प्रमोद भार्गव का लेख : चुनावी चंदे में पारदर्शिता की जरूरत

2018 में चुनावी बाॅन्ड के जरिए चंदा लेने का कानून बनाए जाने वक्त दावा किया गया था कि कालेधन पर रोक और भ्रष्टाचार पर लगाम की दृष्टि से राजनीतिक पार्टियां अब केवल निर्वाचन बाॅन्ड के जरिए ही चंदा ले सकेंगी। ‘महान्यायवादी’ आर वेंकटरमणी शीर्ष अदालत में चुनावी बाॅन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई से पहले केंद्र सरकार का पक्ष रखा है। इस लिखित दलील में कहा है कि देश की जनता को राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, यह जानने का अधिकार नहीं है। चुनावी बाॅन्ड चंदा देने का एक स्वच्छ जारिया है, इसलिए इनके नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकते हैं। लेकिन चुनावी चंदे में पारदर्शिता आवश्यक है।;

Update: 2023-11-04 09:23 GMT

देश के विधि अधिकारी ‘महान्यायवादी’ आर वेंकटरमणी शीर्ष अदालत में चुनावी बाॅन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई से पहले केंद्र सरकार का पक्ष रखा है। इस लिखित दलील में कहा है कि देश की जनता को राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, यह जानने का अधिकार नहीं है। चुनावी बाॅन्ड चंदा देने का एक स्वच्छ जारिया है, इसलिए इनके नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकते हैं। महान्यायवादी ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1-ए) के तहत नागरिकों को चुनावी धन का स्रोत जानने का अधिकार नहीं होने की दलील भी दी। इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ कर रही है। इस मामले में विडंबना है कि इसी अदालत के ही 2003 में दिए, एक फैसले के अनुसार हर प्रत्याशी को बाध्य किया गया है कि वह अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी शपथ-पत्र में नामांकन देने के साथ दे। साफ है, कि मतदाताओं को आपराधिक छवि के उम्मीदवारों के बारे में जानने का हक तो है, लेकिन दलों के चंदे का स्रोत क्या है, इसे जानने का अधिकार नहीं है। महान्यायवादी ने तर्क दिया है कि उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास को जानने के अधिकार का मतलब यह नहीं है कि पार्टियों के वित्तपोषण के बारे में जानने का अधिकार भी है।

2018 में चुनावी बाॅन्ड के जरिए चंदा लेने का कानून बनाए जाने वक्त दावा किया गया था कि कालेधन पर रोक और भ्रष्टाचार पर लगाम की दृष्टि से राजनीतिक पार्टियां अब केवल निर्वाचन बाॅन्ड के जरिए ही चंदा ले सकेंगी। ये बाॅन्ड एक हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ के गुणक में उपलब्ध हैं। इन्हें केवल भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ही खरीदा जा सकेगा। खरीदार को बैंक खाते से भुगतान करना होगा। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया था कि इस व्यवस्था के शुुरू होने से देश में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की प्रक्रिया में पारदर्शिता आ जाएगी। भारत का कोई भी नागरिक या संस्था ये बॉन्ड खरीद कर दलों को चंदा देने के लिए स्वतंत्र हैं। बाॅन्ड पर दानदाता का नाम नहीं लिखा जाएगा। ये बॉन्ड खरीदे जाने के 15 दिन के भीतर किसी भी दल को दान के रूप में दिए जा सकेंगे। इस दान को लेने का हक केवल उन दलों को होगा, जिन्हें निर्वाचन आयोग की मान्यता के साथ एक प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हों। इस प्रक्रिया पर असहमति जताते हुए भारत निर्वाचन आयोग ने कहा था कि आम लोगों को यह कैसे पता चल पाएगा कि किस दल या उम्मीदवार को कितना चंदा किस व्यक्ति या कारोबारी से मिला है? आयोग ने सरकार द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून में किए गए उस बदलाव पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी, जिसमें राजनीतिक दल को बॉन्ड के जरिए ली गई धनराशि को ऑडिट रिपोर्ट में दर्शाने की बाध्यता खत्म कर दी है। ये प्रावधान ‘वित्त विधेयक-2017’ के जरिए किए गए हैं।

महान्यायवादी की दलील से साफ है कि सरकार राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता के हक में नहीं है। वित्त विधेयक-2017 में प्रावधान है कि कोई व्यक्ति या कंपनी चेक या ई-पेमेंट के जरिए चुनावी बाॅन्ड खरीद सकता है। ये बियरर चेक की तरह बियरर बाॅन्ड होंगे। मसलन इन्हें दल या व्यक्ति चेकों की तरह बैंकों से भुना सकते हैं। चूंकि बाॅन्ड केवल ई-ट्रांसफर या चेक से खरीदें जा सकते हैं, इसलिए खरीदने वाले का पता होगा, लेकिन पाने वाले का नाम गोपनीय रहेगा। अर्थशास्त्रियों ने इसे कालेधन को बढ़ावा देने वाला उपाय बताया था। क्योंकि इस प्रावधान में ऐसा लोच है कि कंपनियां इस बाॅन्ड को राजनीतिक दलों को देकर फिर से किसी अन्य रूप में वापस ले सकती हैं। कंपनी या व्यक्ति बॉन्ड खरीदने पर किए गए खर्च को बही खाते में तो दर्ज करेंगी, लेकिन यह बताने को मजबूर नहीं रहेंगी कि उसने ये बाॅन्ड किसे दिए हैं। यही नहीं सरकार ने कंपनियों पर चंदा देने की सीमा भी समाप्त कर दी है। बॉन्ड के जरिए 20 हजार रुपये से ज्यादा चंदा देने वाली कंपनी या व्यक्ति का नाम भी बताना जरूरी नहीं है, जबकि इसी सरकार ने कालेधन पर अंकुश लगाने की दृष्टि से राजनीतिक दलों को मिलने वाले नकद चंदे में पारदर्शिता लाने की पहल करते हुए आम बजट में इसकी सीमा 20000 रुपये से घटाकर 2000 रुपये कर दी थी।

केंद्र सरकार ने यह पहल निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर की थी। आयोग ने इसके लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन का सुझाव दिया था। फिलहाल दलों को मिलने वाला चंदा आयकर अधिनियम 1961 की धारा 13 (ए) के अंतर्गत आता है। इसके तहत दलों को 20,000 रुपये से कम के नकद चंदे का स्रोत बताने की जरूरत नहीं है। इसी झोल का लाभ उठाकर दल बड़ी धनराशि को 20,000 रुपये से कम की राशियों में सच्चे-झूठे नामों से बही खातांे में दर्ज कर कानून को ठेंगा दिखाते रहे हैं। इस कानून में संशोधन के बाद जरूरत तो यह थी कि दान में मिलने वाली 2000 तक की राशि के दानदाता की पहचान को आधार से जोड़ा जाता, जिससे दानदाता के नाम का खुलासा होता? किंतु ऐसा न करते हुए सरकार ने निर्वाचन बाॅन्ड के जरिए उपरोक्त प्रावधानों पर पानी फेर दिया।

एक अनुमान के अनुसार लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर 50 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च होते हैं। इस खर्च में बड़ी धनराशि कालाधन और आवारा पूंजी की होती है, जो औद्योगिक घरानों और बड़े व्यापारियों से ली जाती है। आर्थिक उदारवाद के बाद यह बीमारी सभी दलों में पनपी है। इस कारण दलों में जनभागीदारी निरंतर घट रही है। मसलन काॅरपोरेट फंडिंग ने ग्रास रूट फंडिंग का काम खत्म कर दिया है। इस वजह से दलों में जहां आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हुआ, वहीं आम आदमी से दूरियां भी बढ़ती चली गईं। दल आम कार्यकर्ताओं की बजाय धनबलियों को उम्मीदवार बनाने लग गए हैं। नतीजतन लोकसभा और विधानसभाओं में पूंजीपति जनप्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वर्तमान लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों की घोषित संपत्ति 10 हजार करोड़ रुपये (एक खरब) से अधिक है।

एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक राइट्स के मुताबिक, साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों को 2100 करोड़ रुपये का चंदा मिला हैं। इसका 63 प्रतिशत नकदी के रूप में लिया गया। पिछले 3 लोकसभा चुनावों में भी 44 फीसदी चंदे की धनराशि नकदी के रूप में ली गई। राजनीतिक दल उस 75 फीसदी चंदे का हिसाब देने को तैयार नहीं हैं, जिसे वे अपने खातों में अज्ञात स्रोतों से आया दर्शा रहे हैं। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2014-15 में व्यापारिक घरानों के चुनावी न्यासों से दलों को 177.40 करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिले हैं। 2013 में संप्रग सरकार ने कंपनियों को चुनावी ट्रस्ट बनाने की अनुमति दी थी। ये आंकड़े उसी के परिणाम हैं। चंदे में पारदर्शिता जरूरी है। 

 (लेखक- प्रमोद भार्गव वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

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