ज्योतिरादित्य : दादी के आंसुओं को पोंछ दिया
ज्योतिरादित्य के कदम की तुलना उनकी दादी द्वारा 43 साल पहले उठाए गए कदम से हो रही है। तब राजमाता ने जनसंघ के सहयोग से अपनी ही पार्टी कांग्रेस की द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार गिरा दी थी।;
कांग्रेस से विदा होकर क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी दादी के उन आंसुओं की कीमत अदा की है, जिन्होंने अस्सी के दशक के शुरुआती दिनों में राजमाता विजय राजे सिंधिया को बेजार कर दिया था। सवाल यह भी उठ रहा है कि भाजपा का एक कर्ज माधव राव सिंधिया अपनी जिंदगी में नहीं चुका पाए थे, ज्योतिरादित्य के सिर्फ एक कदम ने अपने पिता का वह कर्ज भी चुका दिया है। कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलगाव के बाद मध्यप्रदेश की राजनीति पर चर्चाएं खूब हो रही हैं। ज्योतिरादित्य के कदम की तुलना उनकी दादी द्वारा 43 साल पहले उठाए गए कदम से हो रही है। तब राजमाता ने जनसंघ के सहयोग से अपनी ही पार्टी कांग्रेस की द्वारका प्रसाद मिश्र की सरकार गिरा दी थी। तब से राजमाता की जनसंघ के साथ जो यात्रा शुरू हुई, वह ताजिंदगी जारी रही, लेकिन बहुत कम लोगों को राजमाता के वे आंसू याद हैं, जब भैया उनका साथ छोड़कर इंदिरा गांधी के साथ चले गए थे। राजमाता अपने इकलौते पुत्र माधव राव सिंधिया को भैया ही बुलाती थीं।
चौधरी चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद जब 1980 में चुनाव हुए तो राजमाता विजयराजे सिंधिया अपनी पहल पर रायबरेली से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरीं। वह चुनाव उनकी जिंदगी का सबसे मुश्किल चुनाव रहा। वे इंदिरा गांधी के खिलाफ मैदान में थीं और उनके इकलौते बेटे माधव राव सिंधिया उनके खिलाफ प्रचार कर रहे थे। जनता पार्टी की अंतरकलह के बाद हुए चुनाव के दौरान इंदिरा गांधी की लहर चल रही थी। जिस रायबरेली से ठीक ढाई साल पहले हुए चुनावों में राजनारायण ने इंदिरा गांधी को धूल चटाई थी, उसी रायबरेली से 1980 में इंदिरा का मुकाबला राजमाता विजय राजे सिंधिया कर रही थीं। तब तक इंदिरा गांधी अपनी लोकप्रियता वापस हासिल कर चुकी थीं। उस चुनाव में उन्हें एक साथ दो-दो मोर्चों पर जूझना पड़ रहा था। चुनाव मैदान में उस इंदिरा के खिलाफ मैदान में थीं, जिनके आपातकाल के खिलाफ उन्होंने यह कहने का साहस दिखाया था कि मैं जेल जाना पंसद करूंगी, लेकिन आपातकाल जैसे काले कानून का कभी समर्थन नहीं। उस इंदिरा का प्रचार उनके ही आंखों का तारा कर रहा था। तब उन्हें जनता के बीच माधव राव के इंदिरा गांधी के समर्थन में उतरने को लेकर उठते सवालों का जवाब देना भारी पड़ रहा था। उस चुनाव के बाद एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में राजमाता ने कहा था कि वे दिनभर इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रचार करती थीं और देर रात को रोती रहती थीं। उस इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे हर अगले दिन की शुरूआत इस उम्मीद के साथ करती थीं कि भैया लौट आएगा, लेकिन भैया नहीं लौटा। तब से माधव राव सिंधिया ने कांग्रेस का जो हाथ थामा, वह आजीवन थामे रखा। कानपुर के पास एक हवाई दुर्घटना में 30 मार्च 2001 को उनका निधन हुआ, तब वे लोकसभा में कांग्रेस को उप नेता पद पर थे। पहला संसदीय चुनाव जीतकर सोनिया गांधी कांग्रेस की नेता थीं, लेकिन लोकसभा कवर करने वाले पत्रकार जानते हैं कि नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में भले ही सोनिया गांधी थीं, लेकिन हकीकत में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका माधव राव सिंधिया ही निभाते थे। कांग्रेस के सच्चे सिपाही के रूप में माधव राव सिंधिया को कांग्रेस से भी 1996 में बेरूखी का सामना करना पड़ा था। 1996 के आम चुनावों के ठीक पहले उनका भी नाम उस दौर के चर्चित हवाला कांड में आया था। तब कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा का टिकट देने से इनकार कर दिया था। यह संयोग ही है कि जिस कमलनाथ के खिलाफ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने विद्रोह किया है, उनका भी नाम हवाला कांड में आया था और उन्हें भी कांग्रेस ने तब टिकट नहीं दिया था। यह बात और है कि वे अपनी पत्नी अलका नाथ को टिकट दिलाने में कामयाब रहे थे, जबकि माधव राव सिंधिया ने निर्दलीय ही ग्वालियर से भाग्य आजमाया था। उस वक्त भाजपा ने माधवराव के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने को उनके ही परिवार के इतिहास के इन दो पन्नों से जोड़कर देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि उन्होंने न सिर्फ अपनी दादी जैसा इतिहास दोहराया है, बल्कि 1980 में बहे उनके आंसुओं की कीमत भी चुकाई है। इतना ही नहीं, उन्होंने एक तरह से 1996 की भारतीय जनता पार्टी की सौजन्यता का भी बदला चुका दिया है।
सिंधिया परिवार की दो बेटियों वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे के भाजपा और ज्योतिरादित्य के कांग्रेस में रहने को लेकर राजनीतिक कानाफूसियां भी खूब होती थी। अंग्रेजी शासन के दिनों सिंधिया परिवार की जिस भूमिका को अब कांग्रेस खुलकर उठा रही है, उस भूमिका को लेकर कभी दबी जुबान से चर्चा होती रही है। यह बात और है कि राजमाता विजय राजे सिंधिया ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के अनुरोध पर कांग्रेस से ही की थी। आपातकाल के दिनों में भले ही राजमाता जनसंघ के साथ थी, लेकिन इंदिरा गांधी ने खुद उन्हें बुलाकर अपने चर्चित बीस सूत्रीय कार्यक्रम के समर्थन करने को कहा था। ऐसे में कांग्रेस द्वारा सिंधिया खानदान के अतीत की कारस्तानियों को मुद्दा बनाना अवसरवादिता ही कही जाएगी। जब जवाहर लाल नेहरू ने राजमाता को कांग्रेस में बुलाया या फिर इंदिरा गांधी ने समर्थन मांगा तो ऐसा नहीं कि उन्हें सिंधिया के पुरखों की कहानी पता नहीं होगी। इसलिए इतिहास की भूमिकाओं की कसौटी पर मौजूदा सिंधिया परिवार को कसना उचित नहीं माना जाएगा। बहरहाल ज्योतिरादित्य के कदम से सिंधिया परिवार खुश है। उनकी बुआ और मध्यप्रदेश की पूर्व मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने खुशी जताई है। यशोधरा ने ट्वीटर पर लिखा, मैं बहुत खुश हूं और ज्योतिरादित्य को बधाई देती हूं। यह उनकी घर वापसी है, कांग्रेस में उपेक्षित हो रहे थे ज्योतिरादित्य। राजमाता के रक्त ने लिया राष्ट्रहित में फैसला, साथ चलेंगे। नया देश गढ़ेंगे, अब मिट गया हर फासला।
राजनीतिक गलियारों में दखल रखने वालों का कहना है कि ज्योतिरादित्य मुख्यमंत्री न बनाए जाने को लेकर नाराज थे। वैसे उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाएगा, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। वैसे कांग्रेस कार्यसमिति के एक पूर्व सदस्य का कहना है कि मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान भले ही मीडिया का एक वर्ग ज्योतिरादित्य को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रचारित कर रहा था, लेकिन हकीकत में उनके नाम पर विचार भी नहीं हुआ था। ज्योतिरादित्य ने नाराजगी जतानी शुरू कर दी। बालाकोट कार्रवाई की कांग्रेस द्वारा आलोचना के बावजूद ज्योतिरादित्य ने समर्थन करके इरादे जाहिर कर दिए थे। ऐसा नहीं कि कांग्रेस यह समझ नहीं रही थी, लेकिन पार्टी को लगता था कि ज्योतिरादित्य के सामने विकल्प नहीं है। कांग्रेस शायद यह भूल गई कि विचारधाराओं से विचलन के दौर में ऐसी सोच की कोई गुंजाइश नहीं, लेकिन सवाल यह है कि अगर ज्योतिरादित्य की महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं तो वे क्या भारतीय जनता पार्टी के साथ वैसी ही निष्ठा बनाए रख सकेंगे, जैसी निष्ठा उनकी दादी और दोनों बुआओं ने दिखाई है।