नीति ने मुखरता और राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी। मसलन, नरसिंह राव के शासनकाल में सोवियत संघ के विघटन के बाद नए सिरे से विदेश नीति की पुनर्रचना करने की चुनौती उत्पन्न हुई थी। उन्होंने मजराइल के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में जायनवाद बनाम जातिवाद प्रस्ताव को खत्म करने के पक्ष में मतदान कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में नाभिकीय विस्फोट करने के बाद लगे प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने किसी भी सूरत में अमेरिका या पश्चिमी देशों के सामने झुकने से इनकार किया। जिन देशों ने भारत के बहिष्कार का ऐलान किया उन्हें भी तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने करारा जवाब दिया। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसे अवसर नहीं आए जब लगा कि विदेश नीति करवट ले रही है और हमें सीख देने वाले देशों को ठीक प्रकार से उनकी भाषा में न केवल उत्तर दिया जा रहा है बल्कि सही व्यवहार करने के रास्ते दिखाए जा रहे हैं। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ऐसा हुआ है। इसी का परिणाम है कि हम अमेरिका, यूरोप सहित अनेक देशों के रक्षा साझेदार हैं। वास्तव में द्विपक्षीय अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नसीहत या सीख देने वाले को स्पष्ट शब्दों में आईना दिखाना, आलोचनाओं का कूटनीतिक लहजे में मुखर होकर उत्तर देना, अपने पक्ष को ठीक प्रकार से सामने रखना तथा दूसरे की कमियों को उजागर करना आदि कूटनीति के ऐसे पहलू हैं जिनसे राष्ट्रहित पूरा होता है। दूसरे देश भी आपके साथ समानता के स्तर पर व्यवहार करने को विवश होते हैं। एक बार आपने सुस्पष्ट होकर उत्तर देना शुरू किया और साथ ही आंतरिक बातचीत में अपने लहजे को बेहतर रखकर उपयोगिता साबित करते हुए संबंधों को ठीक पटरी पर ले चले तो किसी देश से संबंध भी नहीं बिगड़ता। एस जयशंकर की वर्तमान मुखरता व स्पष्टता और दो टूक शब्दों में दिए जा रहे वक्तव्य इसी व्यवहारिक राष्ट्रहित पर आधारित विदेश नीति के प्रतीक हैं।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )