मेरी आवाज ही पहचान है...
फिल्म किनारा का ये गीत नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे। ये गीत गुलज़ार ने लिखा और आरडी बर्मन ने इसे संगीत दिया। ये गाना कब लता की पहचान बन गया ये वो खुद भी नहीं जान पाईं। इस गीत के लोकप्रिय होने के बाद गुलज़ार ने लता से कहा था कि ये गीत आपका सिग्नेचर बन गया है। इसको अब आप अपने बारे में बताने के साथ अपने ऑटोग्राफ में भी लिख सकतीं हैं। अपने सफ़र को संक्षेप रूप में समझाते हुए लता दीदी ने कई समारोहों में इसी गीत की इन्हीं पंक्तियों को गुनगुनाया। आज उन्होंने भले ही अपना भौतिक शरीर त्याग दिया है, पर उनकी आवाज़ और पहचान दोनों अमर रहेंगे।;
प्रदीप सरदाना
स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने जैसे ही 6 फरवरी 2022 की सुबह 92 बरस की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा, पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर फिल्म जगत की सभी हस्तियां और आम नागरिक भी अपनी प्रिय लता दीदी को याद कर भाव विभोर हो उठे। सभी आम और ख़ास लता जी के गीतों को अश्रुपूर्ण कंठ से गुनगुनाते हुए अपने अपने तरीके से उन्हें श्रद्धांजलि देने लगे।
28 सितम्बर 1929 को मध्यप्रदेश के इंदौर में जन्मीं लता मंगेशकर ने यूं तो अपने बचपन से ही बहुत संघर्ष किए, लेकिन अच्छी बात यह थी उन्होंने मात्र 5 वर्ष की आयु में अपने शास्त्रीय गायक और रंगकर्मी पिता दीना नाथ मंगेशकर से गायन सीखना शुरू कर दिया था। जब वह सात साल की थीं, तभी उनका परिवार महाराष्ट्र में आ गया था। जहां आकर लता ने मंच पर गीत संगीत के कुछ कार्यक्रम करके अपने बालपन में ही अपनी प्रतिभा से सभी का मन मोहा, लेकिन सन 1942 में उनके पिता के निधन के बाद लता के पिता दीनानाथ के दोस्त और मराठी फिल्मकार व अभिनेता विनायक दामोदर कर्नाटकी, जो मास्टर विनायक के नाम से विख्यात थे, उन्होंने लता को एक अभिनेत्री और गायिका बनने में मदद की।
75 साल से कोई सानी नहीं
लता दीदी ने हिंदी फिल्मों में अपने पार्श्व गायन से लगभग 70 साल का एक लम्बा सफ़र तय किया। इतना शानदार और सुहाना सफ़र अन्य किसी गायिका का नहीं रहा। सच तो यह है कि पिछले 75 बरसों में कोई भी और गायिका लता मंगेशकर के शिखर को नहीं छू सकी है। लता जी ने 20 भाषाओं में हज़ारों गीत गाकर भी जिस क्षितिज को छुआ, वह भी उन्हें सबसे आगे ले जाता है। यदि फिल्मों में पार्श्व गायन की लम्बी पारी की भी बात करें तो उनका मुकाबला सिर्फ और सिर्फ अपनी छोटी बहन आशा भोंसले से रहा है। यहां तक कि लता मंगेशकर के पूरे करियर में भी यदि कोई उनका मजबूत प्रतिद्वंद्वी रहा है तो वह भी आशा भोंसले रही हैं, लेकिन यह भी सच है कि कुल मिलाकार लता मंगेशकर जैसी गायिका इस देश में ही नहीं, इस धरती पर भी कोई और नहीं है। आशा भोंसले करोड़ों को अपनी मादक आवाज़ से दीवाना बनाने का दमखम रखने और कई बड़े शिखर छूने के बाद भी लता मंगेशकर के सामने, अपने जीवन में ही नहीं, गायिका के रूप में भी उनकी छोटी बहन हैं। दुनियाभर के संगीत प्रेमी और संगीत तथा स्वर विशेषज्ञ बरसों तक इस रहस्य को जानने के लिए उतावले रहे कि कोकिला कंठ लता के कंठ में ऐसा क्या है जो इतनी मधुर और मखमली आवाज की स्वामिनी हैं, लेकिन यह रहस्य उनके जीवन के आखिरी पल तक रहस्य ही बना रहा। वे खुद हमेशा इसका श्रेय प्रभु की कृपा और मां बाबा के आशीर्वाद को देती रहीं। जो मान सम्मान लता जी को अपने जीवन में एक पार्श्व गायिका के रूप में मिला, उतना फिल्म संगीत क्षेत्र की किसी हस्ती को नहीं मिला। लता मंगेशकर को जहां देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न और फिल्म क्षेत्र का शिखर पुरस्कार दादा साहब फाल्के मिला है वहां उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण जैसे शिखर के नागरिक सम्मानों से भी नवाज़ा जा चुका है। उधर लता ने अपने सर्वश्रेष्ठ गायन के लिए तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता, चार बार सर्वश्रेष्ठ गायिका का फिल्मफेयर पुरस्कार भी और एक बार फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार के साथ दो बार फिल्मफेयर के विशेष सम्मान भी उन्हें प्राप्त हुए।
केएल सैगल की दीवानी थीं लता
भारतीय सिनेमा में रफी, मुकेश और किशोर कुमार तीन ऐसे पुरुष गायक रहे, जिनके गीतों का जादू आज भी सभी के सिर चढ़कर बोलता है। इन तीनों गायकों ने लता जी के साथ अनेक यादगार-सदाबहार गीत में पार्श्व गायन किया, लेकिन इसमें बड़ी बात ये है कि ये चारों महान गायक खुद किसी गायक के मुरीद थे तो वह थे-कुन्दन लाल सैगल। स्वर कोकिला लता मंगेशकर को तो हमेशा इस बात का मलाल रहा कि उन्हें सैगल से मिलने या उनके साथ गायन का मौका नहीं मिल सका। वह सैगल की किस हद तक मुरीद रहीं उसकी मिसाल इस बात से ही मिलती है कि वह रिकॉर्डिंग के समय सैगल की एक अंगूठी पहनती रहीं। लता ने एक बार कहा था-मैंने सोचा सैगल साहब का कोई स्मृति चिह्न मेरे पास हो। इसके लिए मैंने उनके बेटे मदन सैगल से कहा तो उन्होंने मुझे सैगल साहब की एक अंगूठी दे दी। आज भी जब मैं फिल्म गीतों की रिकॉर्डिंग करती हूं तो उस अंगूठी को पहन लेती हूं। उसे पहनते ही मुझमें एक नया उत्साह आ जाता है। मैं सोचती हूं उनकी अंगूठी का यह कमाल है तो यदि वह मेरे साथ गा रहे होते तो क्या होता। लता दीदी का एक और यादगार किस्सा रहा जो सैगल से जुड़ा हुआ है और सैगल के प्रति उनकी भावनाएं प्रत्यक्ष रूप से बताता है। जब लता जी ने कुछ पैसे कमा लिए थे तो उन्होंने पहली बार एक रेडियो खरीदा। हालांकि उन्हें रेडियो सुनने का बहुत शौक था, पर आर्थिक कारणों से उन्होंने पहले कभी रेडियो नहीं खरीदा था, जिस दिन उन्होंने रेडियो खरीदा तो वो ये सोच कर बहुत खुश थीं कि अब इस पर वो सैगल के गीत आराम से सुनेंगी, पर जैसे ही घर पहुंचकर उन्होंने रेडियो को चलाया तो उसमें सबसे पहली खबर मिली सैगल के निधन की। इससे लता जी का दिल बुरी तरह टूट गया, और इसी टूटे दिल के साथ उन्होंने अपना वो नया रेडियो भी तोड़ दिया। सैगल के प्रति उनकी दीवानगी बचपन से ही इस कदर थी कि जब एक बार वो सैगल की एक फिल्म चंडीदास देखकर आईं तो उन्होंने घर आकर अपने माता पिता से कहा कि मैं बड़े होकर के एल सैगल से शादी करुंगी। जिस लता दीदी के देश और दुनिया में असंख्य चाहने वाले हैं, वो खुद किसी हस्ती को ऐसी ही शिद्दत से चाहती थीं, ये दिलचस्प है।
मेरी आवाज ही पहचान है
1977 में आई फिल्म किनारा का ये गीत नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे। ये गीत गुलज़ार ने लिखा और आरडी बर्मन ने इसे संगीत दिया। ये गाना कब लता की पहचान बन गया ये वो खुद भी नहीं जान पाईं। इस गीत के लोकप्रिय होने के बाद गुलज़ार ने लता से कहा था कि ये गीत आपका सिग्नेचर बन गया है। इसको अब आप अपने बारे में बताने के साथ अपने ऑटोग्राफ में भी लिख सकतीं हैं। अपने सफ़र को संक्षेप रूप में समझाते हुए लता दीदी ने कई समारोहों में इसी गीत की इन्हीं पंक्तियों को गुनगुनाया। लता दीदी दुनियाभर में भारत की आवाज़ और पहचान बनीं। आज उन्होंने भले ही अपना भौतिक शरीर त्याग दिया है, पर उनकी आवाज और पहचान दोनों अमर रहेंगे।
(लेखक प्रदीप सरदाना वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)